कर्नाटक चुनाव परिणाम नेहरु और इंदिरा के बाद वास्तविक अखिल भारतीय नेता के रूप में मोदी की पदवी पर मोहर लगाता है| मायावती आश्चर्य का कारक हो सकती हैं|
भाजपा की जीत पक्की नहीं हो पायी क्योंकि इसके पास आठ सीटें कम रह गयीं| लेकिन कांग्रेस पार्टी की हार निर्णायक है। फिर से एक और मुकाबले में नरेंद्र मोदी ने दिखा दिया है कि राहुल गाँधी से उनकी कोई तुलना नहीं है| हालाँकि पहले भी इसमें कोई संदेह नहीं था लेकिन कर्नाटक के नतीजे एक वास्तविक अखिल भारतीय नेता के रूप में मोदी के उदय की पुष्टि करते हैं| नेहरु और इंदिरा के बाद हमारे राजनीतिक इतिहास में यह उन्हें इस तरह का तीसरा नेता बनाता है|
इसलिए, इस परिणाम से तीन सबक मिलते हैं:
1) गठबंधन निर्माण में अब उस प्रक्रिया का अनुसरण किया जायेगा जो प्रक्रिया पिछले चार दशकों से कई दलों के लिए अपरिचित रही है| उन दलों, जो वैचारिक रूप से या वोट-बेस के मामले में इतना अलग हैं कि वे भाजपा के साथ कभी पंक्तिबद्ध नहीं हो सकते, के सामने मोदी का मुकाबला करने के लिए एक नयी युक्ति तलाशने की चुनौती है| आज, यह अति कठिन दिखता है| यदि वे एकजुट हो जाते हैं और एक नेता का नाम चुनते हैं तो मोदी बनाम ए, बी या सी, यानि कि राष्ट्रपति-शैली की तरह का प्रचार सरल विजय का रास्ता दिखायेगा| यदि वे एकजुट नहीं होते हैं तो टुकड़े टुकड़े होकर मिट जायेंगे|
कम वैचारिक सामग्री वाले उन क्षेत्रीय दलों के लिए के लिए डिफ़ॉल्ट आप्शन हमेशा यह होता है कि वे दिल्ली में सरकार बना सकने में सक्षम दल से गठबंधन कर लें और इसमें से कुछ हिस्सा प्राप्त कर लें| अखिलेश, ममता यहाँ तक कि मायावती और लेफ्ट के पास भी यह लचीलापन नहीं है| लेकिन शरद पवार सहित अन्य के बारे में क्या? विशेष रूप से यदि शिवसेना भाजपा के साथ होते हुए भी विमुख रही है|
यह कैसे काम करता है? यहाँ मैं देवगौड़ा के बेटे एच.डी. कुमारस्वामी के वक्तव्य का उद्धरण देने से बेहतर कुछ नहीं कर सकता, जिनसे मैंने 2006 में ‘वाक द टॉक’ इंटरव्यू में पूछा था कि क्या भाजपा के समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बनने के लिए वह शर्मिंदा नहीं थे जबकि “सेक्युलर” एकता ने भाजपा को बाहर रखने के लिए उनके पिता को भारत का प्रधानमंत्री बना दिया था? उन्होंने कहा, “सर, मेरे पिता जी ने प्रधानमंत्री बनके एक बड़ी गलती की थी|” क्यों? क्योंकि उन्होंने कहा था कि उन्होंने अपने राज्य पर से अपने फोकस और वहां अपनी शक्ति को खो दिया था| फिर उन्होंने कहा कि सभी क्षेत्रीय दलों को द्रमुक / एआईएडीएमके से सीखना चाहिए। अपने राज्य में अपनी ताकत को बनाकर रखो, दिल्ली में कोई न कोई आपको राष्ट्रीय सत्ता के सामियाने के नीचे बिठाने की चाहत रख रहा होगा| यह अब और भी दृढ़ता से तथा एक अंतर के साथ लागू होगा| “सेक्युलर” और कांग्रेसी प्रभुत्व वाला चुम्बक अब “राष्ट्रवादी” और भाजपा के अधीन होगा|
यदि, जैसा आरएसएस विचारक शेषाद्रि चारी कहते हैं कि (विशेष रूप से) 2019 में यह “मोदी बनाम कोई नहीं” होगा, यह एक अतिशयोक्ति नहीं है| सवाल यह है कि क्या यह समीकरण एक और साल के लिए बना रहेगा| आम तौर पर आप यह मानने के लिए प्रवृत्त होंगे कि राजनीति में चीजें एक वर्ष तक समान नहीं रहती हैं और कुछ चीजें बदल ही जाती हैं| परन्तु आज की तारीख में कोई विश्लेषण इंगित नहीं करता है कि इस तरह का परिवर्तन कैसे आ सकता है|
2) राष्ट्रीय राजनीती के लिए कर्नाटक से मिला दूसरा जरूरी सबक यह है कि किसी भी त्रिकोणीय चुनाव में भाजपा पहले से ही निर्धारित द्वितीय विजेता के रूप में सबसे आगे होगी| यह बस इतिहास के दोहराए जाने का एक मामला है| भारतीय राजनीति के लिए मोदी अब वही हैं जो इंदिरा गाँधी 1969 और 1973 के मध्य के समय में हुआ करती थीं| जब अन्य सभी नेता और दल उनके खिलाफ एकजुट हो गए थे, वास्तव में इससे उनको लाभ मिला था| उनका बस यह कहना था कि मैं गरीबी हटाना चाहती हूँ और मेरे खिलाफ़ यह घृणा ही है जो उनके इस जमघट को एकजुट करती है| इस जमघट में कोई वैचारिक बाध्यता नहीं है जो इन्हें किसी एक नेता के नाम पर सहमत कर सके|
तथ्य: इसने आपातकाल तक उनके लिए काम किया और 1977-80 के एक अंतराल के बाद भी काम किया| वही असदृश विपक्ष, जनता पार्टी के रूप एक साथ आया जब इसके नेता इंदिरा की जेलों से बाहर आये| लेकिन फिर, इंदिरा ने जो अनुमान लगाया था, लगभग केवल दो वर्षों में ही यह गठजोड़ समाप्त हो गया| यह भारतीय राजनीति में ये होता ही रहता है| बस इतना सा फर्क है कि उस समय भाजपा (तब, भारतीय जन संघ) दूसरे छोर पर थी; अब कांग्रेस है| क्या विपक्ष इस से सीख सकता है और कुछ नवीनीकरण के विचारों के साथ आ सकता है? अब तक, हम कांग्रेस या बाकी विपक्ष के भीतर इस तरह के आत्मनिरीक्षण या बौद्धिक पुनर्विचार का कोई संकेत नहीं देखते हैं।
3) सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुराना मैसूर/दक्षिण कर्नाटक क्षेत्र में बड़े-बड़े एग्जिट पोल्स ने जो भविष्यवाणी की थी, भाजपा उससे बेहतर परिणाम लायी है| दो प्रमुख जातियों वोक्कालिगों और लिंगायतों को अनदेखा करने और ‘बाकी सब’ को गठजोड़ कर एक साथ लाने की कांग्रेस की रणनीति साहसिक थी, लेकिन यह असफल रही| कर्नाटक अत्यंत विविधताओं वाला निर्वाचन क्षेत्र है और तीनों दलों में से प्रत्येक ने गुटबंदी के लिए अपना पसंदीदा दल चुना और इस पर ध्यान केन्द्रित करते हुए अपना सारा दमखम झोंक दिया| लेकिन कांग्रेस कम संख्याओं के साथ पीछे रह गयी|
हम इस से दो परिणामों की उम्मीद कर सकते हैं| एक, राज्य में सूपड़ा साफ़ करने के लिए कोई भी दल सभी जातियों को एक साथ साधने में सक्षम नहीं रहा है| लेकिन दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कि एकमात्र दल जिसके लिए यह रणनीति काम कर गयी, वह है जेडी(एस)| क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ पर अमल करते हुए, जहाँ कांग्रेस उम्मीद कर रही थी कि वह यहाँ से सीटें निकालेगी, जे डी (एस) ने शानदार प्रदर्शन किया है| इस बार यहाँ जो नया कारक है वह हैं मायावती, जिन्होंने जे डी (एस) को समर्थन दिया है और इसके लिए प्रचार किया है| क्या उन्होंने दलित वोटों के एक बड़े हिस्से को इधर से उधर किया है जिसे कांग्रेस अपने पाले में गिन रही थी? हम अभी तक तक तो नहीं जानते| लेकिन ये संभव नहीं दिखता कि वास्तव में दलित वोटों को विभाजित किये बिना जे डी (एस) इतना अच्छा और कांग्रेस इतना ख़राब प्रदर्शन कर सकती है|
तो क्या मायावती इस कर्नाटक चुनाव का एक्स-फैक्टर हैं? हम जल्द ही अधिक स्पष्टता के साथ इसके बारे में जान जायेंगे| मैं कहने के लिए लालायित हूँ कि यदि कांग्रेस-जेडी(एस) गठबंधन चल जाता है तो 28 मई को कैराना, उत्तरप्रदेश में होने वाले उप चुनाव में आगे जो परिणाम आता है, वह कर्नाटक 2018 की तरह 2019 में होने वाले गठबन्धनों पर अधिकतम प्रभाव डाल सकता है|