पिछले महीने मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ एक बैठक में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की दर्शक दीर्घा में एक बहुत उत्साही विधायक मौजूद थे.
वो बीजेपी के सहयोगी एकनाथ शिंदे की शिवसेना के बारे में कुछ बोलना चाहते थे कि शाह को पता चले कि शिव सैनिक शिंदे की सेना में नहीं आ रहे हैं. शाह ने उनसे कहा, ‘आप बैठ जाइए’. सामने से उनको सेना पर डिसकशन में कोई रुचि नहीं थी.
उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के करीबी माने जाने वाले विधान परिषद के वो सदस्य चाहते थे कि शाह को पता चले कि शिंदे की पार्टी पुराने सैनिकों को अपने पाले में नहीं ला पा रही है. शाह ने फिर उन्हें जोर देकर कहा, “बैठ जाइये, मोदी जी को सब कुछ पता है.”
एक सहयोगी पार्टी के अंदरूनी मामलों पर चर्चा करने की अनिच्छा ऐसे समय में आई है जब भाजपा अपने विसात के दूसरे चरण में है.
2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को बुरी तरह से हराने के बाद बीजेपी क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को कम करने के लिये पूरा जोर लगा रही है. एक बीजेपी नेता ने मुझे बताया, “हमारी पार्टी का नेतृत्व क्षेत्रीय दलों में विभाजन के बारे में स्पष्ट रहा है. ये विभाजन अच्छे हैं. ये पार्टियां एक मछली की तरह हैं, जो छोटी ही रहनी चाहिए क्योंकि तभी इसे शार्क (बीजेपी पढ़ें) खा पाएगी और बड़ी बनेगी.”
मुंबई की बैठक में पार्टी एमएलसी को शाह की हल्की फटकार एक संकेत भी है कि फिलहाल, बीजेपी अपने आक्रामक विस्तारवादी अजेंडा जो राज्यों में सहयोगियों और प्रतिद्वंद्वियों दोनों की कीमत पर थी को विराम देकर आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव के लिये एलायंस पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है. रविवार को मुख्यमंत्रियों और उप मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित टिप्पणी इस रणनीति में बदलाव का एक और संकेत है. टाइम्स ऑफ इंडिया ने मोदी को यह कहते हुए उद्धृत किया कि यह धारणा नहीं होनी चाहिए कि भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ सहज नहीं है.
उन्होंने कथित तौर पर कहा, “हमें क्षेत्रीय दलों से इस तरह से निपटना चाहिए कि वे समझें कि हम क्षेत्रीय भावनाओं के बारे में उनसे अधिक चिंतित हैं.”
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बीजेपी की नरमी का राज क्या है
ऐसा लगता है कि मोदी और शाह 2024 के चुनावों के लिए और अधिक सहयोगियों को शामिल करने की आवश्यकता को महसूस कर रहे हैं. जैसे कि तमिलनाडु में अखिल भारतीय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके), महाराष्ट्र में शिवसेना और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) को छोड़कर, केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के पास कोई महत्वपूर्ण सहयोगी नहीं है जो राज्य स्तर पर खास फर्क डाल सके. 2024 में इन तीनों की चुनावी क्षमता पर भी सवालिया निशान हैं.
पिछले हफ्ते एनडीए के 13 घटक दलों ने नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार की निंदा करते हुए एक बयान पर हस्ताक्षर किए थे. भाजपा के अलावा, AIADMK, शिवसेना और JJP के अलावा सह-हस्ताक्षरकर्ताओं में ज्यादातर छोटी पार्टीज थीं अपना दल, तमिल मनीला कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति पारस गुट), इंडिया मक्कल कल्वी मुनेत्र कड़गम, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, नेशनल पीपुल्स पार्टी ( एनपीपी), नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी), सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा और मिजो नेशनल फ्रंट. 13 की इस सूची में तमिलनाडु के तीन और उत्तर-पूर्वी राज्यों के पांच दल शामिल हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में भाजपा के 26 सहयोगी थे. भाजपा ने लोकसभा में 282 सीटें और उसके सहयोगियों ने 54 सीटें जीती थीं, जिससे 543 सदस्यीय लोकसभा में एनडीए की कुल संख्या 336 हो गई थी.
सहयोगियों ने जिन 54 सीटों का योगदान दिया, उनमें से 18 शिवसेना से, 16 तेलुगू देशम पार्टी से, छह लोक जनशक्ति पार्टी से, चार शिरोमणि अकाली दल से, तीन राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) से और दूसरे दलों के साथ दो अपना दल से सीटें आईं. बाकी सीट्स अन्य छोटे दलों से थीं.
पिछले सप्ताह विपक्ष के संसद के खिलाफ किए गए बहिष्कार के खिलाफ बयान पर हस्ताक्षर करने वाले दर्जन भर दलों में से केवल AIADMK में महत्वपूर्ण योगदान देने की क्षमता है क्योंकि तमिलनाडु लोकसभा में 39 सांसद भेजता है. हालांकि तमिलनाडु में मुख्य विपक्षी दल जे जयललिता जैसी करिश्माई नेता की गैरमौजूदगी और पूर्व मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम के निष्कासन से आज काफी कमजोर है.
2019 के चुनाव में, भाजपा ने 303 सीटें जीतीं और उसके सहयोगियों ने 50 सीटें जीतीं, जिससे सत्तारूढ़ एनडीए की संख्या 353 हो गई. सहयोगियों की संख्या में शिवसेना से 18, जद (यू) से 16, एलजेपी से छह और दूसरों के साथ अपना दल और एसएडी से दो-दो सीटें शामिल हैं.
शुरुआत में चार पार्टियां थीं जिन्होंने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में एनडीए की जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया- शिवसेना, टीडीपी, जेडी (यू), और एलजेपी. जैसे कि आज के हालात हैं, टीडीपी और जेडी (यू) अब बीजेपी के साथ नहीं हैं और यह शिवसेना (माइनस उद्धव ठाकरे गुट) और लोजपा (माइनस चिराग पासवान गुट) के साथ है.
एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना ने अभी तक किसी भी लोकसभा चुनाव का सामना नहीं किया है – अगर हाल के विधानसभा उपचुनावों को नजरअंदाज कर दें तो. हालांकि, पीएम मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में लोजपा के पशुपति पारस को बरकरार रखा है, लेकिन वह चिराग पासवान हैं, जिन्हें वास्तव में अपने दिवंगत पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत सही में मिली है.
पिछले नौ वर्षों में लगभग दो दर्जन छोटे और बड़े सहयोगियों को खोने के बाद, भाजपा अब अपने वर्तमान सहयोगियों के समर्थन आधार को देखते हुए वस्तुतः अकेले 2024 में दोहरी सत्ता विरोधी लहर का सामना करने की संभावना देख रही है. यह क्षेत्रीय दलों के प्रति मोदी-शाह के नरम रुख की व्याख्या करता है.
इस महीने की शुरुआत में कर्नाटक में अपनी हार के बाद, जैसा कि इंडिया टुडे ने रिपोर्ट किया है भाजपा और उसके सहयोगी भारत में 43 प्रतिशत भूमि क्षेत्र और 44 जनसंख्या पर शासन किया, जो कि दिसंबर 2017 में क्रमशः 78 और 69 प्रतिशत से काफी कम है.
दिसंबर 2017 में पार्टी के सांसदों को संबोधित करते हुए, पीएम मोदी ने कहा था कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 18 राज्यों पर शासन किया था, लेकिन भाजपा और उसके सहयोगियों ने पहले साढ़े तीन वर्षों में (उनके पीएम बनने के बाद) 19 राज्यों में सत्ता हासिल की थी.
एनडीए ने दो महीने बाद तीन और राज्य जोड़े- जो थे त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड. आज बीजेपी के पास सिर्फ एक दर्जन राज्यों में अपना मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री है.
राज्यों में चरम पर है बीजेपी?
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा नेता 2024 को लेकर घबरा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन के सत्ता में आने की चिंता है. वे असल में बीजेपी के 240-250 सीटों से नीचे जाने को लेकर चिंतित हैं. क्योंकि अगर ऐसा होता है तो ये मोदी सरकार के चारों ओर के आभामंडल लगभग खत्म कर देगा. विपक्षी खेमे में इतने सारे कांग्रेस विरोधी दल हैं कि भाजपा को 230-240 सीट्स में भी सरकार बनाने में मुश्किल नहीं होगी और अगर ऐसा हुआ तो पीएम मोदी तब पहले जैसे नहीं होंगे.
जरा कल्पना कीजिए कि कोई बीजद, तृणमूल या जदयू का कोई मंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली मंत्रिमंडल की बैठक में किसी नीति का विरोध कर रहा हो! या सोचें की टीडीपी या वाईएसआरसीपी धमकी दे रहे हों की अगर मोदी ने प्रवर्तन निदेशालय या केंद्रीय जांच ब्यूरो पर लगाम नहीं लगाई तो सरकार को गिरा देंगे. बेशक ये काल्पनिक परिदृश्य हैं. मैं केवल अस्तित्व के लिए दूसरों के समर्थन पर निर्भर मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की कल्पना कर रहा हूं.
यही वह विचार है जो आज भाजपा नेतृत्व को परेशान कर रही हैं . 2019 में अपनी लोकप्रियता के चरम पर भी, उसे 303 सीटें मिलीं, जो लोकसभा में बहुमत के आंकड़े से 31 अधिक थीं. 2024 में, उसके मतदाताओं को देने के लिए कुछ ऐसा नया नहीं होगा जो इसने 2019 में नहीं दिया था. बीजेपी को इस बात से भी परेशानी होगी कि एनडीए उसने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में पहले ही कई राज्यों में अपना आंकड़ा अधिकतम कर लिया है: उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 2014 में 73 और सहयोगियों के साथ 2019 में 64 सीटें हासिल कीं वहीं, गुजरात की 26 में से 26 – 26 सीटें; राजस्थान की 25 सीटों में से 25 और 25 (सहयोगी सहित); मध्य प्रदेश में 29 में से 27 और 28; छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 और नौ; झारखंड में 14 में से 12 और 12; कर्नाटक में 28 में से 17 और 25; हरियाणा में 10 में से सात और 10; दिल्ली में सात में से सात और सात; उत्तराखंड में पांच में से पांच और पांच; और, हिमाचल प्रदेश में चार में से चार और चार सीटें हासिल की हैं.
ये हो सकता है कि कुछ कट्टर आशावादी अभी भी उपर्युक्त कुछ राज्यों में सुधार की गुंजाइश देख सकते हैं. उदाहरण के लिए, कोई यह तर्क दे सकता है कि पिछली बार एनडीए ने यूपी में 80 में से 16 सीटें नहीं जीती थीं और वह 2024 में वहां क्लीन स्वीप कर सकती है. फिर, वे यह तर्क दे सकते हैं कि बीजेपी ने 2014 और 2019 में महाराष्ट्र में 48 में से केवल 23 सीटें जीती हैं. पार्टी अपने टैली में सुधार कर सकती है. इस पर टालमटोल करने का भी कोई मतलब नहीं है. उन्हें बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी ऐसी ही उम्मीदें हो सकती हैं.
उनके आशावाद में कुछ भी गलत नहीं है. मोदी और शाह भी इसी विश्वास को साझा करना चाहेंगे. लेकिन वे अपने आशावाद को कठोर वास्तविकता जांच के रास्ते में नहीं आने देंगे. यह क्षेत्रीय दलों के प्रति उनके नरम रुख की व्याख्या करता है.
आने वाले हफ्तों और महीनों में एक नई बीजेपी देखने की संभावना है जो अपने वर्तमान और संभावित भागीदारों के प्रति अधिक अनुग्रहकारी और उदार होगी. शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर बादल, तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू और लोजपा के चिराग पासवान जैसे नेताओं को दिल्ली से जल्द ही बहुप्रतीक्षित कॉल आने की संभावना है. क्योंकि मोदी और शाह यह सुनिश्चित करना चाहेंगे की बीजेपी लोकसभा में अपने बल पर बहुमत प्राप्त करे और इसके के लिए भागीदारों की जरूरत है आप इसे जीत के लिए झुकना भी कह सकते हैं.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्ति विचार निजी हैं.
(संपादन:पूजा मेहरोत्रा)
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