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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतएक दलित किरदार जो ऑनर किलिंग या अंतर्जातीय प्रेम का पीड़ित नहीं है, ये नीरज घेवन ही दिखा सकते हैं

एक दलित किरदार जो ऑनर किलिंग या अंतर्जातीय प्रेम का पीड़ित नहीं है, ये नीरज घेवन ही दिखा सकते हैं

पिछले कुछ सालों से ड्रग्स, लैंगिक समानता, अपराध, कामुकता को कैमरे पर बॉलीवुड आसानी से दर्शाता आ रहा है लेकिन समझ में नहीं आता कि बॉलीवुड अभी भी दलित किरदारों से क्यों हिचकिचाता है.

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पिछले कुछ सालों से ड्रग्स, लैंगिक समानता, अपराध, कामुकता को कैमरे पर बॉलीवुड आसानी से दर्शाता आ रहा है लेकिन समझ में नहीं आता कि बॉलीवुड अभी भी दलित किरदारों से क्यों हिचकिचाता है. उनके न होने से बॉलीवुड की कहानियां, काल्पनिक ही नहीं, उबाऊ ज़रूर लगती हैं. कहानी अनुकूल होने के बावजूद, स्पष्ट रूप से परिभाषित दलित मुख्य किरदारों को परदे पर दर्शाने की बॉलीवुड की अनिच्छा बिल्कुल साफ नज़र आती है.

गीली पुच्ची ’, जो नेटफ्लिक्स के ताज़ा तरीन संकलन अजीब दास्तान्स का हिस्सा है, बहुत वास्तविक है. इसमें एक स्पष्ट पहचान की दलित किरदार भारती मंडल (कोंकना सेन शर्मा) लीड भूमिका में है जिसके साथ है एक ब्राह्मण प्रिया शर्मा (अदिति राव हैदरी). भारती अपनी लैंगिकता से जूझ रही है और साथ ही कार्यस्थल पर उसे जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है. नीरज घेवन की फिल्म जाति की दो विभिन्न समाज के किरदार पेश करते हैं.

भारती कोई हमनाम दलित किरदार नहीं है, जिसे सिर्फ मसाले के लिए कहानी में जोड़ दिया है. वो एक मुख्य भूमिका में है, जो एक निजी मैन्युफेक्चरिंग कंपनी में मेहनत का काम करने वाली कर्मचारी है और उसी फर्म में खाली एक सफेद पोश कर्मी की भूमिका के लिए योग्य है. लेकिन किसी प्रिया शर्मा को अपने आखिरी नाम और ‘हस्त रेखा पढ़ने’ के हुनर की वजह से वो नौकरी मिल जाती है. निजी क्षेत्र में सवर्ण विशेषाधिकार, कोटा की शक्ल में किस तरह काम करता है, ये एक बेहतरीन मिसाल है. इस सब के बीच प्रिया और भारती दोनों, अपनी असली लैंगिकता तलाश रही हैं.

दलित किरदार केवल अंतर्जातीय प्रेम या ऑनर किलिंग वाली कहानी में हो ये जरूरी नहीं है. लैंगिकता और जेंडर की कहानी दिखाने के लिए भी दलित किरदार दिखाए जा सकते है, ये नीरज घेवन के सिवा कौन बेहतर बता सकता है.


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वो जिसे नाम नहीं दिया जा सकता

अजीब दास्तान्स देखते हुए मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या होता अगर घेवन ने नेटफ्लिक्स के बॉम्बे बेगम्स या शी जैसे दूसरे हालिया सीरीज़ निर्देशित किए होते. इसके बावजूद कि कथानक इस बात का इशारा करता है, सीरीज के दोनों निर्देशक, प्रमुख महिला किरदार भूमिका (शी) और लिली (बॉम्बे बेगम्स) को स्पष्ट रूप से दलित दर्शाने से झिझक जाते है. क्या उन्हें लगता था कि दलितों को दिखाने से कथानक ‘पेचीदा’ हो जाएगा?

अगर अच्छे से परिभाषित ब्राह्मण/सवर्ण किरदार कहानी को ‘पेचीदा’ नहीं होने देते तो दलित या ओबीसीज़ किरदार दर्शाने से ऐसा क्यों हो सकता है?

मसलन, सान्या मल्होत्रा अभिनीत मार्च में नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ की गई पगलैट को ही ले लीजिए. ये एक ऐसी महिला की कहानी है, जो अपनी ज़िंदगी का मकसद तलाश रही है. नायिका का नाम संध्या पाण्डेय और फिल्म के दृश्य तथा संवाद दर्शकों को लगातार याद दिलाते हैं कि ये एक ब्राह्मण परिवार की कहानी है.

पगलैट की तुलना अपराध ड्रामा शी से कीजिए, जहां एक पुलिसकर्मी भूमिका परदेशी (अदिति पोहानकर), एक अंडरवर्ल्ड गैंग का पता लगाने के लिए अंडरकवर हो जाती है. भूमिका के किरदार में वो सब कुछ है, जिससे ‘आभास’ होता है कि वो एक दलित है. वो एक ऐसे परिवार से आती है, जो सुविधाओं से वंचित है और जिसकी आय का एक मात्र स्रोत एक सरकारी नौकरी है (संभवतया आरक्षण की बदौलत), उस नौकरी को बचाए रखने की हताशा, काम की जगह पर उसका मजाक उड़ाते सहकर्मी और सबसे अहम ‘लोखंडे’ (एक आम दलित सरनेम) नाम का एक पूर्व पति. और फिर भी, शो स्पष्ट रूप से भूमिका की सामाजिक हैसियत को स्थापित नहीं करता. उसका आखिरी नाम अस्पष्ट सा परदेशी है और वो दलित है या नहीं, ये दर्शकों की कल्पना पर छोड़ दिया गया है. मान लिया कि मूवी का मकसद भूमिका की लैंगिकता को तलाशना था और आप दलील दे सकते हैं कि जाति ने मुद्दे को और पेचीदा कर दिया होता. लेकिन सवर्ण किरदार विषयों को जटिल क्यों नहीं बना देते?

बॉम्बे बेगम्स में, लिली (अमृता सुभाष) एक ‘वंचित’ गरीब है लेकिन हमें ये नहीं बताया गया कि वो दलित है कि नहीं. उसका आखिरी नाम गोंधाली है, एक अजीब सा नाम है ताकि आप बस उसकी जाति का अनुमान लगाते रहें.

दो महिलाओं– अलंकृता श्रीवास्तव और बोरनिला चटर्जी द्वारा निर्देशित सीरीज़, मध्यम आयु वर्ग की महिलाओं और विवाहेतर संबंधों की बहुतायत जैसे मुद्दों पर बहुत खुलकर बात करती है. लेकिन, जब लिली की जाति दिखाने की बात आती है तो शो मुकर जाता है.

आप ध्यान दें कि फिल्मों में दलित किरदार दिखा देने भर से फिल्में जाति आधारित नहीं बन जातीं. नीरज घेवन, पा रंजीत और नागराज मंजुले जैसे निर्देशक, फिल्मों में ‘जातियों को नहीं लाते’. हिंदी सिनेमा में हमेशा जाति रहती है लेकिन वो लगभग हर समय सवर्णों पर केंद्रित होती हैं, चाहे वो मूवी की मांग हो या नहीं. हमेशा देखा गया है की दलित किरदारों को धुंधला कर दिया जाता है जबकि उत्पीड़क जातियां केंद्र में रहती हैं.

तुलना करें, तो मुस्लिम किरदारों को सवर्ण नैरेटिव्ज़ में आसानी से जगह मिल जाती है लेकिन दलित लगभग अदृष्य ही बने रहते हैं.


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बॉलीवुड को चाहिए एक ‘डाइवर्सिटी मीटर’

समाज जैसा है उसे वैसा दिखाने के लिए नीरज घेवन जैसा व्यक्ति चाहिए. वो एक दलिता महिला लीड किरदार को सामान्य बना देते हैं. गीली पुच्ची में भारती का उनका चरित्र चित्रण, बॉम्बे बेगम्स की संकोची लिली और शी की भूमिका को एक करारा जवाब है. जब भारती की सामाजिक हैसियत की बात आती है, तो किसी अनुमान की गुंजाइश नहीं रह जाती.

क्या सवर्ण किरदारों के ज़रिए बाल झड़ने (बाला) से लेकर, हकलाने (हिचकी) और समलैंगिकता (शुभ मंगल सावधान) तक, हर चीज़ नहीं दिखाई जाती? न्यूटन जैसी एक फिल्म एक बहुत ही दुर्लभ है जिसमे एक दलित मुख्य किरदार में दिखाया गया है, हालांकि उसकी कहानी भारत की चुनावी प्रक्रिया के बारे में थी.

इसी साल, मैंने बॉलीवुड फिल्मों तथा ओटीटी सीरीज़ के लिए एक #डाइवर्सिटीमीटर शुरू करने के बारे में ट्वीट किया था. किरदारों में विविधता की भारी कमी के बारे में व्यापक रूप से लिखने के बाद, यही एक तरीका था जिससे लेखकों, निर्माताओं और निर्देशकों को जवाबदेह बनाया जा सके.

 

अजीब दास्तान्स की गीली पुच्ची, न सिर्फ डाइवर्सिटी मीटर पर बल्कि अपने असाधारण कंटेंट के मामले में भी अच्छा स्कोर करती है. काश ये एक कोई लघु फिल्म नहीं, पूरी फिल्म होती. सोचिये अगर फिल्म की लंबाई डेढ़ घंटा और होती तो हम भारती और प्रिया की दुनिया के कितने सारे पहलू देख पाते.

इस लघु फिल्म के साथ, घेवन ने एक काल्पनिक कहानी में एक मजबूत दलित महिला के एक लीड किरदार को सामान्य करना शुरू किया है. ये दलित किरदार बिमल रॉय की 1959 की बदकिस्मत सुजाता या सौतन (1983) की राधा जैसी अभागी कल्पना नहीं है, जो बॉलीवुड अपनी सवर्ण निगाहों से दिखाता आ रहा है.

ज़रा सोचिए कि अगर इंडस्ट्री में कम से कम आधा दर्जन घेवन और होते, तो हम छोटे-बड़े पर्दे पर भारतीय समाज के कितने और वास्तविक रंग देख पाते.

(लेखक एक स्वतंत्र लेखक और भारतीय सिनेमा तथा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के समीक्षक हैं और विविधता के समर्थक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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