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Thursday, 25 April, 2024
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गठबंधन, ममता के साथ भारतीय राजनीति में फिर लौट आया है 90 का दशक, लेकिन ये केवल एक नक़ल है

लेकिन BJP-विरोधी या मोदी विरोधी होना ही, एक ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ का ताना बाना बुनने के लिए काफी नहीं होगा, जो 90 के दशक का एक और घिसा-पिटा वाक्य है.

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क्रिसमस उपभोक्तावाद और ख़रीदारी के इस वार्षिक सीज़न में, पश्चिम में फ़ैशन का एक बड़ा चलन है, अविवादित रूप से 1990 के दशक की सभी चीज़ों पर लौटना. एसिड से धुली जीन्स से लेकर, निऑन रंगों और बालों की सफाई तक, अतीत की ये एक ऐसी झलक है जिसे आप अनदेखा नहीं कर सकते. अपने यहां भी लगता है कि 90 का दशक अपनी पूरी ताक़त के साथ वापस आ गया है. और ये सिर्फ ऊंची वेस्ट वाली जीन्स ही नहीं हैं, जो फैशन परस्त युवा पहन रहे हैं. राजनीतिक गठबंधनों की काली छाया भारतीय राजनीति के हाई-ऑक्टेन वर्ल्ड का पीछा कर रही है.

गठबंधनों का दशक

अगर आप भाग्यशाली हैं कि नई सहस्राब्दी में पैदा हुए हैं, तो आपको इस सप्ताह विभिन्न स्थानीय नेताओं की धक्कम-धक्का, जो समाचार की सुर्ख़ियों, मीम्स और तस्वीरों में छाई रही है, न सिर्फ नई बात लग सकती है, बल्कि शायद कोई रोमांचक नाटक भी लग सकती है, जिसमें भारत के राजनीतिक अभिजात वर्ग के लोग, कभी अजेय समझे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घेराबंदी करने की कोशिश कर रहे हैं.

पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का हाल का व्यस्त कार्यक्रम- कोलकाता और मुम्बई से दिल्ली पहुंचना, जिसके बाद शरद पवार से लेकर स्वरा भास्कर, युवा आदित्य ठाकरे, और संभवत: असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं या तथाकथित जी–23 गुट तक के साथ प्रचारित बैठकें- निश्चित रूप से संकेत देता है कि बंगाल की दीदी ने दिल्ली पर निगाहें गड़ा ली हैं. 1997 में कांग्रेस छोड़ देने के बाद, वो एक ताक़तवर और लोकप्रिय स्थानीय नेता के तौर पर उभरी हैं, जिन्होंने पहले कम्युनिस्टों को चलता किया, और फिर हाल ही में बंगाल में बीजेपी को रोका है.

अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाते हुए, ममता बनर्जी उन्हीं गठबंधनों की किताब के पन्ने पलटती दिख रही हैं, जो 1990 के दशक में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त होने के साथ, भारतीय राजनीति का एक सामान्य बन गए थे. उस दशक में मंडल-मंदिर का जोड़, दरअसल जाति की राजनीति और हिंदुत्व के बीच की लड़ाई थी. एक नए प्रमुख वोट बैंक के रूप में खोजे और अभिषेक किए गए अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी), हिंदू राष्ट्रवाद और वयोवृद्ध पार्टी दोनों के खिलाफ, छोटी और बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों का एक परकोटा बनकर सामने आए. किसी स्पष्ट करिश्माई नेतृत्व के न होने के कारण, 90 के दशक में कई प्रधानमंत्री सामने आए, जिनमें एक तो एक पखवाड़े से भी कम के लिए थे, चूंकि भारत के लोकतांत्रिक मैट्रिक्स की खलबली ने वो स्थिति पैदा की, जिसे उसका ‘दूसरा लोकतांत्रिक उभार’ कहा गया है. एक ऐसा वाक्य जो मताधिकार के विस्तार और गहराई, तथा नए राजनीतिक अभिजात वर्ग के सुनिश्चित आगमन का सही संकेत देता है. उस दशक ने सुनिश्चित कर दिया कि भारत एक बहुदलीय लोकतंत्र बन गया. अभी तक, बहुत कुछ 90 के दशक की तरह.


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ये 2021 है

नई सदी में भारत का राजनीतिक सांचा फिर से परिभाषित हुआ है, और नया राजनीतिक मानचित्र 1990 के दशक की तर्ज़ की पार्टी राजनीतिक के आसानी से दोहराए जाने का विरोध करता है. एक तो ये, कि प्रमुख सियासी पार्टी, जिसके खिलाफ ऐसा गठबंधन सत्ता का दांव लगा सकता है, एक विशाल राजनीतिक इकाई है. 90 के दशक की कांग्रेस के विपरीत, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जो एक अच्छी ख़ासी विरोधी लहर का सामना कर रही है, काडर्स का एक बड़ा, घनिष्ठ और आज्ञाकारी जहाज़ है, जिसके अंदर पार्टी का कड़ा और प्रभावी नियंत्रण है. दूसरे, उसके बाद से जाति की राजनीति में भी बदलाव आ गया है. न केवल ओबीसी पार्टियों की बहुतायत हो गई है, बल्कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों- बीजेपी और कांग्रेस ने भी ओबीसीज़ को अपनी सहयोगी बना लिया है. संक्षेप में, ओबीसी वोटों के बहुत सारे दावेदार हो गए हैं, जिसने उस बेसलाइन को ख़ाली कर दिया है, जहां से 90 के दशक के गठबंधन उछलकर सत्ता में आए थे. तीसरे, दलित राजनीति परिपक्व हो गई है और एक नवजागरण से गुज़र रही है, जो शुरू में पहली दलित पार्टी- बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की क़ीमत पर हो रहा है. चौथे, और ये भी जाति से ही जुड़ा है, ऊंची जातियां फिर से जोर पकड़ रहीं हैं, न केवल योगी आदित्यनाथ के नए रूप में, बल्कि कई छोटे और बड़े खिलाड़ियों को रूप में भी, जो एक नाराज़गी की राजनीति को दिशा दे सकते हैं. दीदी और उनकी महत्वाकांक्षाएं उन चुनावी खिलाड़ियों पर टिकी हैं, जिनमें सबसे बड़े योद्धा प्रशांत किशोर हैं, जो बेशक एक नए बड़े चुनावी गणित की उम्मीद में, कुछ छोटी संख्या जुटा सकते हैं. लेकिन बात सिर्फ यही नहीं है.

सबसे बड़ी बात ये है कि भारत की राजनीति अब बाक़ायदा दो-दलीय हो गई है. दीदी कांग्रेस से बचते हुए आगे बढ़ने की इच्छा रख सकती हैं, या वो उसके कुछ असंतुष्ट को तोड़ने में भी कामयाब हो सकती हैं, जैसे कि वो त्रिपुरा से गोवा तक कांग्रेस पार्टी की इकाइयों को गटक रही हैं, और जी-22 की तरफ बढ़ रही हैं. सच कहें तो ज़ाहिर भले हो, लेकिन ये एक साहसिक क़दम है. और राजनीतिक गपशप के लिए ये एक अच्छा मसाला है. लेकिन ये क़दम इस विचार पर आधारित है, कि बीजेपी-विरोधी या मोदी-विरोधी होना ही, इन क्षेत्रीय पार्टियों के बीच एक ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ (90 के दशक का एक और घिसा-पिटा वाक्य) तैयार करने के लिए काफी होगा, जो अकसर एक दूसरे के साथ ही कटुता और प्रतिस्पर्धा में उलझी रहती हैं.

2024 और दो विचार

विडम्बना ये है कि मोदी के खिलाफ राजनीतिक पहल का ज़िम्मा कांग्रेस के ऊपर है. एक राष्ट्रीय पदचिन्ह और महत्वपूर्ण वोट शेयर के साथ, ये सत्ता की कोई स्थानीय सौदागर नहीं है. 90 के दशक के उलट, ये कोई एक राष्ट्रीय दल नहीं है जिसके खिलाफ कोई क्षेत्रीय मोर्चा उसे चुनौती दे सकता है. राजनीतिक ताक़त की भारी विषमताओं के बावजूद, बीजेपी और कांग्रेस ऐसी दो राष्ट्रीय पार्टियां हैं, जो भारत के अतीत और भविष्य की दो परिकल्पनाओं को साकार करती हैं.
हम सब जानते हैं कि बीजेपी के क्या लक्ष्य हैं, और पिछले तीन दशकों में सत्ता तक पहुंचने से पहले, उसने दशकों तक इसके लिए तैयारी की है. कांग्रेस ने अपने प्रारंभिक सालों में विरोध और लामबंद करने वाली के तौर पर शुरू किया था, जो आसानी के साथ अगले 50 वर्षों के लिए, एक निर्विवाद शक्ति की पार्टी में तब्दील हो गई. कांग्रेस का जीवन चक्र अब बीजेपी के जीवन चक्र से टकरा रहा है.

अगर आप, मेरी तरह, फैशन के चलन पर नज़र रखते हैं, उसपर चलते नहीं हैं, तो आप जानते हैं कि उनकी नक़ल उपलब्ध हो सकती है, जो आसानी से मिल सकती है, और थोड़े समय तक उसे पहना जा सकता है, जब तक कि एक क्लासिक के तौर पर कोई टिकाऊ और पायदार चीज़ सामने नहीं आ जाती. अभी के लिए, ये स्पष्ट है कि 90 के दशक की सियासत की वापसी एक चमकदार नक़ल है, जो बिल्कुल भी टिकाऊ नहीं है.

(लेखिका की नई पुस्तक ‘वायोलेंट फ्रैटर्निटी; इंडियन पोलिटिकल थॉट इन दि ग्लोबल एज’ पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित हो चुकी है. वो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीतिक विचार की एसोशिएट प्रोफेसर हैं. वो @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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