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Sunday, 28 April, 2024
होममत-विमतनेहरू के विपरीत मोदी को नहीं मिल रहा एलीट बुद्धिजीवियों का साथ, वजह आरएसएस

नेहरू के विपरीत मोदी को नहीं मिल रहा एलीट बुद्धिजीवियों का साथ, वजह आरएसएस

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यहां संभ्रांत या ‘कुलीन’ का अर्थ कुलीनतावाद से नहीं है. इसका अर्थ उन बुद्धिजीवियों तथा कलाकारों से है, जो ज्ञान के प्रसार को प्रोत्साहित करते हैं. मोदी के साथ ऐसे कुलीन नजर नहीं आते.

सत्ता में चार साल बिताने के बाद भी नरेंद्र मोदी अपनी कोई ‘इलीट’ या कुलीन जमात नहीं बना पाए हैं. पारंपरिक और सोशल, दोनों मीडिया में बेशक उनके घोर समर्थकों का अकाल नहीं है. मुख्यधारा के अखबारों में उनका गुणगान करने वाले चंद बुद्धिजीवी स्तंभकार भी मौजूद हैं. कॉरपोरेट क्षेत्र में तो उनके वफादारों की कतार लगी ही है, मध्यवर्ग खासकर ऊंची जातियों में भी उनके प्रशंसकों (भक्तों तक) की कमी नहीं है.

लेकिन इसे ‘पावर इलीट’ (शक्तिशाली संभ्रांत जमात) नहीं कहा जा सकता. मोदी क्या, भाजपा और आरएसएस तक बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, कलाकारों, वैज्ञानिकों आदि की एक समर्थक जमात नहीं तैयार कर सका है. सरकार ने विभिन्न आला संस्थानों में कुछ कथित प्रख्यात व्यक्तियों की नियुक्त तो किया है मगर उन व्यक्तियों ने अपनी काबिलियत तथा श्रेष्ठता को लेकर सवालों को ही जन्म दिया है और विवादों के केंद्र बने हैं.

‘पावर इलीट’ एक सामाजिक परिघटना है, जिसके साथ जरूरी नहीं कि नकारात्मकता ही जुड़ी हो. और याद रहे कि इस ‘इलीट’ यानी ‘कुलीन’ को कुलीनवाद से जोड़कर न देंखे, जो कि ब्राह्मणवाद जैसी परिघटना है जिसमें ज्ञान पर चंद लोग कब्जा जमा लेते हैं. ज्ञान और शिक्षा के प्रसार के लिए ‘इलीट’ को कुलीनवाद से मुक्त होना होगा.

नेहरू युग

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जवाहरलाल नेहरू के साथ संभ्रांतों की एक सेना जैसी ही थी, जिसमें वैज्ञानिक तथा कवि, लेखक तथा तकनीकविद, कलाकार तथा इतिहासकार, नौकरशाह तथा उद्योगपति तक शामिल थे और उन सबका अपना-अपना आभामंडल था. होमी भाभा से लेकर अमृता प्रीतम तक, सत्यजीत रे से लेकर निखिल चक्रवर्ती तक, यामिनी राय और नंदलाल बोस से लेकर वी.पी. मेनन और गिरिजा शंकर वाजपेयी तक और दिलीप कुमार, राज कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास तक तमाम हस्तियां नेहरूवादी मूल्यों से प्रत्यक्षतः प्रभावित थीं. इनमें जे.के. गालब्रेथ, चेस्टर बोवेल्स समेत पश्चिम के कई बुद्धिजीवी और राजनयिक भी शामिल थे. अरविंदो आश्रम के साथ नेहरू के जुड़ाव और विनेबा भावे के साथ उनके निजी संबंध उनकी जमात को एक तरह का दार्शनिक तथा आध्यात्मिक स्वरूप भी प्रदान करते थे.

इंदिरा की जमात

यहां तक कि इंदिरा गांधी की जमात भी काफी बड़ी थी जिसमें पी.एन. हक्सर और रोमेश थापर, इब्राहिम अल्काजी, पुपुल जयकर, कपिला वात्स्यायन, चाल्र्स कोरिया सरीखे वास्तुविद, विक्रम साराभाई सरीखे वैज्ञानिक, हरिवंश राय बच्चन सरीखे कवि, और सतीश गुजराल सरीखे कलाकार शामिल थे. इनके अलावा माइकल फूट, कैथरीन फ्रैंक और जुबिन मेहता जैसी विदेशी हस्तियां भी इससे जुड़ी थीं.

इंदिरा जे. कृष्णमूर्ति से बराबर मिलती रहती थीं और शांतिनिकेतन जाया करती थीं, जो उनके चरित्र को सांस्कृतिक तथा पराभौतिक आयाम देता था. हालांकि उन्होंने देश पर इमरजेंसी थोप दिया था, इसके बावजूद उनका ‘पावर इलीट’ कायम था और उनकी हत्या के बाद यह राजीव गांधी के लिए बौद्धिकों के बने-बनाए समर्थक समूह के तौर पर उपलब्ध हो गया था.

आरएसएस संस्कृति

मोदी इस तरह की जमातें नहीं बना सके हैं. कुछ लोग कह सकते हैं कि उन्हें सत्ता में आए अभी तो सिर्फ चार साल ही हुए हैं इसलिए किसी से उनकी तुलना ठीक नहीं है. लेकिन मोदी तो गुजरात में भी 12 साल तक मुख्यमंत्री रहे. तब वे कला-संस्कृति-साहित्य के क्षेत्र से संपर्क या संबंध बना सकते थे. नेहरू और इंदिरा ने कोई प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे संबंध नहीं बनाए थे. इन लोगों की परवरिश विशिष्ट आभामंडल वाले सामाजिक वर्ग में हुई थी और इन्होंने सत्ता और राजनीति के इतर विषयों में भी अपनी रुचि बनाए रखी. दूसरी ओर, मोदी प्रायः कहा करते हैं कि वे तो नई दिल्ली के लिए ‘बाहरी’ हैं. शायद उन्हें एहसास है कि संभ्रांतों में उनका कोई आधार नहीं है. आरएसएस हालांकि खुद को ‘सांस्कृतिक संगठन’ कहता है और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की नई विचाधारा के तौर पर स्थापित करना चाहता है लेकिन प्राचीन या आधुनिक श्रेष्ठ कला तथा साहित्य में इसकी कोई जड़ें नहीं हैं.

इसके सदस्य बौद्धिक अकाल में ही जीते रहे हैं और आज भी जी रहे हैं. वे निरर्थक विचारों और काल्पनिक गौरव की भावना में जीते हैं, जैसे यह कि पुष्पक विमान भारत में उड्डयन विज्ञान की प्राचीनता का या गणेश के मुख पर हाथी के चेहरे का प्रत्यारोपण प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी के प्रचलन का प्रमाण है. ये लोग इतिहास तथा विज्ञान की पुस्तकों की जगह मिथकों को आगे बढ़ाना चाहते हैं. यहां तक कि चाल्र्स डार्विन भी इनकी इस मूर्खता के चपेटे में आ चुके हैं. इनके दिमाग पद्मावत या वंदे मातरम से इतर कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. और वह इतिहास, मिथक तथा काव्य भी इनकी समझ से परे है. ये वंदे मातरम भी पूरा नहीं गा सकते, जो कि तब स्पष्ट हो गया था जब एक टीवी चैनल ने एक भाजपा नेता ने उन्हें इसे पूरा गाने को कहा था. इन्हें तो यह भी नहीं पता कि यह गान कब, किसने लिखा था.

लेकिन अयोध्या में राम मंदिर का और मध्य प्रदेश में नाथूराम गोडसे के मंदिर का निर्माण इनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है. हुसैन के चित्रों को फाड़ना-जलाना, गुलाम अली के गजल कार्यक्रमों पर हमले करना, मूर्खतापूर्ण आरोप लगाकर आमिर खान या शाहरुख खान की निंदा करना, कॉलेज की लड़कियों को स्कर्ट पहनने से रोकना, गोमांस और अन्य मांसाहारों पर रोक लगाना, पश्चिम की अधिकतर बौद्धिक तथा कला परंपराओं और विज्ञान की भत्र्सना करना इनके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के कुछ ‘सांस्कृतिक’ उदाहरण हैं.

आरएसएस के संगठन तथा उसकी विचारधारा के मूल्य बौद्धिकता तथा रचनात्मकता से पूरी तरह वंचित नजर आते हैं क्योंकि वे मानसिक तथा दार्शनिक स्तर पर प्रबुद्ध होने से इनकार करते रहे हैं. उनकी पक्की मान्यता यह है कि सारा ज्ञान पुराणों तथा वेदों में ही सिमटा है इसलिए नए ज्ञान पर समय ‘बरबाद’ करने की जरूरत नहीं है.

लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं है कि प्राचीन भारतीय दर्शन तथा कला और संस्कृत भाषा तक में काफी अध्ययन जो हुए हैं वे नेहरू तथा इंदिरा के दौरों में उन्हें दिए गए प्रोत्साहनों के परिणाम हैं. इनमें आधुनिक तथा उदार दृष्टिकोण के साथ कोई समझौता नहीं किया गया. उन्होंने आश्रमों या मंदिरों के दौरे जरूर किए लेकिन अपनी धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं के साथ कोई समझौता नहीं किया. नेहरू ने अपनी भव्य कृति ‘भारत की खोज’ में प्राचीन भारतीय इतिहास पर शानदार अध्याय लिखे हैं. उन्होंने गंगा तथा हिमालय के महिमागान के अलावा भारत के भूगोल और पारिस्थितिकी की खूब प्रशंसा की है.

गोलवलकर या भागवत ने इसकी जोड़ का कुछ भी नहीं लिखा है. फिर भी आरएसएस और मीडिया में उनके साथियों ने दर्शन, विचार, समाज तथा संस्कृति के राष्ट्रीय विमर्श को हड़प लिया है. सभ्य आचरण का आज जो लोप हो गया है और यही आज का जो नया सामाजिक मूल्य बन गया है, वह मध्ययुगीन धारणाओं की ओर वापसी का ही परिणाम है. आधुनिकता, सभ्यता, उदारता, वैज्ञानिक सोच, वैश्विक ज्ञान परंपराओं के लिए सम्मान भाव, कला तथा साहित्य की समझ नेतृत्व, प्रचलित विचारधारा के कारण विकसित होती है.

और यहीं पर जरूरी है कि ‘संभ्रांत’ संस्कृति का वर्चस्व बना रहे.

कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार तथा अर्थशास्त्री हैं.

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