मोदी सरकार ने शुल्कों को बढ़ाकर घरेलू बाजार को संरक्षण देने पर हाल में जो जोर दिया है उससे निर्यातकों को मदद नहीं मिलने वाली है.
छह-सात साल पहले 2011-12 में भारतीय सामान का निर्यात कुल करीब 249 अरब डाॅलर मूल्य के बराबर था. इस सामान में तेल और कोयला शामिल नहीं थे क्योंकि उनकी कीमतों में भारी उलटफेर होती रहती थी, जिससे तस्वीर गड़बड़ा जाती थी. इसके पांच साल बाद 2016-17 में यह आंकड़ा बेहद मामूली परिवर्तन के साथ 243 अरब डॉलर था. इस बीच यह आंकड़ा अपने उच्चतम स्तर 253 अरब डॉलर पर 2014-15 में पहुंचा था. उसके बाद का आधा दशक भारतीय निर्यातकों के लिए बुरा रहा है मगर आर्थिक स्थिति पर होने वाले विमर्शों में इस विषय पर शायद ही कोई चर्चा हुई है. अंततः चालू वर्ष में कुछ बदलाव के आसार दिख रहे हैं और हाल के महीनों में निर्यातों में थोड़ी वृद्धि नजर आ रही है.
लेकिन पूरे साल के लिए 10 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि होती नहीं दिख रही है. पांच साल तक सपाट रहे हालात के बाद इसे बेहद मामूली तेजी ही कहा जाएगा. इन पांच वर्षों में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में, डॉलर की चालू दर के मुताबिक, 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. अर्थव्यवस्था के कुल आकार के हिसाब से देखें तो खनिज ईंधनों को छोड़कर बाकी चीजों का निर्यात 13.7 प्रतिशत से घटकर 10.7 प्रतिशत पर पहुंच गया है. यानी गति स्पष्ट तौर पर उलट गई है.
इस अवधि की सबसे मार्के की बात यह है कि स्थिति पिछली अवधि की स्थिति से बिलकुल अलग है. नब्बे वाले दशक में खनिज ईंधनों को छोड़कर बाकी चीजों के निर्यात में प्रशंसनीय 140 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी. इसके बाद का दशक इससे भी बेहतर था और यह आंकड़ा 397 प्रतिशत था. निर्यातों का मूल्य 4.2 करोड़ डॉलर से बढ़कर 20.9 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया था (बेशक खनिज ईंधनों को छोड़कर). जीडीपी के अनुपात में भी निर्यातों का प्रतिशत काफी तेजी से बढ़ा था क्योंकि भारत पिछले करीब पचास वर्षों के मुकाबले ज्यादा व्यापारिक देश के रूप में उभरा था.
ये रुझान बेशक विश्व अर्थव्यवस्था और विश्व व्यापार की हालत से जुड़े हैं. निर्यात में सबसे ज्यादा तेजी उन्हीं वर्षों में आई जिनमें विश्व अर्थव्यवस्था बुलंदी पर थी. हाल के वर्षों में वैश्विक वृद्धि वापस 3.5 प्रतिशत की उसी सामान्य दर पर पहुंच गई है. 2014 तक यह गति धीमी ही थी. 2015 और 2016 में उल्लेखनीय गिरावट आई मगर उसके बाद सुधार आया है. लेकिन यह सुधार भारत के व्यापार में भी नहीं आया. फिर से यह कहने की जरूरत नहीं कि निर्यात में तेज वृद्धि ही तेज आर्थिक वृद्धि का आधार होती है. हाल के वर्षों में निर्यात में गिरावट भी निश्चित तौर पर एक वजह है कि आम आर्थिक वृद्धि गति नहीं पकड़ रही है.
भारत के कमजोर निर्यातों के लिए आम तौर पर परिवहन की खराब व्यवस्था, वित्त की ऊंची लागत, बिजली की कमी, व्यापार करने में अड़चनों आदि को जिम्मेदार ठहराया जाता है. लेकिन पांच वर्षों तक गतिरोध बने रहने के लिए केवल इन्हें ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि ये कारण तो पहले भी मौजूद थे. बल्कि बिजली और परिवहन की व्यवस्थाओं में सुधार ही हुआ है. बिजली और बंदरगाहों की उपलब्धता बढ़ी है जबकि राजमार्गों की हालत में सुधार हुआ है. अगर किसी बदलाव की पहचान की जा सकती है तो वह है भारतीय मुद्रा रुपये का विदेशों में मूल्य, जो इतना ज्यादा है कि उसे निर्यातकों के लिए कष्टकारक माना जाता है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि रुपया 2011 में ज्यादा खर्चीला था (एक अमेरिकी डॉलर 45 रु. में आता था), 2012 और 2013 में यह और खर्चीला होकर 65 पर पहुंच गया और 2014 में थोड़ा महंगा होकर 60 पर आया लेकिन फिर 65 पर पहुंच गया. निर्यातकों को आज अगर महंगी मुद्रा से कारोबार करना पड़ रहा है, तो वे निर्यात में वृद्धि वाले दौर में हुकुम के पत्ते से खेल रहे थे.
अगर निर्यात में गिरावट की असली वजह कुछ है तो अभी कोई भी उसका पता नहीं लगा पाया है. अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े मसलों में कुछ जवाब मिल सकता है लेकिन पूरी तस्वीर शायद ही मिलेगी. शायद सीधी सी बात यह है कि भारतीय निर्यातक खरीदारों से मोलभाव करने की मजबूत स्थिति में नहीं हैं इसलिए व्यापार जब मंदा होता है तो उनकी हालत खराब हो जाती है. वजह जो भी हो, भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि सरकार ने शुल्कों को बढ़ाकर घरेलू बाजार को संरक्षण देने पर हाल में जो जोर दिया है उससे निर्यातकों को मदद नहीं मिलने वाली है. अब यह देखने वाली बात होगी कि इससे आयातों को घटाने में मद किलती है या नहीं. ऐसा होता है तब भी यह अर्थव्यवस्था को ऊंची लागत वाली उत्पादन व्यवस्था की ओर धकेल देगा, और इससे भी निर्यातों को बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी.
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