युद्धविराम की घोषणा इस बात की स्वीकृति हो सकती है कि कश्मीर में सुरक्षा एजेंसियों को सक्रिय होने की अनुमति देने की एनएसए डोवाल की रणनीति शायद असफल हो गयी है।
बुधवार को केंद्र द्वारा रमज़ान के मौके पर घोषित एकपक्षीय युद्धविराम (सीज़-फायर) केवल तभी काम करेगा जब सभी हितधारक इसे सफल बनाने में गंभीरता दिखाएंगे। इसमें जम्मू एवं कश्मीर सरकार, उग्रवादी और उनके साथ सहानुभूति दिखाने वाले, सुरक्षा बल, राजनीतिक वर्ग, जम्मू-कश्मीर (विशेष रूप से कश्मीर) के लोग और पाकिस्तान शामिल है, हालांकि पाकिस्तान से कोई उम्मीद नहीं है।
सीधे शब्दों में कहें तो सभी हितधारकों को दृढ़ता से यह याद रखना होगा कि केवल अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लोकप्रिय किए गए शब्द “कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत” ही कश्मीर में फिर से शांति ला सकते है। आज एक शुरुआत की गई है। समय बताएगा कि नरेंद्र मोदी की सरकार का दांव सफल होता है या नहीं।
पिछली बार 19 नवंबर 2000 को वाजपेयी की अध्यक्षता के साथ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान जम्मू एवं कश्मीर में एक तरफा युद्धविराम की घोषणा की थी।
उस समय वाजपेयी ने कहा था, “मुझे आशा है कि हमारी चेष्टा की पूरी तरह से सराहना की जाएगी और राज्य में हो रही सभी प्रकार की हिंसा और सीमा में हो रही घुसपैठ समाप्त हो जाएगी और शांति बनी रहेगी।”
वाजपेयी द्वारा की गई घोषणा सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक और तत्कालीन जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के साथ विस्तृत परामर्श के बाद हुई थी।
ऐसा माना जाता है की अलगाववादी संगठन हिज़बुल मुजाहिद्दीन के पाकिस्तान आधारित नेतृत्व द्वारा एक तरफा युद्धविराम के प्रस्ताव के कारण वाजपेयी ने भी अलगाववादियों से वार्तालाप की पेशकश की थी।
हालाँकि, तब तक हिज़बुल, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे अन्य अलगाववादी समूहों का ह्रदय परिवर्तन हो चुका था इसीलिए उन्होंने युद्धविराम को भारत सरकार की उन्हें ख़त्म कर देने की एक चाल बताई।
वाजपेयी की अपनी ही भाजपा में युद्ध के पक्षधर लोगों समेत सुरक्षा प्रतिष्ठान में बहुत से लोग थे, जो इस निर्णय के आलोचक थे। हालाँकि वे सार्वजनिक रूप से आलोचक नहीं थे। इससे युद्धविराम के समय नागरिक और सैनिकों के हताहत होने की संख्या को कम करने में कोई मदद नहीं मिली।
लेकिन युद्ध विराम को कम से कम तीन बार तक आगे बढ़ाते हुए वाजपेयी अपने निर्णय पर अडिग रहे।
उनका यह दांव रंग लाया और भारत पर पाकिस्तानी धरती से भारत-विरोधी गतिविधियों की जांच करने के लिए पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव पड़ा।
यद्यपि, 2000 में वाजपेयी युग का युद्धविराम सरकार के लिए बहुत सारे सबक सिखाता है कि कैसे कश्मीर को भारत के करीब लाने का यह अवसर न छोड़ा जाए।
सुरक्षा एजेंसियों को अपनी चौकसी कम नहीं करनी चाहिए, बल्कि कश्मीर घाटी में सुरक्षा प्रतिष्ठानों के आस-पास निगरानी में वृद्धि कर देनी चाहिए ताकि मृत्यु की संख्या में वृद्धि का दोहराव न देखना पड़े।
बुधवार की घोषणा को इस तथ्य की स्वीकृति के रूप में भी देखा जा सकता है कि सुरक्षा एजेंसियों को कश्मीर में सक्रिय होने की अनुमति देने की रणनीति शायद असफल हो गयी है, भले ही मौतों की संख्या में वृद्धि हुई हो। यह रणनीति राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल के दिमाग की उपज थी।
अन्यथा, इस तथ्य को क्या स्पष्ट कर सकता है कि पिछले दशक की इसी अवधि की तुलना में इस साल अब तक जम्मू कश्मीर में अधिक नागरिक, अलगाववादी और सुरक्षा कर्मी बल के लोग मारे जा चुके हैं?
हाल ही में पत्थर फेकने के कारण हुई एक पर्यटक की हत्या ने भी एक स्पष्ट सन्देश दिया है कि इस तरह की घटनाओ को राज्य में आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
हालाँकि युद्ध विराम की घोषणा का तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक कि भारत अपने मित्र राष्ट्रों को पाकिस्तान पर वार्तालाप हेतु समान चेष्टा से दबाव बनाने के लिये अपने पक्ष में नहीं ले लेता।
जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली पीडीपी-बीजेपी सरकार को अंततः अत्यधिक किलाबंद सिविल सचिवालय से बाहर निकलना होगा और युवा लोगों के साथ जुड़ना होगा जो कि स्कूल और कालेज़ों में उपस्थित रहने की बजाय प्रायः पत्थर फेंकते हुए देखे जाते हैं।
युद्धविराम असफल साबित होगा जब तक की जम्मू-कश्मीर के लोग यह महसूस करना शुरू नहीं करते हैं कि यह उनकी अपनी सरकार है, और यह कि सरकार उन्हें सुनने के लिए तैयार है, उनसे मिलने के लिये तैयार है और प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से केवल लम्बे दावे नहीं कर रही है जो कि तथाकथित विकास के बारे में हैं और जमीनी स्तर पर दिखाई नहीं दे रहें हैं।
बीजेपी की जम्मू-कश्मीर की इकाई, जिसमें जितेंद्र सिंह जैसे लोग शामिल हैं, जो केंद्र सरकार का हिस्सा हैं लेकिन महबूबा की युद्धविराम की मांग का विरोध किया था, को भी इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि युद्धविराम एक बहुत ही आवश्यक वास्तविकता है और इसे सफल बनाने के लिये सारे प्रयास करने होंगें।
कश्मीर के लोगों का भी यह कर्तव्य है कि वे इस शान्ति प्रस्ताव को स्वीकार करें और यह दिखाएँ कि वे भी शांति के साथ रहना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी, वाजपेई नहीं है और ना ही वह उतना धैर्य दिखा सकते हैं यदि कश्मीरियों द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार किया गया।