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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतदिल्ली के चुनाव में मोदी-शाह की भाजपा के अरविंद केजरीवाल की आप से मात खाने के पांच कारण

दिल्ली के चुनाव में मोदी-शाह की भाजपा के अरविंद केजरीवाल की आप से मात खाने के पांच कारण

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पराजित भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या ये रही कि कामयाबी के इसके चुनावी नुस्खों ने ही इसे सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया.

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हर चुनाव के अपने सबक होते हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की स्पष्ट जीत जाहिर है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पराजित भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या ये रही कि चुनावों में कामयाबी के इसके नुस्खों ने ही इसे सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया.

ये रही वो पांच बातें जो दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ गईं.

सर्वोत्तम रणनीति मॉडल का अभिशाप

पहला – संगठनात्मक व्यवहार की कक्षा में मुझे ‘सर्वोत्तम रणनीति मॉडल के अभिशाप’ के बारे में बताया गया था.
मोदी और शाह के अधीन भाजपा ने 2014 से ही चुनाव जीतने का एक कामयाब फॉर्मूला बना लिया है- यहां हम इसे पार्टी का सर्वोत्तम रणनीति मॉडल कहेंगे. लेकिन, ऐसे मौके आते हैं जब संगठन आत्मसंतुष्टि भाव के चलते लापरवाह हो जाता है क्योंकि उसकी सर्वोत्तम रणनीति काम कर रही होती है और उसे अपनी शैली में बदलाव की अधिक ज़रूरत नहीं महसूस होती है. कामयाब रहा मॉडल इस कदर दृढ़ता से एक टेम्पलेट या सांचा बन जाता है कि किसी तरह के बदलाव या प्लान-बी की गुंजाइश नहीं रह जाती है.

दिल्ली में भाजपा की यही कहानी है. इसकी ‘सर्वोत्तम रणनीति में शामिल है. अंतिम क्षणों में हिंदुत्व समर्थक और पाकिस्तान-विरोधी बयानबाज़ी पर ज़ोर, मोदी की भाषण कला की नुमाइश, विपक्ष को राष्ट्रविरोधी साबित करना, चुनावी क्षेत्रों को वीआइपी नेताओं से पाट देना और रोडशो की कवायद. इन सबसे पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर जाता है और वे ‘वोट निकालने के काम में’ लगे रहते हैं.

इस फॉर्मूले का 2014 के बाद से ही कई राज्यों में जादू सा असर दिखा. लेकिन इसने भाजपा को एक सख़्त और अपरिवर्तनीय टेम्पलेट से बांध दिया, जिसका सिक्का दिल्ली चुनाव में नहीं चल पाया.

अरविंद केजरीवाल के रूप में दिल्ली में एक मजबूत मुख्यमंत्री था, जिसने जनमानस में ये आम धारणा बना रखी थी कि वो सरकारी सेवाओं की डिलिवरी सुनिश्चित करता है. केजरीवाल हिंदुत्व-रहित-राष्ट्रवाद को आगे बढ़ा रहे थे, लेकिन साथ ही हिंदू धर्म को भी गले लगा रहे थे. भाजपा के सफल फॉर्मूले के बरक्स ये एक नई चुनौती थी. इसके बावजूद भाजपा ने अपने टेम्पलेट में कोई फेरबदल नहीं की. इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी गई, क्योंकि अमित शाह के लिए ये कई चुनावों में कामयाब जो साबित हो चुका था.

सॉफ्टवेयर की शब्दावली में कहें तो जब कोई सिस्टम बहुत दृढ़ता से संयोजित हो तो बाह्य परिस्थितियों में बदलाव के अनुरूप इसमें पर्याप्त सुधार नहीं हो पाता है. जबकि लचीलेपन वाला सिस्टम त्वरित परिवर्तन में सक्षम होता है. लेकिन आज मोदी और शाह के अधीन भाजपा की कामयाबी का फॉर्मूला केंद्रीकृत और दृढ़ संयोजन वाले सिस्टम का है.


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गुजरात मॉडल जैसी कहानी

दूसरा – गुजरात मॉडल याद है ना? राष्ट्रीय चुनाव 2014 में हुए थे, लेकिन गुजरात में निवेश के माहौल के बारे में डेटा और समर्थन वाले ईमेल संदेश मुझे 2012 में ही मिलने शुरू हो गए थे, कथानक इतना पहले से तैयार किया जा रहा था और 2014 आते-आते जनमानस में मोदी का असाधारण व्यक्तित्व स्थापित हो चुका था कि जिसने कि गुजरात का कायापलट कर उसे शंघाई जैसा सफल बना दिया था. कम अपराध, अधिक निवेश, अच्छी सड़कों, स्वच्छ नदियों और समृद्ध कृषि वाला राज्य. ऐसी भूमिका बांधी गई कि मानो भारत को उन्हीं का इंतजार था. मुश्किलों में घिरी कांग्रेस, जिसने अपना चुनाव अभियान 2014 में आकर शुरू किया, गुजरात मॉडल की इस अर्धमिथकीय कहानी की सच्चाई के खुलासे के लिए कुछ नहीं कर पाई.

इसी तरह, आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार ने मोहल्ला क्लिनिकों और स्कूलों में सुधार पर केंद्रित अपना कथानक निर्मित करने का काम 2018 में ही शुरू कर दिया था. इसे लंबे अरसे तक कोई राजनीतिक चुनौती नहीं दी गई. भाजपा ने खुशहाल स्कूलों और हर मोहल्ले में स्वास्थ्य सुविधा के इस कथानक पर सवाल उठाने में बहुत देर कर दी, हो सकता है उसने इस वजह से लापरवाही की हो कि उसके पास मोदी का जादू तो है ही जो हमेशा की तरह असर करेगा. केजरीवाल विकास-पुरुष का अपना खुद का मॉडल गढ़ रहे थे और, सरकारी स्कूलों को लेकर भाजपा का स्टिंग ऑपरेशन काफी देर से सामने आया.

कांग्रेस को सहारा

तीसरा – भाजपा के लिए सफलता दिलाने वाली एक रणनीति ये होती कि दिल्ली में कांग्रेस के पक्ष में मतदान का माहौल बनाने में मददगार बन मुकाबले को त्रिकोणीय बनाया जाए, ताकि आप के वोट बैंक में सेंध लग सके. ये अकल्पनीय बात भी नहीं है. भाजपा ने 2017 के पंजाब चुनावों के अंतिम चरण में, खालिस्तानी आंदोलन के पुनर्जीवित होने की आशंकाओं के बीच, आप को हराने के लिए अपने वोटों का एक अंश कांग्रेस की झोली में जाने दिया था, पर दिल्ली में भाजपा ऐसा करने में विफल रही. कांग्रेस मुकाबला पेश करने में सक्षम नहीं हो पाई. इसके उम्मीदवारों को खुद पैसे का इंतजाम करना पड़ा और पार्टी हाईकमान ने उनका साथ देने में पर्याप्त उत्साह नहीं दिखाया.

मनोज तिवारी मुकाबले में कहीं नहीं थे

चौथा- भाजपा 2015 के दिल्ली चुनाव में किरण बेदी को आगे बढ़ाने के अपने कदम के कारण इतना चोट खा चुकी थी कि इस बार उसने अरविंद केजरीवाल के सामने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा का प्रयास तक नहीं किया. पार्टी ने मनोज तिवारी को आगे ज़रूर किया, पर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नहीं और तिवारी वैसे भी केजरीवाल की मध्यम वर्ग में लोकप्रियता का मुकाबला नहीं कर सकते थे. इसके विपरीत, भाजपा ने मोदी के शासन के रिकॉर्ड को प्रचारित करने और शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को खलनायक साबित करने पर ज़रूरत से अधिक ज़ोर लगाया.

मोदी की शैली की नकल

पांच – आखिर में, शैली की बात. भाजपा इस बात से बेपरवाह रही कि उसकी कामयाब शैली की गाथा 2014 से ही सबके समक्ष है और अन्य पार्टियां उसका अनुकरण भी कर रही हैं. आप को भाजपा के इन विशिष्ट तौर-तरीकों की पूर्ण जानकारी थी. भाजपा ने जिस तरह मीम, चुटकुलों और व्हाट्सएप संदेशों के जरिए राहुल गांधी के कद को छोटा किया था, आप ने भी इन्हीं तरकीबों को मनोज तिवारी के खिलाफ आजमाया और, तिवारी वास्तव में कभी मुकाबले में आ ही नहीं पाए.


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एक और तरकीब थी आलोचनाओं को गले लगाने की. भाजपा के प्रवेश वर्मा ने अरविंद केजरीवाल को एक ‘आतंकवादी’ बताया और, केजरीवाल ने इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया, ये कहते हुए कि अब ये दिल्ली की जनता ही तय करेगी कि वह एक भाई हैं, एक बेटा हैं या आतंकवादी हैं. उन्होंने जनता को ये भी याद दिलाया कि कैसे जनसेवा के लिए उन्होंने आईआरएस अधिकारी की अपनी नौकरी छोड़ दी. ये सब बिल्कुल वैसा ही था जैसे मोदी अपने ऊपर हुए हमले का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं. बिहार में भी, जब मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल उठाया था, तो नीतीश ने मोदी के पते पर डीएनए के नमूने भेजने शुरू कर दिए थे. हर कोई दांवपेंच सीख रहा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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