कांग्रेस ने 25 मार्च 2019 को एक न्यूनतम आय गारंटी योजना की घोषणा की जिसमें पार्टी के सत्ता में आने पर भारत के 20 प्रतिशत सबसे गरीब परिवारों को 72,000 रुपये सालाना या प्रतिमाह 6,000 रुपये देने का वादा किया गया है. न्यूनतम आय योजना (न्याय) जैसी योजना, भले ही महत्वाकांक्षी हो, पर सावधानीपूर्वक विचार और विश्लेषण की ज़रूरत है.
न्यूनतम आय गारंटी विकास का संकेत मानी जाती है. दुनिया भर के विकसित देशों में उनके नागरिकों के लिए किसी न किसी रूप में बुनियादी आय गारंटी की योजना है. ब्रिटेन में बेरोज़गारी (जॉब सीकर्स) भत्ते की व्यवस्था है जिसमें 16 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति/दंपति को क्रमश: 3,000 और 6,000 पाउंड दिए जाते हैं. अमेरिका में ज़रूरतमंद परिवारों के लिए कल्याणार्थ या अस्थाई सहायता (टीएएनएफ) की व्यवस्था है जिसके तहत कम आय वाले परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से सीमित समय के लिए नकद सहायता दी जाती है. भारत जैसे देश के लिए ऐसी नीतियां संभव हैं या नहीं इस पर विचार किए जाने के साथ ही राहुल गांधी द्वारा घोषित नीति की व्यवहारिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए.
तथ्य 1: सबसे कम आय वाले 20 प्रतिशत परिवारों की आमदनी सालाना 72,000 रुपये से ज़्यादा है
निर्धनतम 20 प्रतिशत परिवारों को सालाना 72,000 रुपये की सहायता देने के कांग्रेस के वादे में इस रकम को चुनने में अंतर्निहित धारणा को लेकर संदेह पैदा होता है. इस प्रस्ताव के आधार पर यही लगता है कि भारत के 20 प्रतिशत परिवार महीने में 6,000 रुपये से कम कमाते हैं. वैसे तो भारत में आय के वितरण का कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है, पर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) का कंज्यूमर पिरामिड डेटा भारत में परिवारों के एक बड़े सर्वे से संबद्ध व्यापक आंकड़े उपलब्ध कराता है. 2015-16 के लिए इस सर्वे में 1,58,624 परिवारों को शामिल किया गया था. यह ऐसे परिवारों का सैंपल है जिन्हें नियमित अंतराल पर सर्वे में शामिल करते हुए एक दीर्घकालिक डेटासेट तैयार करने का उद्देश्य है.
इस सर्वे में परिवारों की जनसांख्यिकी (सदस्यवार विशेषताओं समेत), उन्हें प्राप्त पानी-बिजली जैसी सुविधाओं, उनके आय-व्यय, तथा परिसंपत्तियों और कर्ज़ों की जानकारी दर्ज़ की जाती है. सीएमआईई के इस सर्वे के आंकड़ों के हिसाब से निर्धनतम 20 प्रतिशत परिवारों की औसत आय 90,000 रुपये है. सर्वे में शामिल परिवारों में मात्र सबसे नीचे के चार प्रतिशत की ही आमदनी सालाना 72,000 रुपये से कम है.
तथ्य 2: आय के हिसाब से निर्धनतम 20 प्रतिशत परिवार अनिवार्यत: अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से संबद्ध है
सरकार को, यदि ज़रूरी बन पड़ा तो, कोई तरीका निकालना होगा कि जिसके ज़रिए मासिक 12,000 रुपये से कम आमदनी वाले परिवारों को चिन्हित किया जा सके. ये मुश्किल होगा क्योंकि न तो ऐसे परिवार टैक्स देते हैं (आयकर सीमा में नहीं आने के कारण) और न ही वे वेतन संबंधी किसी डेटाबेस में शामिल हैं.
निर्धनतम 20 प्रतिशत में शामिल अधिकतर परिवार अपनी मासिक आमदनी नकद पाते हैं और उनके पास दिखाने के लिए आमदनी का कोई सबूत नहीं होता. ऐसे में ये चिंता का विषय है कि सरकार वास्तव में हर महीने 12,000 रुपये से कम कमाने वालों और उनमें जो कि सचमुच में इस आय समूह में नहीं हैं, के बीच अंतर कैसे करेगी. ऐसे परिदृश्य में, जब तक नियोक्ता आमदनी की पुष्टि नहीं करता हो (ऐसा करने पर खुद नियोक्ता पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा), तो ऐसे परिवारों की संख्या बढ़ेगी जो प्रतिमाह 12,000 रुपये से कम कमाने का झूठा दावा करेंगे. इससे न सिर्फ सरकार पर बोझ बढ़ेगा बल्कि भ्रष्टाचार में भी वृद्धि होगी. संक्षेप में कहें तो, न्यूनतम आय गारंटी योजना तब तक सफल नहीं होगी जब तक कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक सेक्टर में काम कर रहा हो.
तथ्य 3: कमाई करने या फिर काम करने के लिए क्या प्रोत्साहन है?
दुनिया भर में सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों की आमतौर पर लोगों को हतोत्साहित करने वाला बताकर या इनके इच्छित से विपरीत परिणाम सामने आने के लिए आलोचना की जाती है. हालांकि नकद भुगतान करने या आमदनी को मासिक 12,000 रुपये के स्तर तक उठाने का वादा महत्वाकांक्षी है, पर इसकी अपनी कमियां हैं. प्रतिमाह 6,000 रुपये से कम कमाने वाले किसी व्यक्ति के लिए उस आय के वास्ते काम करने का कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाएगा, क्योंकि हाथ पर हाथ धरे बैठकर वह अच्छी स्थिति में होगा और पूरे 12,000 रुपये सरकार से पा रहा होगा.
बुनियादी अर्थशास्त्र यही बतलाता है कि प्रत्यक्ष आय सहायता दिए जाने पर लाभार्थी परिवारों का एक बड़ा हिस्सा काम करने के प्रोत्साहन के अभाव में श्रम बल से बाहर निकल जाता है. इसे देखते हुए, कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर रहता कि वह या तो अमेरिका के टीएएनएफ जैसी एक अस्थाई सहायता का कार्यक्रम लाती जिसमें परिवारों की आमदनी एक सक्षम स्तर तक पहुंचने तक ही सहायता दी जाती है, या सहायता के लिए कुछ पूर्व शर्तों की घोषणा करती, जैसे कि न्यूनतम कार्य दिवस.
कांग्रेस का इरादा सराहनीय है, पर ऐसी कोई नीति विस्तृत सोच-विचार के बाद ही लाई जानी चाहिए, सिर्फ इसके आर्थिक प्रभाव के कारण ही नहीं, बल्कि राजकोष पर पड़ने वाले इसके असर के चलते भी. अनुमान लगाया जाता है कि ऐसी किसी योजना से सरकार पर सालाना 3.6 लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा. इस तरह की योजना का वित्तपोषण या तो टैक्स बढ़ाकर या उत्पादक निवेशों में सरकारी भागीदारी कम कर या करों को तर्कसंगत बनाकर किया जा सकता है. भारत का कर-जीडीपी अनुपात पहले ही 12 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचने की संभावना है. टैक्स बढ़ाने की गुंजाइश अब नहीं के बराबर रह गई है, ऐसे में इस बात पर संदेह है कि भारत के करदाता, जिनकी सरकार की जांच-परख में दिलचस्पी बढ़ रही है, अपनी गाढ़ी कमाई को इस तरह अनुदान के रूप में खर्च किए जाते देखना पसंद करेंगे.
(लेखिका एनआईपीएफपी में माइक्रोफाइनेंस की सलाहकार हैं.)
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