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Friday, 22 November, 2024
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पाकिस्तान में ईशनिंदा से जुड़ी हत्याओं के 75 साल, ईश्वर की खुद की एक सक्रिय सेना है

पाकिस्तान में इस भयंकर बहस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं है कि कुरान में 'ईशनिंदा की कोई अवधारणा नहीं' है. ईशनिंदा कानून दिखाता है कि असली ताकत मौलवियों के पास है.

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जैसे ही उन्होंने अपनी रुकी हुई कार को फिर से चालू करने की कोशिश की, युवा सैन्य डॉक्टर ने क्वेटा रेलवे स्टेशन केस मुस्लिम रेलवे कर्मचारी संघ को दिए जा रहे भाषण को सुना होगा. एक मौलवी ऐलान कर रहे थे, अहमदी धर्म को फॉलो करने वाले ईशनिंदा करने वाले और विधर्मी हैं, जिन्हें मौत की सजा दी जानी चाहिए. फिर, भीड़ में से किसी ने देखा कि मेजर महमूद अहमद की छोटी दाढ़ी थी. बाद में डॉक्टर का शव मिला, उसका एक फेफड़ा अंदर तक कट गया था और उसकी आंत उसके शरीर से बाहर निकाल ली गई थी.

इसके बाद हुई हजारों हत्याओं की तरह, 11 अगस्त 1948 को हुई पाकिस्तान की यह पहली ईशनिंदा हत्या अज्ञात रही और कोई मामला दर्ज नहीं किया गया.

न्यायाधीश मुहम्मद मुनीर और एमआर कयानी ने एक आधिकारिक जांच में स्पष्ट रूप से कहा कि कोई भी “इस इस्लामी वीरता का श्रेय लेने को तैयार नहीं था और बड़ी संख्या में जो इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे, उनमें से कोई भी उन गाज़ियों की पहचान करने में सक्षम या तैयार नहीं था जिन्होंने इस बहादुरी भरे काम की इबारत लिखी थी.

जैसा कि मेजर महमूद की हत्या की 75वीं बरसी इस तरह से बीत रही है, जिसके बारे में न कोई चर्चा कर रहा है न ही कोई उस पर किसी का ध्यान है, लेकिन, पाकिस्तानी राज्य और इस्लामी समूह उनके हत्यारों की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं.

पिछले महीने, एक 22 वर्षीय ईसाई नोमान मसीह को मौत की सजा सुनाई गई थी, जो कि पैगंबर मुहम्मद के कथित रूप से ईशनिंदा वाले उस कार्टून को डिलीट करने विफल रहे – जिसे उन्हें एक मुस्लिम मित्र द्वारा व्हाट्सएप पर भेजा गया था. लेकिन उस मुस्लिम मित्र पर मुकदमा नहीं चलाया गया है. मदरसा लाइब्रेरी के कालीन पर पेशाब करने के लिए एक आठ वर्षीय हिंदू लड़के को मौत की सजा का सामना करना पड़ता है. 26 वर्षीय मुस्लिम महिला अनीका आतिया मौत की सज़ा पाने की कतार में है.

विद्वान मुहम्मद नफीस ने दिखाया है कि कैसे कथित विधर्मियों की एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याओं के साथ-साथ ईशनिंदा के मामले पिछले कुछ सालों में बढ़े हैं.

ईशनिंदा की राजनीति

मेजर महमूद की मौत के पांच साल बाद, 1953 में, पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर अहमदी-विरोधी दंगे हुए. दक्षिणपंथी मजलिस-ए-अहरार के नेतृत्व में, विरोध प्रदर्शनों के जरिए पाकिस्तान के मौलवियों ने राजनीतिक व्यवस्था पर काबिज़ होने की भरपूर कोशिश की. अहमदी-विरोधी सांप्रदायिक हिंसा के सामने पुलिस ने घुटने टेक दिए जिसके बाद सरकार को पहली बार मार्शल लॉ घोषित करने पर मजबूर होना पड़ा. भले ही मौलवी यह लड़ाई हार गए, लेकिन वे महत्वपूर्ण राजनीतिक शख्सियत के रूप में उभर आए.


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हालांकि, संघर्ष के उत्पत्ति हिंदू राष्ट्रवादी और इस्लामिक राजनीतिक आंदोलनों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा की वजह से हुई, जो एक सदी पहले पूरे पंजाब में शुरू हुई थी.  तीखे साम्प्रदायिक अपशब्दों से लबरेज इस विवाद ने अक्सर दंगों की शक्ल अख्तियार कर ली यही 1929 में पहली ईशनिंदा हत्या का कारण बना.

यहां तक कि औपनिवेशिक दंड संहिता ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए सज़ा का प्रावधान करता है जो “किसी भी पूजा स्थल को या किसी भी वर्ग के व्यक्तियों द्वारा पवित्र मानी जाने वाली किसी भी वस्तु को नष्ट, क्षतिग्रस्त या अपवित्र करता है”. 1927 में, कानून—नतीजों को लेकर कुछ असहजता के बावजूद—“धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्यों” को प्रतिबंधित करने के लिए विस्तृत किया गया था.

जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक, जिन्होंने 1977 से 1988 में अपनी मृत्यु तक पाकिस्तान पर शासन किया, ने धार्मिक अपराधियों को दंडित करने की शक्ति को बढ़ाया. उनके सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण दंड संहिता की धारा 298(सी) थी, जिसने ईशनिंदा के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया. कानून के मुताबिक जो कोई भी “शब्दों द्वारा, या तो मौखिक या लिखित या विज़िबल रिप्रेज़ेंटेशन द्वारा, या पवित्र पैगंबर मुहम्मद के प्रति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह से अपमान करने, आक्षेप लगाने का काम करता है या पवित्र नाम को अपवित्र करता है, उसे मौत या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी.”

1953 में मौलवियों द्वारा की गई मांगों को स्वीकार करते हुए, जनरल के कुख्यात ऑर्डिनेंस XX ने अहमदी सेक्टर के लोगों द्वारा अपनाए जा रहे तमाम रीति-रिवाजों पर गंभीर प्रतिबंध लगा दिया. अहमदी मस्जिदों और कब्रिस्तानों पर हमले तब से जारी हैं. 2014 में, नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक विज्ञानी अब्दुस सलाम के मकबरे पर एक शिलालेख से “मुस्लिम” शब्द हटा दिया गया था, इसलिए यह विचित्र रूप से सिर्फ “प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता” लिखा हुआ दिखता है.

ईश्वर की अपनी सेना

ईशनिंदा कानूनों का विरोध करने के लिए 2011 में पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या किए जाने के बाद से यह स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान में ईश्वर एक निरंकुश सतर्क सेना का नेतृत्व करते हैं. लाहौर में वकीलों ने तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाईं और मौलवियों ने बार-बार उन्हें शहीद कहकर तारीफ की. लाहौर के मियानी साहिब कब्रिस्तान में स्थित कादरी के मकबरे में बड़ी संख्या में उनके समर्थकों जाते हैं, और उनकी जीवनी को स्कूलों में पढ़ाया जाता है.

और, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तान में कोई भी राजनीतिक दल ईशनिंदा कानूनों को रद्द करने की मांग करने को तैयार नहीं है.

आसिया नोरेन को मौत की सजा दिए जाने पर तासीर ने ईशनिंदा कानून में सुधार की मांग की थी जिसके बाद उनकी हत्या कर दी गई. पंजाब के इत्तन वाला गांव के एक मात्र ईसाई परिवार की सदस्य नोरेन को खेतों में काम करने वाली महिलाओं के एक समूह ने उनके लिए पानी लाने को कहा. कुछ महिलाओं ने उसे नीची जाति का कहकर पानी लेने से इनकार कर दिया और बहस छिड़ गई.

स्थानीय मौलवियों ने कहा कि नोरेन ने पैगंबर के खिलाफ निंदा की थी. जेल में उससे मिलने वाले तासीर ने निष्कर्ष निकाला कि यह आरोप इस तथ्य को छिपाने के लिए लगाया गया था कि उच्च जाति के लोगों के साथ बहस करने के लिए उसे पीटा गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया.

तासीर की हत्या ने पाकिस्तानी अभिजात्य वर्ग के धर्म के साथ संबंधों में गहरी अस्पष्टता को दिखाया है. तासीर के अपने पिता, वामपंथी कवि मुहम्मद दीन तासीर, 1929 के ईशनिंदा हत्यारे इल्म दीन के जनाजे में शामिल हुए थे. भले ही ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि 19 वर्षीय हत्यारे बढ़ई के धार्मिक जुनून के बजाय एक समलैंगिक अति कामुकता से प्रेरित होने की संभावनाएं ज्यादा थीं, लेकिन, मामले की जटिलताओं पर शायद ही कभी चर्चा की जाती है.

तासीर की हत्या के बाद, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी की भी नौरीन भट्टी के हत्यारे, तहरीक-ए-तालिबान जिहादी हम्माद आदिल को कानूनी सहायता प्रदान करने में मदद करने के लिए हत्या कर दी गई थी. हम्माद एक समृद्ध परिवार से था और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का भाई था.

अभियोग लगते रहे हैं. – अजीबोगरीब तरीके से. एक 17 वर्षीय स्कूली छात्र पर परीक्षा पत्र के एक कोने पर कथित रूप से ईशनिंदा वाली टिप्पणी लिखने के लिए मुकदमा चलाया गया. एक डॉक्टर जिसने एक फार्मास्युटिकल सेल्समैन के बिजनेस कार्ड को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया, जिसका पहला नाम पैगंबर जैसा ही था, उसे भी ईशनिंदा के मुकदमे का सामना करना पड़ा. एक अन्य मामले में, एक मुस्लिम मौलवी और उसके बेटे को धार्मिक पर्चे फाड़ने के आरोप में जेल की सजा सुनाई गई थी.

भले ही सजा को आम तौर पर अपील पर खारिज कर दिया गया हो, जिहादियों और भीड़ ने कभी-कभी बलपूर्वक न्यायिक फैसले को खारिज कर दिया है. 2021 के एक मामले में, एक पुलिस अधिकारी ने लाहौर निवासी मुहम्मद वकास की हत्या कर दी, जब एक न्यायाधीश ने उसे ईशनिंदा के आरोप से बरी कर दिया. अन्य मामलों में, भीड़ ने ट्रायल शुरू होने से पहले ही उन लोगों को दंडित कर दिया है जिन्हें वे दोषी मानते हैं- ठीक उसी तरह जैसे 1948 में मेजर महमूद की हत्या कर दी गई थी.

यहां तक कि ताहिर नसीम को उसके मामले की सुनवाई कर रही अदालत के अंदर गोली मारने के साथ ही ईशनिंदा के आरोप में एक अमेरिकी नागरिक की भी हत्या कर दी गई. ईशनिंदा के आरोपों के खिलाफ कुछ हद तक प्रतिरक्षा वाले लोग केवल चीनी नागरिक हैं, जिनकी रक्षा करने के लिए सरकार अधिक इच्छुक रही है.

पाकिस्तान के ईशनिंदा विरोधी कानूनों पर विवाद होता रहा है. लंदन स्थित लेखक जियाउद्दीन सरदार ने सबके सामने कहा कि कुरान में “ईशनिंदा की कोई अवधारणा नहीं है.” उनका तर्क है कि यह अवधारणा 8वीं सदी में शासकों द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों को दंडित करने के लिए एक उपकरण के रूप में लाया गया.

हालांकि, पाकिस्तान में उस भारी-भरकम बहस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं है. ईशनिंदा कानून दिखाता है कि वास्तविक शक्ति मौलवियों के पास है – राजनीतिक व्यवस्था या राज्य के पास नहीं.

(लेखक दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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