मोदी कांग्रेस के विरुद्ध ‘सत्ता विरोधी’ अभियान तो चला नहीं सकते चूँकि सत्ता में तो वह स्वयं हैं, तो उन्हें 2019 के लिए एक नई रणनीति की ज़रुरत है।
यदि आप अपनी आँखें बंद करें और उस एक शब्द के बारे में सोचें जिसे नरेंद्र मोदी ने 2013 से 2015 के बीच सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया, जवाब आएगा विकास।
प्रधानमंत्री उस पूरे समय के दौरान विकास विकास कहते रहे और विकास के दृष्टिकोण के स्वामी बन गए। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि आप विकास के लिए वोट देना चाहते हैं तो आप मोदी को वोट दें।
लेकिन अब, मोदी ने विकास का नज़रिया खो दिया है। पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनावों में नारा कि ‘विकास गांडो थायो छे’ (विकास पागल हो गया है), इस ताबूत में आखिरी कील था।
जब मोदी ‘न्यू इंडिया 2022’ का विचार लेके आये, वह लगभग स्वीकार कर रहे थे कि वह 2014 में किए गए अच्छे दिन के लम्बे-लम्बे वादों को पूरा करने में नाकाम रहे। गुजरात चुनावों ने यह दिखाया है कि कैसे कृषि संकट और बढती बेरोजगारी ने मोदी के चारों ओर के फील-गुड फैक्टर को फीका कर दिया है।
स्वच्छ गंगा से लेकर सभी गांवों में फाइबर-ऑप्टिक केबल तक, 100 प्रतिशत स्वच्छता से मेक इन इंडिया के माध्यम से नौकरियों तक, बहुत कुछ ऐसा है जो मोदी सरकार पूरा करने में विफल रही है। जब तक मतदाताओं को अपनी ज़िन्दगी की स्थिति और भविष्य की संभावनाओं में एक प्रत्यक्ष बदलाव का अनुभव नहीं होता, तब तक कोई भी प्रोपेगेंडा उन्हें यकीन नहीं दिला सकता कि विकास हुआ है।
गरीबी
2016 के मध्य तक, प्रधानमंत्री मोदी ने एक के बाद एक प्रत्येक विकास केन्द्रित पहल की शुरुआत सार्वजनिक संबंधों में एक बड़े धमाके के साथ की। लेकिन नवम्बर 2016 में विमुद्रीकरण ने नज़रिये को विकास से गरीबी में तब्दील कर दिया।
विमुद्रीकरण को सब रोगों की एक दवा की तरह बेचा गया, कि काला धन ख़त्म हो जायेगा और अमीर गरीब हो जायेगा और गरीब, अमीर।
अगस्त 2017 के अंत तक, प्रधानमंत्री के भाषण गरीबी, गरीबी, गरीबी के बारे में ही बात करते थे। एक भाजपा नेता ने जनवरी 2017 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने के बाद कहा कि “गरीब, गरीबी, गरीबों….ये अब भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं”।
यह एक आजमाया और परखा हुआ राजनीतिक नुस्खा था जैसा कि हम जानते हैं इंदिरा गाँधी को गरीबी हटाओ के नारे के साथ सफलता मिली थी।
वह नज़रिया सबसे बेहतर होता है जहाँ दुश्मन स्पष्ट हो. यहाँ दुश्मन स्पष्ट था: वह था काले धन की जमाखोरी, कर बचाने वाले अमीर लोग। विमुद्रीकरण पर सभी आपत्तियों का उत्तर बस यही था “आपका काला धन जरूर बर्बाद हुआ होगा”। देश भर में बाएं, दायें और हर जगह टैक्स के छापे पड़ रहे थे। दूरस्थ किसी भी व्यक्ति के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला विपक्ष से जुड़ जाता था।
यह जल्द ही स्पष्ट हो गया था कि विमुद्रीकरण काले धन को रोकने में बदकिस्मती से एक बड़ी विफलता थी लेकिन गरीबी वाला फार्मूला काम करता रहा। भला हो इसकी उस धार का जो इतनी अमीर-विरोधी थी कि उनके काम आ गयी।
गरीबी फार्मूला ने अंततः जो किया वह थी बेरोजगारी, रोजगार सृजन और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बारे में मंदी की चिंताओं के साथ 2017 के अंत तक जीडीपी आंकड़ों में गिरावट। जीएसटी की जल्दबाजी के साथ कार्यान्वयन ने मामलों को और भी ख़राब कर दिया।
हमने अमीर-विरोधी नज़रिए को सुनना बंद कर दिया था। टैक्स छापे जारी रहे लेकिन मंद पड़ गए। सरकार ने विमुद्रीकरण पर नाटक करना शुरू कर दिया जैसे यह हुआ ही नहीं था।
कांग्रेसवाद का विरोध
आर्थिक मोर्चे पर बुरे समाचारों ने प्रधानमंत्री को कांग्रेस पार्टी पर अधिक और अधिक हमला करने के लिए प्रेरित किया। फरवरी 2017 की शुरुआत में, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह पर आश्चर्यजनक रूप से एक मजबूत हमला किया, उन्होंने कहा, “बाथरूम में रेनकोट पहन कर के नहाना, यह कला तो डॉक्टर साहब ही जानते हैं और कोई नहीं जानता है”। विकास ने निर्बाध रूप से गरीबी को रास्ता दे दिया लेकिन प्रधानमंत्री के कीवर्ड अचानक और अजीब तरीके से गरीबी से कांग्रेसवाद के विरोध में परिवर्तित हो गए। यह एक आक्रामक बचाव था। स्पष्ट है: वह संकेत करते रहे हैं कि मैं शायद मैं असफल हो गया हूँ लेकिन मैं किसी भी दिन कांग्रेस से बेहतर हूँ।
कांग्रेस फलाना कांग्रेस ढीमका, नेहरु ने गलत किया, गांधी परिवार बुराइयों की जड़ है और हमले की ऐसी ही बहुत सारी पंक्तियों के साथ वह कांग्रेस की खिलाफ घृणा और अविश्वास को बढ़ाने की कोशिश करते रहे हैं।
हमला करने के लिए सबसे बड़ा बिंदु हैं राहुल गाँधी। जब तक विकास और गरीबी का युग नहीं आया था, राहुल गाँधी के लिए भाजपा का जवाब था स्मृति ईरानी। वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी के साथ राहुल गाँधी की तुलना भी न की जाए। एक स्पष्ट दूरी बनाई गयी थी। अब प्रधानमंत्री राहुल गाँधी पर स्वयं हमला करते हैं। वह अब भी उन्हें राहुल गाँधी कहकर नहीं बुलाते लेकिन अब उन्हें शहजादा नहीं कहते हैं। अमित शाह सहित उनकी पूरी पार्टी दिन-रात राहुल गाँधी की आलोचना करती है।
यह विडम्बनापूर्ण है कि भाजपा की तरफ से 2014 के चुनाव प्रचार की अपेक्षा आज कांग्रेसवाद का विरोध ज्यादा हो रहा है, जबकि 2014 का चुनाव प्रचार यूपीए-2 पर हमला करने के बजाय विकास के लिए ज्यादा था।
एक जोख़िम भरी रणनीति
सबसे पहली बात, कांग्रेस पर आरोप नहीं लगाया जा सकता जब यह सत्ता से बाहर है। आप एक सत्ताविरोधी अभियान नहीं चला सकते जब आप खुद सत्ता में हों।
दूसरी बात, लोग कांग्रेस से उतनी नफरत नहीं करते हैं जितनी भाजपा करती है। जैसा कि हाल ही में 2009 में, भारत ने कांग्रेस के लिए यथोचित मतदान किया था।
तीसरी बात, यह रणनीतिक दांव उल्टा पड़ सकता है। जैसा कि कहा जाता है कि मोदी का कद उन पर किये गये लगातार हमलों से बढ़ा है ठीक वैसे ही कांग्रेस भी मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के हमलों में अपना कद ऊंचा कर रही है। दिन-रात गांधी परिवार पर हमला करना उनके लिए सहानुभूति पैदा करने का कारण बन सकता है।
लेकिन अभी के लिए यह मोदी की रणनीति है। मोदी सरकार की चौथी वर्षगांठ का नारा है ’48 महीने बनाम 48 साल’, जिसमें यह तर्क दे रहे हैं कि भाजपा ने इन 48 महीनों में उन 48 वर्षों से बेहतर काम किया है जब भारत नेहरु-गाँधी परिवार के सदस्य द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासित था।
नकारात्मक प्रचार कार्य करता है जब आप विपक्ष में होते हैं। एक के बाद एक चुनाव जीतने के बाद भी विपक्षी होने का नाटक करने से काम नहीं चलता है। जब आप गोलिअथ हों तब आप डेविड होने का नाटक नहीं कर सकते।
कर्नाटक में एक निकट विजय के एक पूर्ण पराजय में परिवर्तित हो जाने के बाद मोदी सरकार ने अपने पहले से डगमगाते नजरिये को और भी ख़राब कर लिया है। कांग्रेसवाद का विरोध भाजपा को नहीं बचाएगा। यदि फिर भी ऐसा होता है तो दांव उल्टा पड़ जायेगा।
चूंकि मोदी सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में प्रवेश कर रही है, इसे 2019 में जनता की कल्पना को साधने के लिए एक नए नज़रिए की अत्यंत आवश्यकता है।
Read in English: From vikas to garibi to anti-Congressism: the faltering Modi narrative