दो संडे पहले मैं दिल्ली में अपने घर में नाश्ता करने बैठा तो मुझे फौरन लग गया कि कहीं कुछ गड़बड़ है. मुझे खाने में कुछ स्वाद ही नहीं आ रहा था. मैं ख़ामोशी से मेज़ से उठ गया, जहां मेरी पत्नी और डेढ़ साल का बेटा खा रहे थे. उससे कुछ दिन पहले ही इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने, स्वाद और महक महसूस न होने को, कोविड-19 के लक्षणों में शामिल किया था. मैं अपनी स्टडी में गया और हाल ही की कुछ सामग्री निकाली. फ्रांस के एक रिसर्च पेपर में कहा गया था, कि ख़ासकर इस लक्षण में, बीमारी की 95 प्रतिशत निश्चितता है, जिसका मतलब है कि इस लक्षण वाले अधिकांश लोगों को ये बीमारी है, और सिर्फ 5 प्रतिशत की बीमारी की ही, ग़लत पहचान होती है.
मानना पड़ेगा कि ये घटनाक्रम थोड़ा ड्रामाई लगता है. कौन ऐसा होगा जो वैज्ञानिक पत्रिकाएं खंगालने के लिए, खाना छोड़कर उठ जाएगा? आम तौर से मैं भी ऐसा नहीं करूंगा लेकिन मैं निजी चिंता से आगे बढ़कर, कोविड-19 पर नज़र रखे हुए था- ये मेरा काम भी था. मैं बहुत से विश्व स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए, एक रणनीतिक सलाहकार के तौर पर काम करता हूं.
मैंने पहले स्थिति का विश्लेषण करना शुरू किया, जैसे वो कोई काम था. डेटा देखिए और तय कीजिए कि आगे क्या करना है लेकिन जल्द ही कुछ मौलिक भावनाएं उभरकर आने लगीं. आख़िर ये कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य नहीं था; ये मेरा अपना स्वास्थ्य था. मैं सोच रहा था कि फ्रेंच लोग शायद हमसे बहुत अलग थे, इसलिए वो स्टडी हमारे लिए उतनी प्रासंगिक नहीं होगी. इंकार के क्लासिक लक्षण. लेकिन मेरे अंदर का यथार्थवादी ‘95 प्रतिशत’ से आगे नहीं देख सका. कुछ मिनटों के बाद मुझे यक़ीन हो गया, कि मैं कोरोनावायरस से संक्रमित हो गया था.
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भारत की कम टेस्टिंग दर
दिमाग़ में बहुत से सवाल आए. मैंने किसे संक्रमित किया होगा? परिवार का सबसे डरपोक सदस्य होने के बाद भी, जो बिना ज़रूरत या मास्क लगाए बिना, एक बार भी बाहर नहीं निकला, मुझे संक्रमण हो कैसे गया? डर का भाव हावी होने लगा. बग़ल में ही रह रहे मेरे पेरेंट्स के लिए डर, जो दोनों 70 के क़रीब हैं. मेरी बहन और उसके बच्चों के लिए डर, जो उनके साथ रह रहे थे. मेरे बेटे और पत्नी के लिए डर. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे ये अपनी फैमिली से मिला, या मैंने उन्हें दिया. फर्क इससे पड़ता था कि हो सकता है, मेरा परिवार संक्रमित हो गया हो.
मैंने फौरन ख़ुद को आइसोलेट कर लिया. जब मैंने पूरे परिवार को टेस्ट कराने का सुझाव दिया, तो उसका विरोध हुआ. मैं उन्हें सिर्फ इस पर राज़ी कर सका, कि मेरे पैरेंट्स घर पर मास्क पहनें. अगर उनमें से किसी को है, तो दूसरों को भी ख़तरा था. मैंने सब्र कर लिया कि पहले अपना ही टेस्ट कराऊंगा. मैंने पागलों की तरह चार निजी लैब्स को फोन कर डाला. आख़िर में जाकर उनमें से एक ने पलटकर फोन किया. (कुछ दूसरी लैब्स ने तो तीन दिन बाद तक फोन नहीं किया.) मैं भाग्यशाली था कि लक्षण महसूस करने के 24 घंटे के भीतर, मेरा घर पर ही टेस्ट हो गया. और 24 घंटे में मुझे पॉज़िटिव घोषित कर दिया गया.
इस मामले के निजी होने से पहले ही, मैं भारत में नीची टेस्टिंग दरों से निराश था. हर दिन 10 लाख की आबादी पर केवल 110 टेस्ट हो रहे थे (16 जून को, मेरे इनफेक्शन के क़रीब). हाल ही में बढ़ने के बाद भी ये संख्या, 10 सबसे अधिक प्रभावित देशों में सबसे कम थी. 16 जून को, भारत में 1,50,000 टेस्ट किए गए, जोकि हमारी 5,00,000 टेस्ट प्रतिदिन की अनुमानित क्षमता से बहुत नीचे है.
ये सभी नम्बर्स गंभीर थे, लेकिन टेस्टिंग की उपयोगिता को मैं पूरी तरह तभी समझ पाया, जब मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया. ये बात ज़ाहिर है कि पर्याप्त संख्या में टेस्टिंग से, समस्या पूरी तरह सरकारों के सामने आ जाती है. निजी व्यक्तियों के लिए भी ये बहुमूल्य है:समय रहते जांच कार्रवाई योग्य डेटा है. मेरे टेस्ट से कम से कम तीन नतीजे निकले: 1- गाइडलाइन्स के मुताबिक मैं अपने परिवार का टेस्ट करा सका, 2- अपने पेरेंट्स और बहन को कहने के लिए ये एक उचित हथियार था, कि वो छोटे घरों में बट जाएं. अगर आप किसी भारतीय परिवार का हिस्सा हैं, तो आप जानते हैं कि ये फैसले आसान नहीं होते, 3- मैं उन सब को अपना स्टेटस बता सकता था, जिनके सम्पर्क में आया था.
अपनी ज़िंदगी में शायद पहली बार, मैं पब्लिक हेल्थ सिस्टम का एक ग्राहक बन गया.
कार्यान्वयन में गड़बड़ियां
मिडिल क्लास पब्लिक हेल्थ सिस्टम से कम से कम सम्पर्क रखता है, ये एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जिसे बदलना चाहिए. मेरा अनुभव मिला जुला रहा है. बहुत बार मैं दिल्ली की आम आदमी सरकार और नरेंद्र मोदी सरकार, दोनों से काफी प्रभावित हुआ. एक तो ये कि दोनों सरकारों ने, लैब से कोविड नतीजे बताए जाने से पहले ही, मुझसे संपर्क कर लिया. अगले कुछ दिन में दिल्ली सरकार की ओर से, मुझे नियमित रूप से हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स के फोन आते रहे.
एक डॉक्टर की ओर से पहली कॉल तो एक मिसाल थी- उसने बहुत धैर्य के साथ मुझे गाइड किया, कि घर पर आइसोलेशन के दौरान मुझे क्या करना है. कुछ कॉल्स ऑटोमेटेड थीं- आप कैसा महसूस कर रहे हैं, उसके हिसाब से 1 या 2 दबाना था. होम आइसोलेशन के दौरान नियमों का पालन कराने के लिए, कई तरकीबों से समझाया गया. एक ऑटोमेटेड कॉल मिस करने पर जो संदेश मुझे मिला, वो ख़ासकर धमकाने वाला था, ‘कोविड केयर सेंटर्स भेजे जाने से बचने के लिए, कृपया नियमित रूप से कॉल्स अटेंड कीजिए.’
बेशक कार्यान्वयन में समस्याएं थीं. पॉलिसी की ख़ूबियों में जाए बिना, हमारे फ्लैट के बाहर कोई कोविड-पॉज़िटिव स्टिकर नहीं लगाया गया. मैंने आईसीएमआर फार्म में, और लैब को अपना सही पता दिया था, लेकिन न जाने क्यों, मेरे आधार कार्ड पर दिया हुआ पता इस्तेमाल किया गया. मैंने कम से कम दस कॉलर्स से इसके लिए कहा, लेकिन पता कभी ठीक नहीं किया गया. दुर्भाग्य से इसका मतलब ये था, कि मेरे घर आने का काम उन फ्रंटलाइन वर्कर्स को दिया गया, जो शहर के दूसरे छोर पर तैनात थे.
मेरे केस में अगर कोई कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग की गई, तो मुझे इसका पता नहीं है. इसके अलावा मेरे परिवार की टेस्टिंग में 3-4 दिन लग गए. केंद्र और राज्य के रिश्तों की वजह से भी चीज़ें दिलचस्प बनी रहीं. केंद्र की ओर से नियुक्त उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने अजीब सा सुझाव दिया, कि दिल्ली में बीमारी इसलिए फैल रही थी, कि होम क्वारेंटाइन कर रहे लोग निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं, और उन्हें संस्थागत क्वारेंटाइन सुविधाओं में ट्रांसफर कर देना चाहिए. जब दिल्ली सरकार ने दुहाई दी कि इससे केवल लोग टेस्ट कराने से बचेंगे, तब उस आदेश को वापस लिया गया.
रियल टाइम इनपुट्स
एक ‘कस्टमर’ के नाते, मैं आप और बीजेपी सरकार को कुछ अनचाहा फीडबैक दे सकता हूं. हमें टेस्टिंग को बहुत तेज़ी से बढ़ाने, और अधिक मामलों वाले क्षेत्रों में, देरी को कम करने की ज़रूरत है. अपनी पहुंच को बढ़ाने के लिए सरकार, निजी टेस्टिंग को सब्सीडी देने पर ग़ौर कर सकती है. फैसला लेने वाली तमाम बैठकों में सरकार को, सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानव व्यवहार के विशेषज्ञों को शामिल करना चाहिए. हमें ऐसे कोई फैसले नहीं लेने चाहिएं, जिनसे लोग बीमारी को छिपाने लगें, या अधिकारी संख्या को दबाने लगें. बहुत से लोगों ने पहले ही सरकार से कहा है, कि कोविड-19 को क़ानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. निगरानी के प्रयासों में समुदाय के लोगों के साथ, साझीदार की तरह पेश आना चाहिए.
हमें सही डेटा को मापना चाहिए, भले ही उससे हम अच्छे न दिखाई न दें. हाल ही में, ठीक हो गए मामलों के प्रतिशत पर ज़ोर देना, एक ऐसा ही केस था. उस संख्या से हमें कुछ काम की बात पता नहीं चलती. समय के साथ ये ऊपर ही जाएगा, और अंत में महामारी के ख़त्म हो जाने के बाद, हमारे पास 96-97 प्रतिशत ठीक हो चुके मामले होंगे (बाक़ी मर चुके होंगे). संक्रामक बीमारियों में डिटेल्स का महत्व होता है.
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ग़लत पते और धीमी रफ्तार की जानकारी से, तेज़ी से फैलती बीमारी से निपटने के प्रयास बिगड़ सकते हैं. पहचान किया हुआ हर केस, एक अवसर है दूसरे मामलों की शिनाख़्त करने का. एक भी केस में कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग मिस करने को माफ नहीं किया जा सकता. आईसीएमआर फार्म, जो हर जांच कराने वाले को भरना पड़ता है, उसका एक वैकल्पिक ऑनलाइन इंटरफेस होना चाहिए. इससे समन्वय कर रहे अधिकारियों को, टेस्टिंग और उससे जुड़े गैप्स की रियल टाइम पिक्चर बनाने में मदद मिलेगी. अहम बात ये सुनिश्चित करना है कि 20 प्रतिशत मामले, जिनमें अस्पताल में भर्ती की ज़रूरत होती है, उनकी उचित देखभाल हो. इतनी ज़्यादा भयानक कहानियां सामने आ रही हैं, कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा ससकता.
मामलों में ड्रामाई उछाल के बावजूद, बहुत सी चीज़ें हैं जो हमारे पक्ष में जाती हैं: अपेक्षाकृत युवा आबादी, दवाओं और टेस्टिंग के मामले में मज़बूत घरेलू उत्पादन क्षमता, और बहुत से फ्रंटलाइन स्ट्रक्चर्स. धारावी का ज़बर्दस्त कायापलट दिखाता है, कि अच्छे सिस्टम्स, स्थानीय रणनीतियों, और कड़ाई से अमल के ज़रिए, अत्यंत चुनौती भरे हालात में भी, कितना कुछ हासिल किया जा सकता है. एक देश के तौर पर हम हालात को अवश्य पलटेंगे, बशर्ते कि हम ज़मीनी डेटा को लेकर सतर्क रहें, और कार्यान्वयन के अपने प्रयासों को बढ़ाएं.
(लेखक, नई दिल्ली स्थित एक विकास सलाहकार फर्म, एल्सटोनिया इम्पैक्ट में पार्टनर हैं. उन्होंने बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और विश्व बैंक जैसे संगठनों को सलाह दी है. यह उनके निजी विचार हैं.)