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Monday, 17 June, 2024
होममत-विमतधर्म पर हावी हो रही जाति से मोदी और अमित शाह के हिंदुत्व एजेंडे पर मंडराया संकट

धर्म पर हावी हो रही जाति से मोदी और अमित शाह के हिंदुत्व एजेंडे पर मंडराया संकट

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2014 में भाजपा ने जाति विभाजन की निति को पछाड़ दिया था लेकिन अब समय बदल चुका है। दलित गुस्से में हैं और 2019 के चुनावों के लिए पृष्ठभूमि तैयार होना चालू हो गई है।

ारतीय मतदाताओं में मुसलमान मतदाता लगभग 15 प्रतिशत हैं जो भाजपा को वोट नहीं देते। 1989 के बाद भी राजनीति में जब कांग्रेस ने अपने वोट बैंक के इस गढ़ को खो दिया था, तब मुसलमानों ने यादवों को ज्वाइन किया जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में सबसे प्रभावशाली हैं और इसके साथ ही समय-समय पर मायावती ने दलितों को भाजपा से दूर किया है। अपने इस गुणा गणित से निराश, भाजपा नेताओं का कहना है कि मुसलमानों के हाथ में ही है कि आने वाले समय में भारत पर शासन करने वाला कौन होगा।

लेकिन नरेंद्र मोदी ने 2014 में इस सोंच को बदल दिया। उन्होंने राजनीतिक शुद्धता और कपट के सभी प्रतीकात्मकता से किनारा कर लिया। यदि मुसलमान हमारे लिए मतदान न करने पर जोर देते हैं, उन्हें रहने दें क्योंकि हमारे पास उनके अलावा भी पर्याप्त वोट हैं, यह तर्क उन्होंने दिया था। अपने श्रेय के लिए, वह काफी स्पष्ट हैं: अल्पसंख्यकों के लिए कोई विशेष अनुदान नहीं, बस उनका एक ही नारा था कि “सबका साथ, सबका विकास”।

मुसलमानों ने उनके लिए मतदान नहीं किया। ऐसा होने के बावजूद भी उन्होंने एक नया इतिहास रचा। उन्होंने बिना किसी मुस्लिम सांसद के 282 सीटों पर जीत हासिल की। यही रिकार्ड राज्यों के चुनावों में भी दोहराया गया। भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया, एक ऐसा राज्य जहां 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, इसके बावजूद भाजपा ने यहाँ 77 प्रतिशत सीटों पर जीत हांसिल की है। भारत पर कौन शासन करेगा यह मुस्लिम वोटों पर निर्भर करता है वाले दावे के प्रभाव का जादू पूरी तरह ध्वस्त हो चुका था। मोदी और पूरी भाजपा ने हमेशा मुस्लिमचेहरों को दरकिनार करते हुए जबाव दिया है। उन्हें एक नया मित्रतापूर्ण राजनीतिक मुस्लिम अभिजात वर्ग बनाने में रूचि नहीं है। यदि आप हमें वोट नहीं देते हैं तो हमसे यह उम्मीद बिल्कुल ना करें कि हम आपसे सत्ता साझा करेंगे।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनकी अपील  हिंदू समाज के समूहों में चोट कर गई, जो समूह अब तक बीजेपी से परेशान थे, या अपनी जाति के नेताओं के प्रति वफादार थे। 2014 के आम चुनावों की वास्तविकता यह है एक बड़े पैमाने पर गैर-यादव ओबीसी भाजपा में चले गए थे। इतना ही नहीं मायावती 2014 लोकसभा चुनाव में 80 सीटों में से एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही और 2017 में विधानसभा चुनावों में 19 सीटें जीतकर केवल 5 प्रतिशत से भी कम सीटों पर जीत हासिल की,यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत है पर्याप्त संख्या में दलित मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया। लोकसभा में भाजपा के 282 सांसदों में 40 दलित शामिल थे जिन्होंने आरक्षित सीटों से चुनाव जीता था जिसमें एक एलजेपी और छह टीडीपी सहयोगी शामिल थे। बस यही कारण है कि भाजपा 15 प्रतिशत मुस्लिम वोटों की दौड़ से बाहर होने के बावजूद इतनी सुन्दरता जीत गई।

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िछले कुछ महीनों में इस पर नए प्रश्न सामने आए हैं जैसा कि दलित क्रोध और मांगें पूरे देश में बढ़ रही हैं। इसकी शुरूआत बहुत पहले रोहिथ वेमुला और उना की घटनाओं के साथ हुई। लेकिन युवा और मुखर दलित नेताओं के उदय के साथ, जो ज्यादातर छात्र और जमीनी स्तर के नेता हैं, और भीमा-कोरेगांव हिंसा से लेकर अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम के खिलाफ उद्दंड व्यवहार पर उच्चतम न्यायालय के आदेश पर हुए विरोध तक, 2014 के बाद, मुस्लिमों को छोड़ो, हम 85% बाकी के वोटों के साथ लड़ लेंगे, वाला दृष्टिकोण कठिनाई भरा प्रतीत होता है।क्योंकि लगातार जारी दलित क्रोध इसे जोखिम भरे 70 प्रतिशत तक कम करने के लिए एक खतरा है।यह संदेश उत्तर प्रदेश में पार्टी के तीन दलित सांसदों द्वारा जारी किया गया है, जिन्होंने यह शिकायत सार्वजनिक रूप से की है।

डेक्कन क्रोनिकल (31 अगस्त 2016) के एक लेख में, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के प्रमुख प्राइफोलॉजिस्ट संजय कुमार ने पुष्टि की है कि भाजपा को पहले से कहीं ज्यादा दलित वोट मिले हैं। उन्होंने लिखा,”पिछले कई लोकसभा चुनावों में, लगभग 12-14 फीसदी दलितों ने भाजपा को वोट दिया है।” लेकिन 2014 में, यह संख्या दोगुनी होकर 24 प्रतिशत हो गई, जिससे कांग्रेस (19 प्रतिशत) और बसपा (14 प्रतिशत) के मुकाबले, भाजपा का दलित वोट बैंक और बेहतर हो गया।

हालिया दलित असहिष्णुता ने इन लाभों को चुनौती दी है। यह मामला सपा और बसपा के बीच गठबंधन से और अधिक उलझ गया है। गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में यह कैसे प्रभावयुक्त हो सकता है।एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बीएसपी, चुनाव लड़ने में नहीं, अपना वोट स्थानांतरित करने में सक्षम थी।

ाल ही में हुई इस डाँवाडोल स्थित से तीन यूपी सांसदों ने शिकायत में अपनी असुरक्षा को दर्शाया है। वमुला से भीम-कोरेगांव तक, ग्वालियर में दलित प्रदर्शनकारियों की भीड़ पर अपर-कास्ट के लोगों द्वारा की गई गोलीबारी की वजह से कए नए चहरे उभरकर सामने आए हैं।तथ्य यह है कि एससी / एसटी अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश में सरकार ने बहुत ही लचर भूमिका निभाई है। आदेशों को सावधानीपूर्वक नहीं पढ़ा जा रहा है, क्या एक अच्छा कानून अब कमजोर हो रहा है? तेज, राष्ट्रव्यापी दलित प्रतिक्रिया और विरोध प्रदर्शन से लग रहा रहा है कि दलित बहुत गुस्से में हैं।

Shekhar Gupta, chairman and editor-in-chief of ThePrintप्रधानमंत्री और अमित शाह इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते, या विचार कर सकते हैं कि, आने वाले 2019 के चुनाव में, ‘मोदी मैजिक’ से सब कुछ सही होगा। वे 2014 के 24 प्रतिशत दलित वोटों में से किसी भी को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। उनकी समग्र पार्टी की संख्या 31 प्रतिशत थी और दलितों के चौथे हिस्से के बिना उन्हें फिर से उस प्रतिशत को बनाए रखना असंभव होगा। जिस पार्टी को आप मानते हैं वह ऊँची जातियों के साथ पहले से ही बढ़ चुकी है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने ओडिशा के एक दलित घर में आरक्षण और अच्छी तरह से प्रचारित अमित शाह के भोजन पर बहुत जोर दिया।

लितों द्वारा किए गए दावों का नवीनतम चरण अतीत काल से वास्तव में भिन्न है। नई पीढ़ी में अधिकतम लोग स्कूल और कॉलेज जाने और इंटरनेट की आसान उपलब्धता से अधिक जागरुक हो गए हैं।इनकी आकांक्षाएं शारीरिक सुरक्षा, भोजन, आश्रय और पारंपरिक व्यंजनों के संरक्षण तक सीमित नहीं है। युवा दलित अब इस जाल से बाहर निकलना चाहते हैं।सोशल मीडिया और व्हाट्सएप अन्य राज्यों में उनके नेटवर्क को सक्रिय कर रहे हैं। एक युवा नेता और पहली बार विधायक जिग्नेश मेवानी उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भारत में कहीं भी एक विशाल जनसभा को इकठ्ठा कर सकते हैं। यह दलित वृद्धि अतीत से भी अधिक वैचारिक है। स्वर और आशय स्पष्ट रुप से विपरीत हैं और इसलिए भाजपा सशक्त रुप से इसके विरोध में है।

1989 तक, भाजपा का मानना था कि हिंदू समाज में जाति विभाजन के कारण यह जीतने में सक्षम नहीं थे। लाल कृष्ण आडवाणी ने इसे स्वीकार किया और एक परियोजना (अयोध्या के माध्यम से) की शुरूआत की जिसमें जातिगत विभाजन के लिए फिर से धर्म का प्रचार किया गया था। यह काफी हद तक कारगर रहा था। लेकिन यह अपनी कार्यप्रणाली और जातिगत निष्ठा की ओर अग्रसर हो गया तथा लंबे समय तक कायम न रह सका और नतीजा यह हुआ कि भाजपा केवल अपने गढ़ में सिकुड़कर रह गई। एक समय जब उत्तर प्रदेश में भाजपा को बहुमत प्राप्त हुआ था, उसी प्रदेश में मुलायम/अखिलेश और मायावती ने आठ बार मुख्यमंत्री पद पर राज किया, जिसमें मायावती और अखिलेश के दो पूर्ण टर्म (कार्यकाल) शामिल हैं।

2014 में मोदी और अमित शाह के संयोजित प्रयास आडवाणी से भी अधिक शक्तिशाली साबित हए। उन्होंने लोगों से एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का वादा किया, जिसमें मोदी लहर और अच्छे दिनों का वादा भी शामिल था, यह वादे उनके गुजरात मॉँडल के आधार पर काफी भरोसेमंद लगते थे। भाजपा सभी जाति आधारित दलों को पराजित कर शानदार तरीके से सत्ता हासिल करने में कामयाब रही। हिन्दू समाज में आने वाले बड़े और दुर्लभ, दलित तथा अन्य पिछड़े वर्गों की वोट बैंक के बिना ऐसा होना असंभव था।

लेकिन पहले जो हुआ उसपर अब खतरा मंडरा रहा है। जाति आधारित भेदभाव, सत्ता विरोधी आंदोलन, नौकरियों की कमी, 15 साल में पहली बार उच्च जाति के मुख्यमंत्री को सामने लाना आदि कुल मिलाकर यह सभी मुद्दे जाति आधारित समीकरणों को एकत्र कर रहे हैं। मोदी और अमित शाह बोल रहे हैं कि भाजपा को इस बात का एहसास हो गया है। लेकिन फिर भी इनके सामने तीन समस्याएं हैं जिसमें से सबसे पहली तो यह है कि उनके पास कोई समझदार और मजबूत दलित चेहरा नहीं है। दूसरी समस्या यह है कि भाजपा ने मोदी और शिवराज जैसे पिछड़े वर्ग के दो नायकों का निर्माण किया था, लेकिन 2014 के बाद से भाजपा में ऊँची जातियों के उदय को देखा गया है, विशेषकर महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में इसमें काफी बढ़ोतरी हुई है। और तीसरी समस्या यह कि, शायद उन्होंने इस बात पर बहुत देर में ध्यान दिया, भाजपा और इसका खुफिया तंत्र दलित हताशा को जल्द समाप्त करने में असफल रहा।

हालांकि पार्टी अब इस मुद्दे पर ध्यान दे रही है। अब यह कितनी अधिक क्षति पूर्ति कर सकती है, इसका असर 2019 के चुनाव में दिखाई देगा।

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