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Friday, 29 March, 2024
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जिग्नेश को भी समझना होगा सभी पत्रकारों को सुरक्षा और गरिमा अपवाद नहीं, सिद्धांत है

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जिग्नेश अपनी आलोचनाओं को सहन करना सीखेंगे और ये भी सीखेंगे कि एक सार्वजनिक आयोजन में एक पत्रकार के प्रवेश को रोकना कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.

हाल ही में ऐसी तीन घटनाएँ प्रकाश में आयीं जिनमें पेशेवर, पूर्णकालिक पत्रकारों को अपमानित और परेशान किया गया या सार्वजनिक कार्यक्रमों से बाहर निकाल दिया गया.

इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है. पहली घटना मुझे याद है, जिसमें मैं अप्रत्यक्ष भूमिका में था (एक कारण की तरह, न कि एक भुक्तभोगी की तरह), जब स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने इंडिया टुडे के एक पत्रकार के सवाल का जवाब देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि वो राष्ट्र विरोधी प्रकाशन संस्थानों के पत्रकारों के सवालों का जवाब नहीं देतीं.

इस घटना के तुरंत बाद उन्होंने एक मीडिया कार्यक्रम में फिर से इसे दोहराया. सबसे पहले उनका गुस्सा इस बात पे था कि पत्रिका ने असम में हुए नेल्ली हत्याकांड के मृतकों और खून से लथपथ पीड़ितों की तस्वीरें प्रकाशित की थीं. उस समय नई दिल्ली में गुट निरपेक्ष आन्दोलन सम्मेलन और फिडेल कास्त्रो के साथ उनका मिलन-चुलन कार्यक्रम चल रहा था.

दि इंडियन एक्सप्रेस, जिसके लिए मैंने पूर्वोत्तर को कवर किया था और नेल्ली हत्याकांड का पूरा घटनाक्रम सामने लेकर आया था, ने उन तस्वीरों को प्रकाशित करने से मना कर दिया. उस समय के संपादक बी.जी. वर्घीस ये कहते हुए पीछे हट गये कि जो पीड़ित हैं वो स्पष्ट रूप से मुस्लिम दिखाई दे रहे हैं और इनकी तस्वीरों को प्रकाशित करना पेचीदगी भरा होगा. खैर ये एक अलग कहानी है.

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दूसरी कहानी जिसमें मेरे नाम के साथ लिखी एक पंक्ति ने इंदिरा गाँधी को बहुत क्रोधित कर दिया था. वो पंक्ति थी “हमारे तमिलनाडु में हमारी एजेंसिओं द्वारा चलाये जा रहे श्रीलंकाई तमिल विद्रोहियों (अधिकतर लिट्टे) के प्रशिक्षण शिविरों को तस्वीरों के साथ उजागर करते हुए फरवरी 1984 की एक बहु प्रष्ठीय जांच पड़ताल”.

पहली कहानी में हमें सामान्य रूप से पूरी मीडिया से समर्थन मिला वहीँ दूसरी कहानी से काफी अशांति पैदा हुई. विदेश मंत्रालय प्रेस संस्थान बहुत गुस्से में था कि किसी ने भारतीय नीति के एक महत्वपूर्ण तत्व को चुपके से उजागर कर दिया था. फिर भी, वास्तव में केवल एक समाचार पत्र ने हम पे सार्वजनिक रूप से हमला किया.

ये ब्लिट्ज (अब निष्क्रिय) के मालिक आर. के. करंजिया का द डेली था. पहले पृष्ठ पर “ये इंडिया टुडे नहीं है, ये लंका टुडे है” के शीर्षक के साथ ये बतला रहा था कि ये कहानी कोलम्बो में श्रीलंकाई उप उच्चायुक्त, जिन्होंने मुझको व्हिस्की की एक बोतल भेंट की थी, के दिमाग की एक उपज थी.

मैं जवान था, उग्र था, और चाहता था कि उनकी इस हरकत की वज़ह से हम उन पर मुकदमा करें. मेरे संपादक अरुण पुरी ने कहा कि “करंजिया को अदालत के नोटिस पसंद हैं बस उन्हें एक मजाकिया पत्र भेज दो”.

तो मैंने उन्हें कुछ इस तरह से लिखा, ‘मैंने आपकी कहानी और इसमें शामिल आक्षेपों को बहुत रूचि के साथ देखा है. मुझे सिर्फ ये सुझाव देना है कि आप उस घूस के मूल्य को थोड़ा बढ़ा दें जो आपके कथनानुसार मुझे दी गयी थी. क्यूंकि यदि इंडिया टुडे के संवाददाता को एक बोतल स्कॉच में खरीदा जा सकता है इस हिसाब से आपके संवाददाता तो देशी शराब के एक गिलास से ज्यादा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे’.

मामला वहीँ रुक गया. बाद में मैंने करंजिया को कभी कभी देखा और उन्होंने मुझे याद दिलाया कि मेरा लेख मजाकिया था, हालाँकि उन्होंने कभी भी इसे प्रकाशित नहीं किया. वो संवाददाता जिसने द डेली के लिए ये लेख लिखा था, समय के साथ साथ प्रगाढ़ परिचित हो गया. बाद में मेरे द्वारा सम्पादित प्रकाशन में हमने भी उस रिपोर्टर को कभी कभी प्रकाशित किया.

अब, यदि आज ऐसा हुआ होता तो बवाल हो जाता. वो चैनल, जिन्हें अरुण शौरी नार्थ कोरियन चैनल कहते हैं और मैं कमांडो कॉमिक चैनल कहता हूँ, ने प्राइम टाइम जिहाद का आगाज़ कर दिया होता. देशद्रोही और मोदी विरोधी उदारवादी शक्तियां जो देश को बेच रही हैं, साथ ही जो अपनी आय और संपत्ति का ब्यौरा देने का दावा कर रही हैं और ये जानने की कोशिश कर रही हैं कि कौनसा पत्रकार वाघा पर मोमबतियां जला रहा है (उनको बता दूं की मैं शर्तिया उनमें से नहीं हूँ). कुछ क्रोधित दिग्गजों ने इस उच्च राजद्रोह के लिए मौत की सजा की मांग की होती और श्रीलंकाई अत्याचारों से पीड़ित शायद कुछ (वास्तविक) तमिल पीड़ितों का आडम्बरपूर्ण जुलूस निकाला जाता.

यह काल्पनिक नहीं है. मैंने इस तरह के दृश्यों को छह साल पहले उन्हीं शूरवीरों की निगरानी में देखा है जब हमने जनवरी 2012 में अस्पष्टीकृत सेना के मूवमेंट की घटना को उजागर किया था, जिसमें मनमोहन सिंह सरकार को अनौपचारिक रूप से देर रात सुरक्षा के मद्देनज़र मंत्रिमंडल समिति को बुलाने के लिए विवश होना पड़ा था.

या हाल ही में एक और अधिक हास्यपूर्ण हंगामा, जिसमें मुझसे पूछा गया कि चार न्यायाधीशों के संवाददाता सम्मलेन जैसे बड़े उलटफेर वाले कार्यक्रम में आप कहाँ थे? हास्यपूर्ण इसलिए क्यूंकि मुझे ये यकीन करने के लिए पुनः शिक्षित होने में थोड़ी देर हुई है कि एक जगह ऐसी है जहाँ पत्रकारों को नहीं जाना चाहिए और वो है महत्वपूर्ण संवाददाता सम्मलेन, या, कि सही समय पर सही जगह पर किसी पत्रकार का होना संवाददाता का भाग्य नहीं होता, बल्कि एक घटिया षड़यंत्र होता है.

क्या मैं परेशान हूँ, इसलिए कि क्या एक ही चैनल के पत्रकारों को, उसी चैनल के शूरवीर एंकरों की सेवा करते हुए, अब अपमानित, उत्पीडित और मीडिया कार्यक्रमों से बहिष्कृत किया जाता है?

क्या मुझे परेशान होना चाहिए या उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देना चाहिए? क्या मुझे आराम से मुस्कुराहट के साथ बैठे रहना चाहिए, सराहना करनी चाहिए और कहना चाहिए कि आप अब उस सबका आनंद लीजिये जो आप दूसरों के साथ करते हैं, दूसरों के लिए खोदे गये गड्ढे में आप खुद ही गिरे न, मजा आ गया न बच्चू!

मुझे डर है, मैं भी परेशान होता हूँ. मैं भी इस बात से बहुत निराश हूँ कि इन टीवी संवाददाताओं के अपमान की ख़ुशी मनाने के मामले में कुछ बहुत ही प्रसिद्द और प्रख्यात लोगों के नाम सामने आ रहे हैं जिससे ये पता चलता है कि ये सभी उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग के लोग हैं. कोई भी सेंसरशिप या सार्वजनिक कार्यक्रम में प्रवेश की मनाही या किसी भी व्यक्ति का सार्वजनिक अपमान उदारवाद की किसी भी कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.

हमारे पवित्र और वास्तविक गणराज्य में अदालतों ने भी घृणित अपराधों और आतंक के अपराधियों को हथकड़ी पहनाये जाने से रोका है. महान उदारवाद के रूप में हम मानव प्रतिष्ठा के लिए उस सम्मान की ख़ुशी मनाते हैं और जनता द्वारा एक साहसी उदारवादी प्रतिक्रिया के रूप में पत्रकारों को शर्मिंदा करने के लिए जनता की जय जयकार करते हैं क्यूंकि वे घटिया पत्रकारिता कर रहे हैं.

इससे काम नहीं चलता. हम जानते हैं कि पाखंड के खिलाफ कोई कानून नहीं है. लेकिन किसी भी व्यक्ति को किसी भी पत्रकार को उसका काम करने से रोकने से कोई सरोकार नहीं है चाहे वह पत्रकार किसी भी विचारधारा का हो, किसी भी संगठन के लिए काम करता हो या उसका कोई भी एजेंडा हो. आप सवालों का जवाब देने से मना कर सकते हैं या “सिर्फ निमंत्रण पत्र से ही प्रवेश” वाले आयोजनों में आमंत्रित भर नहीं कर सकते हैं. लेकिन आप उन्हें नीचा नहीं दिखा सकते और भारत के ब्रेटबर्ट्स का प्रतिनिधित्व करने वाले ठगों के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते. यहाँ कोई सांस्कृतिक क्रांति नहीं हुई है.

क्यूंकि यदि आज आप ऐसा करते हैं तो अन्य लोग भी उनके साथ, जो उन्हें नापसंद हैं, वैसा ही करेंगे. हम जैसे ही बहुत सारे पीड़ित लोग होंगे और जो हम पर हमला कर रहे होंगे वे हमें समर्थन देने वाले लोगों, जो हम को समर्थन देने के लिए प्रेस क्लब और ऐसी अन्य सुरक्षित जगहों पर आ सकते हैं, की थोड़ी सी संख्या के तुलना में बहुत अधिक होंगे.

सिद्धांत है कि सभी पत्रकारों को सुरक्षा और गरिमा के साथ काम करने का अधिकार है, इसमें कोई भी अपवाद नहीं होना चाहिए. पत्रकारिता की संबद्धता या गुणवत्ता से प्रथक, सदैव इसका अवलोकन किया जाना चाहिए. चेन्नई के पत्रकारों ने जिग्नेश मेवाणी द्वारा निकाले गये संवाददाता के समर्थन में आवाज उठाते हुए इस सिद्धांत के पालन लिए एक नेक कदम उठाया. वे हमारी पेशेवर कृतज्ञता के पात्र हैं.

मेवाणी इसके लिए अभी नए हैं. जैसे जैसे उनके कद और अनुभव में वृद्धि होती है वो राजनीति के दांव पेंच सीख जायेंगे और सही मार्ग का अनुसरण करेंगे. अन्य जगहों पर, और विशेष रूप से प्रेस क्लबों में अन्य पत्रकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस सिद्धांत के उल्लंघन की अनुमति कभी भी किसी को भी न दी जाय, कम से कम गैर-पत्रकारों को तो बिलकुल ही नहीं जो मेहमानों के रूप में आते हैं.

एक बार फिर : एक वास्तविक उदार व्यवस्था में सभी को, चाहे वो लेफ्टिस्ट, राईटविंग और सेण्टर हो या न्यू यॉर्क टाइम्स और ब्रेटबर्ट्स हो, या कोई अन्य भी हो, सभी को समान स्वतंत्रता का अधिकार है. वास्तव में यदि ब्रेटबर्ट्स नहीं होता तो न्यू यॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, सीएनएन और पोलिटिको को कौन इतना बेहतर बनाता?

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