एक कहानी कि कैसे दो तार्किक प्रतिद्वंदियों ने षडयंत्र रचते हुए आपस में ये सुनिश्चित किया कि एक महत्वपूर्ण कहानी का सफल प्रकाशन बाधित नहीं होना चाहिए.
राजनीति के अलावा, पिछले सप्ताह ‘द पोस्ट’ फिल्म की चर्चा होती रही कि कैसे द वाशिंगटन पोस्ट और इसके महान संपादक-प्रकाशक (जैसा कि अमेरिकी लोग, अख़बार के मालिकों के बारे में कहते हैं) बेंजामिन ब्राडली और कैथरीन ग्राहम की जोड़ी ने इतिहास रचा और कैसे साहसिक पत्रकारिता के नए मापदंड स्थापित किये. ये कहानी पहले भी कई बार किताबों में (ग्राहम और ब्राडली दोनों ने उत्कृष्ट आत्मकथाएं लिखी हैं और ‘आल द प्रेसिडेंट्स मेन’ नामक किताब भी लिखी गयी है) बताई जा चुकी है. आप इसे जितना ही सुन लें, पढ़ लें, देख लें, कम ही लगता है. वाटरगेट और पेंटागन पेपर्स पत्रकारिता के साहस के सुनहरे मापदण्ड रहे. पत्रकारों की पीढ़ियों ने उनसे प्रेरणा ली है.
चूंकि पर्याप्त समय बीत चुका है तो मैं अब कुछ विस्तार से बात कर सकता हूँ कि कैसे पेंटागन पेपर्स, हमारे द्वारा 2006 की सर्दियों में द इंडियन एक्सप्रेस के लिए किये गए असामान्य कार्य के लिए एक प्रेरणा बन गया था. या यहाँ तक कि कुछ रहस्यों से पर्दा उठाने के जोखिम के साथ ये बता सकता हूँ कि उस समय द इंडियन एक्सप्रेस और द हिन्दू दोनों के बीच क्या हुआ था. ये दोनों पेपर्स एक दूसरे के महत्वपूर्ण बाजारों के प्रत्यक्ष प्रतिद्वंदी तो नहीं थे लेकिन विचारों और दर्शन के अपने अधिकार क्षेत्र, विशेषतयः आर्थिक और रणनीतिक नीतियों के विषय में, परस्पर प्रतिस्पर्धा में थे.
न्यू यॉर्क टाइम्स के बाद की स्थिति की तुलना करना उचित नहीं होगा इसलिए अभी वहां तक नहीं जाते हैं. हमने अपने आप को ये कहने से रोका था कि इन दोनों समाचार पत्रों का दार्शनिक, वैचारिक और इसलिए सम्पादकीय वैश्विक दृष्टिकोण, द पोस्ट और न्यू यॉर्क टाइम्स से भिन्न, काफी विपरीत था, दोनों की ही जड़ें अमेरिकी उदारवादी क्षेत्र से निकली थीं. एन. राम के संपादकत्व के अंतर्गत द हिन्दू, आर्थिक और रणनीतिक मद्दों पर वामपंथ की तरफ झुक गया था और हम दक्षिणपंथ की तरफ. दोनों ही सामाजिक रूप से उदारवादी थे.
आज की अत्यंत सरल बातचीत में, यदि मूर्ख न सिद्ध हों तो, आप द हिन्दू को उस समय का वामपंथी उदारवादी ही कहेंगे और द इंडियन एक्सप्रेस में हमें, एक असम्बद्ध उदार स्वप्नलोक की खोज में, जो सामाजिक सन्दर्भों में हो उदार, आर्थिक सन्दर्भों में भी हो उदार परन्तु शीतयुद्ध कालीन विदेशी एवं रणनीतिक नीतियों के भार से मुक्त होने के लिए अधीर रहने वाला कहेंगे.
ये बहुत ही महत्वपूर्ण है कि इस नाटक के पीछे के बुनियादी तथ्यों, जो अब सामने आने वाले हैं, को समझा जाए. वास्तव में ये सिर्फ इसे और नाटकीय ही बनाता है और मैं राम और द हिन्दू के लिए कहूँगा, अत्यंत अधिक श्रेयस्कर! मैं एक और रहस्य बताता हूँ कि इस कहानी में एक और संस्था शामिल थी जिसने इस पूरे सप्ताह में खूब सुर्खियाँ बटोरीं, वो है सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम.
नवम्बर 2006 तक, रितु सरीन, जो न सिर्फ द इंडियन एक्सप्रेस में बल्कि पूरे भारतीय मीडिया में मुख्य खोजी पत्रकार का सम्माननीय तमगा अपने नाम रखती हैं, ने हमारे पहले पन्ने पर दो विस्तृत कहानियों को उजागर किया. ये राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में थीं, जिन्होंने कुछ कॉलेजियम सदस्यों के संदेह-भाव के कारण, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश विजेंदर जैन की पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति पर आपत्ति जताई थी. हर बार मनमोहन सिंह ने उन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश वाई.के. सभरवाल, जिन्होंने जोर देकर कहा था कि नियुक्ति होनी ही चाहिए, से परामर्श लेने के लिए कहा.
कलाम भी दृढ थे. उन्होंने फाइल को तीसरी बार वापस कर दिया. इस बार उन्होंने कुछ ऐसा किया जो अब तक किसी भी राष्ट्रपति ने नहीं किया था और मुझे नहीं पता यदि बाद में भी ऐसा होता रहा हो. उन्होंने अपने संदेहों को दो संक्षिप्त अनुच्छेदों में लिखा. उन्होंने कहा कि परामर्श प्रक्रिया में तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों ने नियुक्ति पर संदेह जताया था. इसके अलावा इस नियुक्ति को आगे बढ़ने के लिए एक न्यायाधीश द्वारा कॉलेजियम का विस्तार किया गया था, जो कि प्रक्रिया के विरुद्ध था। रितु, जिनके चेहरे से ये पता चल रहा था कि इनके पास अनिवार्य रूप से कोई ब्रेकिंग न्यूज़ है, कलाम के लेख के साथ न्यूज़ रूम में दाखिल हुईं. चर्चा होने लगी थी क्यूंकि हम इस पर काम करने लगे थे और फिर सम्बंधित दफ्तरों द्वारा कई सारे सवाल पूछे गए. हम प्रकाशित करने के लिए पूरी तरह से तैयार ही थे कि तभी उथलपुथल मच गयी.
दिल्ली वालों को याद होगा, ये वो साल था जब न्यायमूर्ति जैन की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा स्थापित की गयी एक शक्तिशाली उच्चन्यायालय समिति द्वारा पूरी दिल्ली में बड़े पैमाने पर विध्वंस कराया गया और अवैध, अनियमित या अनुज्ञप्ति के बिना किये गये निर्माणों को सील कर दिया गया. हमारा कार्यालय शहर के दक्षिणी छोर, क़ुतुब औद्योगिक क्षेत्र स्थित दो भवनों में था. इन जमीनों को दानी संस्थाओं और ट्रस्टों को संस्था-विषयक प्रयोजनों हेतु सस्ते में आवंटित कर दिया गया था लेकिन कुछ को बेच दिया गया था, किराये पर दे दिया गया था या कुछ पर निर्धारित सीमा से ज्यादा ऊंचा निर्माण किया गया था. समिति के प्रवर्तनकर्ता 18 नवम्बर की दोपहर को पहुंचे और सात भवनों को सील कर दिया जहाँ स्वामित्व बदल चुका था और फिर उन्होंने हमारे भवनों के साथ भी वही किया. हम अचानक से बेघर हो गये थे.
हालाँकि ये एहसास सबसे बुरा था कि अब हम कलाम के लेख के साथ कहानी को सम्पादित ही नहीं कर सकते थे. एक न्यायधीश के विरुद्ध एक अख़बार कैसे एक कहानी को प्रकाशित कर सकता था, जिसके आदेश की वज़ह से कहानी इसके अपने ही न्यूज़रूम में कैद हो गयी थी? हमने देश के हर बड़े वकील से बात की. उन सबने मामले को समझा लेकिन एक ही सलाह दी कि आप इसे प्रकाशित नहीं कर सकते. इसे प्रतिहिंसा के रूप में देखा जायेगा और ये संभावित रूप से कोर्ट की अवमानना का मामला भी हो सकता है. आखिरकार हम यहाँ थे, हम सच में फुटपाथों और घरों से काम कर रहे थे, ऐसा हिंसक हमला हमपे पहले कभी नहीं हुआ था और हमारे पास एक कहानी थी जिसे हम प्रकाशित नहीं कर सकते थे.
बेंजामिन ब्राडली की ‘ए गुड लाइफ’ के पत्रावरणबद्ध संस्करण की प्रतियों से भरी एक अलमारी मैं अपने पास रखता हूँ, जिन प्रतियों को मैं अक्सर भेंट करता रहता हूँ खासकर युवा पत्रकारों को. उन्हीं में से एक किताब के पन्नों को आधे अधूरे मन से पलटते पलटते मैं पेंटागन पेपर्स के एक उल्लेख पर रुक गया. मैंने और मेरे सहकर्मी ने सोचा कि हमें रास्ता मिल गया था. हमारे पुराने न्यूज़रूम में वापस जाने का रास्ता नहीं बल्कि इस कहानी को सामने लाने का.
मैंने एन. राम को फ़ोन किया और हाल चाल लेने के बाद उनसे पूछा कि क्या आपको याद है कि क्या हुआ था जब एक न्यायाधीश ने न्यू यॉर्क टाइम्स को पेंटागन पेपर्स पर नील शाहीन की एक विशेष खबर को प्रकाशित करने से रोक दिया था? बेशक याद है, उन्होंने कहा, कागजात को वाशिंगटन पोस्ट को दे दिया गया था, जिसने उन्हें प्रकाशित करना शुरू कर दिया था क्यूंकि उस पर रोक नहीं लगायी गयी थी. मैंने कहा, हमारी स्थिति भी इस समय कुछ ऐसी ही है. हम बहुत ही सहजता से तैयार हो गये की अब ये कहानी अप्रकाशित नहीं रहेगी.
राम ने कहा कि वो और मैं इसे दिल्ली में मणिशंकर अय्यर की बेटी यामिनी की शादी के स्वागत भोज, जिसमें वो शरीक होने के लिए आ रहे थे, में अंतिम रूप दे सकते हैं. हम अय्यर के बंगले के लॉन में मिले. मैंने अपनी जैकेट से छपे हुए कागजों का गोल किया हुआ गट्ठर निकाला और उन्हें पकड़ा दिया. पत्रकारिता की जानलेवा दुनियां में ये एक उच्च राजद्रोह की तरह था. लेकिन किसी कहानी को बाहर न लाना सिर्फ इसलिए कि आप इसे प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, एक ज्यादा बड़ा अपराध है अपेक्षाकृत इसके कि इसे अपने ही किसी प्रतिस्पर्धी को दे दिया जाय.
अगली सुबह ये कहानी द हिन्दू के मुख्य प्रष्ठ पर उड़ान भर रही थी. इसके संवाददाता ने इसमें और भी चीजें जोड़ीं, जिसने एक प्रमुख कॉलेजियम न्यायाधीश (गुमनाम) से बातचीत के प्रमुख अंशों को सम्मिलित किया था. भारत के मुख्य न्यायाधीश तब भी न्यायधीश जैन की नियुक्ति के लिए लगातार जोर दे रहे थे. लेकिन वो उनके और कलाम के बीच में था. हमारा नियुक्ति में विघ्न डालने का उद्देश्य कभी भी नहीं था. न ही मुझे ये पता है कि क्या द हिन्दू में उस कहानी के बाद से, सुप्रीम कोर्ट के लिए कॉलेजियम द्वारा चुने जाने वाले विकल्पों पर कोई प्रभाव पड़ा?
हम पर बस एक बहुत ही महत्वपूर्ण और वास्तविक कहानी का जूनून सवार था, जिसपे लिखा था, “Must Publish”(ये प्रकाशित होनी ही चाहिए). इसे प्रकाशित किया गया, ये द हिन्दू और एन. राम के विशाल ह्रदय के लिए एक सम्मान-अर्पण है. यह विचार प्रेरणा के रूप में पेंटागन पेपर्स से आया था.
पोस्टस्क्रिप्ट: दैनिक जागरण पहला भारतीय मीडिया समूह था जो ऍफ़डीआई लेकर आया था. इसमें पहली निवेशक एक आयरिश कंपनी थी. 2007 की शुरुआत में इसने अपने निवेशक बोर्ड को परिचित कराने के लिए दिल्ली में एक पार्टी दी. मैंने दो एकसमान चेहरे पाए. पहला सीन कॉनेरी की तरह दिखता था, और वो था. वह स्वतंत्र आयरिश निवेशकों के बोर्ड में था. मैं दूसरे तक चहलकदमी करते हुए पहुंचा, एक बहुत ही विशिष्ट दिखने वाला वृद्ध व्यक्ति, और मैंने उन्हें बताया, आप बिलकुल बेंजामिन ब्राडली की तरह दिखते हैं. उन्होंने कहा, “मैं ही ब्राडली हूँ मेरे युवा दोस्त”. वो भी बोर्ड के एक सदस्य थे. मैंने उन्हें एक्सप्रेस-हिन्दू कहानी बताई और और ये भी बताया कि कैसे इसे आपके कारनामे से प्रेरणा मिली और उन्हें अगली सुबह के एनडीटीवी के ‘वाक द टॉक’ शो में साक्षात्कार के लिए सहमत कर लिया. भले ही इस चर्चा से कोई भी टीआरपी न मिले लेकिन ये वार्तालाप संजो कर रखने लायक है.