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Friday, 22 November, 2024
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राफेल विमान: घोटाला या महज विवाद?

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सेना के आधुनिकीकरण के लिए भारत को चाहिए कई राफेल विमान, इसलिए मोदी सरकार को चाहिए कि वह इस सौदे को लेकर विपक्ष के संदेहों को दूर करे.

खरी बात तो यह है कि राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में अब तक किसी घोटाले के संकेत नहीं हैं. कोई प्रमाण नही मिलता कि भारतीय वायु सेना को जिस अति सक्षम लड़ाकू विमान की बेहद जरूरत है उसकी खरीद में किसी को नाजायज लाभ पहुंचाया गया या किसी नियम को तोड़ामरोड़ा गया. वैसे, इस सौदे की शर्तों को लेकर कुछ सवाल जरूर उठाए गए हैं. इनमें से कुछ सवाल- विमानों की कीमत को लेकर- तो विपक्ष ने उठाए हैं, लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जिन्हें ज्यादा नहीं उछाला गया है. मसलन, यह कि जब वास्तविक जरूरत 126 विमानों की थी तो केवल 36 विमान खरीदने का फैसला क्यों किया गया.

इसलिए, जो स्थिति है उसके मद्देनजर ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जा सकता है कि यह एक विवादास्पद सौदा है मगर इसमें घोटाले के संकेत नहीं हैं. लेकिन असली खतरा यह है कि अगर इस विवाद का सावधानी से निबटारा नहीं किया गया तो फिर वही पुरानी जड़ता वाली स्थिति शुरू हो जाएगी. इस विवाद के कारण माहौल जिस तरह गरम हो रहा है उसके चलते सेना के आधुनिकीकरण को भारी चोट पहुंचेगी. सरकार को तो पूरा भरोसा हो सकता है कि विमानों के लिए सौदा किया गया, लेकिन कीचड़ उछालना जारी रहा तो निर्णय प्रक्रिया पर असर पड़ेगा, जिसमें बेहद सावधान रहने वाली नौकरशाही भी शामिल है. नौकरशाही को पूरा एहसास है कि वह कागज पर जो भी फैसला दर्ज करती है उसकी जांच हो सकती है. इस नौकरशाही को मालूम है कि यूपीए सरकार ने जिन रक्षा सौदे पर दस्तखत किए थे उनमें से कम-से-कम दो की बड़ी सीबीआइ जांच चल रही है.

सरकार राफेल सौदे पर विवाद के निबटारे के लिए रणनीति बनाए, इसकी सख्त जरूरत इसलिए है कि भारत को और ज्यादा राफेल विमानों की जरूरत है. मात्र 36 विमानों की खरीद से वायुसेना की चिंताएं दूर नहीं होगी, क्योंकि वह सोवियत युग के विमानों को अब सेवानिवृत्त कर रही है. 36 के आंकड़े में जल्द से जल्द दोगुना या तिगुना वृद्धि करनी होगी. किसी रक्षा सौदे को पूरा करने में यहां जितना समय लगता है- हाल के वर्षों में सबसे कम समय लगा था तीन साल का- उसके चलते वायुसेना के पास इतना समय नहीं है कि वह नए सिरे से पूरी चयन प्रक्रिया को फिर से पूरा करे.

एकल इंजिन वाले विमानों को हासिल करने की उसकी योजना अटकी पड़ी है. सबसे बेहतर संभावना यह है कि संख्या को पूरा करने के लिए वायुसेना और ज्यादा राफेल विमानों के लिए अगले दो-तीन वर्षों में ऑर्डर दे दे ताकि जब वह अपने मिग विमानों की सेवानिवृत्त करे तब तक राफेल की आमद होने लगे. बड़ा ऑर्डर देकर फ्रांस से कुछ और फायदे हासिल किए जा सकते हैं. मसलन, टेक्नोलॉजी हस्तांतरण, भारतीय लड़ाकू विमानों के उत्पादन में सहायता, ‘मेक इन इंडिया’ के तहत उत्पादन की ऐसी व्यवस्था जिससे तीसरे देशों को निर्यात किया जा सके. जबकि भारत का सामना एक ओर आक्रामक चीन से और दूसरी ओर पाकिस्तान से है, हालात का तकाजा है कि वह अपनी सेना का तेजी से आधुनिकीकरण करे जिसमें बेहतर तथा सक्षम साजोसामान उपलब्ध है और बाहुबल की जरूरत कम पड़े.

लेकिन सरकार इस विवाद के प्रति जो रुख अपना रही है, गोपनीयता की शर्त की ओट बनाकर सवालों के पीछे की मंशा पर ही सवाल उठा रही है उसे बदलने की जरूरत लगती है. अगर जानकारियं को सार्वजनिक करना मुमकिन है, तो विपक्ष के सवालों तथा सरोकारों को दूसरी तरह से संतुष्ट किया जा सकता है. विपक्ष के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की गोपनीय बैठक बुलाकर विस्तार से जानकारियां देना एक रास्ता है. संस्थागत प्रक्रियाओं- प्रतिरक्षा मामलों के लिए संसद की स्थायी समिति- का सहारा लेना दूसरा रास्ता है.

विवाद को शांत नहीं किया गया तो खतरा यह है कि सेना का आधुनिकीकरण उस राजनीति का बंधक बनकर रह जाएगा, जिसने राफेल सौदे को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. भारत को इसकी जरूरत तो कतई नहीं है.

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