वह ध्रुवीकरण करने वाले हमारे सबसे बड़े नेता हैं, जिनसे बहुत लोग तहेदिल से घृणा करते हैं लेकिन वह समान रूप से इससे कहीं ज्यादा लोगों से प्रेम भी पाते हैं, विशेष रूप से युवाओं से। गुजरात और कर्नाटक में भाजपा का संघर्ष 2019 में भी जारी रहेगा यह सोचना घातक रूप से असावधानीपूर्ण है।
पिछले कुछ सालों में चुनावी राज्यों में यात्राओं से प्राप्त हुई जो एक चित्तग्राही खोज है वह है प्रधानमंत्री मोदी की निरंतर लोकप्रियता की अपील। निश्चित रूप से लोग उन्हीं मुद्दों पर नाराज़ हैं जिनपर उनकी नाराजगी जायज है जैसे कि कीमतों में वृद्धि (विशेष रूप से पेट्रोल और डीजल), कृषि संकट, रोजगार की कमी, पतन की ओर बढ़ते व्यवसाय, विमुद्रीकरण, जीएसटी और इसी तरह अन्य। इनमें से अधिकांश मुद्दे भाजपा सरकार द्वारा संचालित हैं, चाहे वह राज्य में हो या केंद्र में।
यह प्रधानमंत्री पर प्रतिबिंबित होता हुआ मालूम नहीं होता है मानो अब वह खुद ही अपनी सरकार, पार्टी और तथ्यों से ऊपर एक इकाई या ब्रांड हों। वही पुराने घिसे पिटे ‘टेफ़लोन-कोटेड’ अमेरिकीवाद का इस्तेमाल करना काहिलपना होगा। टेफ़लोन समय के साथ खराब भी हो जाता है। हम एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप में एक अलग घटना को देख रहे हैं। ऐसा लगता है कि यह टेफ़लोन की परत के बजाय टाइटेनियम से निर्मित हो।
राजवंशो, विशेषाधिकार और व्यापक भारतीयता की “पृष्ठभूमि” के भार से बोझिल सिस्टम में नरेन्द्र मोदी अब एक स्वनिर्मित नेता ही नहीं हैं बल्कि वह एक स्वनिर्मित सुपरब्रांड भी हैं, जिन्हें अब पर्याप्त भारतीयों ने मसीहा मान लिया है, उनकी राजनीति और ख़राब अर्थशास्त्र पर गौर न करें। यद्यपि सामान्य योग्यता निश्चित रूप से लागू होती है। इससे सभी वर्गों में सेंध नहीं लगती और ऐसे कई वर्ग हैं जो उनसे घृणा करते हैं जैसे – अल्पसंख्यक, प्रतिबद्ध समाजवादी और अब बढती हुई संख्या में दलित। लेकिन दशकों तक मेरे द्वारा आतंरिक क्षेत्रों के भ्रमण और भविष्य के लिए बहुधा संकेतों को पढने के दौरान मैंने कभी भी इस तरह का घटनाक्रम नहीं देखा है।
राजीव गाँधी (किसी भी समय मोदी की अपेक्षा) अधिक लोकप्रिय थे और तकरीबन अपने शुरुआती 18 महीनों में कुछ भी गलत नहीं किया था। उनका पतन विपत्तिपूर्ण था। सीधे शब्दों में कहें तो उन शुरुआती 18 महीनों में राजीव जो कुछ भी कहते वह हमारी माताओं की आँखों में पानी ले आता। 19 वें महीने से उन्होंने जो कुछ भी कहा वह हमारे बच्चों को हंसा देता। बस इतना ही लम्बा समय लगा एक रॉकस्टार प्रधानमंत्री को एक मजाक बनने में। इस अत्यंत सम्बद्ध और अधीर समय में हनीमून की अवधि तर्कसंगत रूप से कम होनी चाहिए। क्या नरेन्द्र मोदी इस सार्वभौमिक तथ्य से प्रतिरक्षित हैं?
हो सकता है कि मेरे इस तर्क के लिए मुझे गालियाँ पड़ें, यहाँ एक सवाल है कि भारत के न्यायधीश, राष्ट्रपति, चुनाव आयोग और पत्रकार सभी मतदान करते हैं। क्या आप अपने मतदान की वरीयताओं को आपके निर्णय में भ्रम पैदा करने देंगे।
अगला सवाल मेरी टाइमिंग पर होगा। क्या हम यह कह सकते हैं कि कर्नाटक में बहुमत के लिए मोदी अपनी पार्टी का नेतृत्व करने में असफल रहे और इससे कुछ महीने पहले वह अपने गृह राज्य में एक संकीर्ण बहुमत ही जुटा पाए। क्या यह ऐसा नहीं दर्शाता कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता घट रही है? जवाब हैं, हाँ। भाजपा की लोकप्रियता में कुछ गिरावट हुई है, लेकिन प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में नहीं।
गुजरात और अब कर्नाटक दोनों में सर्वसम्मति यह है कि भाजपा यहाँ प्रभावी नहीं थी जब तक कि मोदी ने यहाँ कदम नहीं रखा। गुजरात में उनकी पार्टी ने 8 अतिरिक्त सीटों के साथ बहुमत सुरक्षित किया और कर्नाटक में इतनी ही सीटों के साथ बहुमत से कम रह गयी। कर्नाटक में अधिकांश ओपिनियन पोल ने कांग्रेस को 5 प्रतिशत मतों के साथ आगे दिखाया था, लेकिन यह मौसम ही ओपिनियन पोल्स को ठेंगा दिखाने का है, हालाँकि, ये सर्वेक्षण मोदी के मैदान में कदम रखने से पहले किये गये थे।
कल्पना कीजिये कि अंतिम चरणों में उनके जोर के बिना परिणाम क्या होता? उनकी पार्टी दोनों राज्यों में हारने के लिए पर्याप्त अलोकप्रिय थी। वह फिर भी इन राज्यों को स्वयं जीतने के लिए पर्याप्त लोकप्रिय हैं। इन दोनों राज्यों में उनके क्षेत्रीय नेता एक बोझ थे। विजय रुपानी की गिनती ही मत कीजिये? यदियुरप्पा वृद्ध हैं, तुनकमिज़ाज़ हैं, भ्रष्टाचार के बोझ तले दबे हैं, एक एकलजातीय नेता हैं और यह ख़त्म हो गये होते यदि मोदी ने 21 रैलियां नहीं की होतीं। उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में मोदी ने खुद के लिए वोट मांगा। राहुल गाँधी यूपी और गुजरात में मोदी खिलाफ और कर्नाटक में सिद्धारमैया के खिलाफ वोट चाहते थे। यह प्रयास नामुमकिन था।
क्या कोई नेता अपनी छवि को अपनी खुद की पार्टी की छवि से भी ज्यादा मजबूत कर सकता है और अपने आप को दोस्त-दुश्मन के स्तर से ऊपर उठा सकता है? तथ्य हमारे सामने हैं। हम जानते हैं कि अर्थव्यवस्था ने उनके शासन में संघर्ष किया है, नौकरियों में वृद्धि संकटपूर्ण है, रणनीतिक स्थिति ख़राब हो गयी है विशेष रूप से पड़ोस में, सामाजिक एकजुटता खतरनाक तनावों का सामना कर रही है और बहुत सारे लोग तकलीफ महसूस कर रहे हैं।
फिर भी, बहुत सारे लोग उन्हें वोट करते रहते हैं भले ही उनके अग्रणी व्यक्ति फिसड्डी हों। वे तब क्या करेंगे जब अगले साल मोदी खुद एक अग्रणी व्यक्ति होंगे।यह कैसे संभव है?, यह वो सवाल है जो मेरे दिमाग में बैठा रहा, जब तक कि एक विशेष पल का आविर्भाव नहीं हुआ यानि कि शिराहट्टी के बेलवेदर निर्वाचन क्षेत्र और जनपदीय शहर गडग के मध्य एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज के बाहर अपने घर जाने के लिए गाँव जाने वाली बस का इंतजार कर रही युवा छात्राओं से मैंने वार्तालाप किया।
वे पहले साल के दूसरे सेमेस्टर की छात्राएं थीं अतः लगभग 18 साल की रही होंगी और इस साल या अगले साल अपना पहला वोट डालेंगी। वार्तालापों में ऐसे चित्तग्राही जवाब आये, कि मैंने इन्हें वीडियो में रिकॉर्ड कर लिया। प्रत्येक ने कहा वह भाजपा को वोट देंगी, “लेकिन सिर्फ मोदी की वजह से”। क्यों? क्योंकि स्वच्छ भारत अभियान कारगर रहा, यहाँ तक कि मेरा गाँव भी 75% साफ़ है, हम डिजिटल भारत की तरफ बढ़ रहे हैं, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व में भारत की छवि को सुधारा है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि “भ्रष्टाचार ख़त्म हो चुका है”। अब उनसे बहस करने का कोई मतलब नहीं बनता क्योंकि उन्हें विश्वास है कि यही सच है। वे राहुल गाँधी के बारे में क्या सोचती हैं? लड़की ने कहा, “एक अच्छे व्यक्ति होने चाहिए, लेकिन मुझे वास्तव में पता नहीं है”, इसलिए यह ऐसा बिलकुल नहीं है कि मैं मोदी को पसंद करती हूँ और राहुल को नापसंद, मैं एक नेता के रूप में केवल मोदी को जानती हूँ और मोदी का सिर्फ सन्देश है जो मैंने सुना है।
मैंने 2014 के चुनावों के बाद लिखा था कि यह युवा, नया गैर-वैचारिक, तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं है, वाला भारत है। इस भारत में राजवंशों को लेकर कोई सहानुभूति नहीं है, चाहे उन्होंने कितने भी त्याग किये हों। उन मस्तिष्कों में मोदी ही केवल एक नेता हैं। वे किसी और को नहीं जानते। कर्नाटक, गुजरात और उत्तरप्रदेश भर में हुआ वार्तालाप इस अखिल राष्ट्रीय अद्भुत घटना की पुष्टि करता है। प्रौढ़ लोग अभी भी ध्रुवीकृत हैं और अधिकांश ने पुरानी वफ़ादारी में बदलाव नहीं किया है। यही कारण है कि मोदी के प्रतिद्वंदियों को अब भी बड़ी संख्या में वोट मिलते हैं। लेकिन युवा अब अलग चुनावी जनसांख्यिकी हैं। उनमें से 14 करोड़ युवा अगले साल मतदान करेंगे। उनमें विभाजन होंगे लेकिन अब उनकी निष्ठा व्यापक रूप से एक नए एकेश्वरवाद यानि कि ‘मोदीवाद’ के लिए है।
मोदी यहां कैसे पहुंचे? उन्होंने सन्देश देने का एक उत्तम मार्ग निकाला है जहाँ वह आपके लिए कुछ अच्छी चीजें निर्धारित करते हैं जैसे – स्वच्छता, ईमानदारी, शिक्षा, प्रौद्योगिकी का उपयोग, लेकिन वह ये सब करने का दायित्व आप के ही कन्धों पर रख देते हैं और खुद के लिए लक्ष्य निर्धारित नहीं करते, जिससे कि आप उनके खिलाफ कोई राय ना बना सकें। तो आपको साफ सफाई करनी है, डिजिटल नगदी का इस्तेमाल करना है, स्मार्टफोन का इस्तेमाल करना सीखना है। वह किसी भी असफलता पर चुप रहते हैं। वह कठुआ पर नहीं बोलेंगे लेकिन बाद में आम तौर पर “बेटियों” को बचाने और “बेटों” को सुधारने की आवश्यकता पर बात करेंगे। वह ऊना (गुजरात) पर बात नहीं करेंगे लेकिन बाद में गहरी वेदना में कहेंगे – मुझे मारो, मेरे दलित भाइयों को नहीं। यह उन्हें बुरी खबर से दूर करता है। वह कभी भी रक्षात्मक स्तर पर नहीं होते, वह हमेशा ही उच्च मनोबल के स्तर पर होते हैं।
जवाबदेह होने के बजाय वह अपने चारों ओर एक वातावरण बना रहे हैं। यहाँ तक कि विमुद्रीकरण, एक निर्णय जो उतना ही विनाशकारी और तर्कहीन था जितना चीन की चिड़ियों पर माओ का युद्ध। सरलता से उनका सन्देश सदैव ये रहा है: मुझे पता है कि इससे आपको दर्द होता है, लेकिन क्या आप भारत को एक बेहतर देश बनाने के लिए थोड़ा सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते? यह बाइबिल के तर्क की तरह है कि आपकी पीड़ा से पता चलता है कि ईश्वर है और आपको उसकी आवश्यकता है। निश्चित रूप से, हर कोई इससे सहमत नहीं होता है। लेकिन पर्याप्त लोग सहमत होते हैं और बहुत युवा लड़के/लड़कियां, जो अभी तक नौकरी के बाजार में नहीं हैं, इसे पसंद करते हैं।
मोदी हमारे लोकतांत्रिक इतिहास में सबसे ज्यादा ध्रुवीकरणकारी व्यक्ति हैं। जो लोग उनका विरोध करते हैं, नफरत करते हैं, वे मेरे तर्क से भी घृणा कर सकते हैं। लेकिन वास्तविकता को स्वीकार करना और फिर इसका मुकाबला करने के लिए तरीके खोजना ही राजनीति है। या आप घातक रूप से असावधान हो सकते हैं कि भाजपा गुजरात और कर्नाटक की तरह 2019 में भी संघर्ष करेगी।
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