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Monday, 6 May, 2024
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अन्य पिछड़े वर्गों पर नहीं उपलब्ध सटीक डाटा, शुरू होनी चाहिए 2021 की जनगणना

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पिछले महीने के दौरान जाति जनगणना के मुद्दे पर अन्य पिछड़े वर्गों को संगठित करने के लिए महाराष्ट्र में एक राज्यव्यापी रैली और एक सम्मलेन आयोजित किया गया।

मंडल आयोग द्वारा गृह मंत्रालय को जाति आधारित जनगणना के कार्य का दायित्व लेने के लिए असफल रूप से कहे जाने के चार दशक बाद उसी प्रकार की मांगे पुनः उठ रही हैं क्योंकि 2021 की जनगणना का संचालन शुरू होने वाला है।

भूतपूर्व सांसद और राष्ट्रीय बंजारा क्रांति दल के अध्यक्ष हरिभाऊ राठौड़ ने पिछले महीने के दौरान संवैधानिक न्याय रैली नामक एक महीने लम्बी राज्यव्यापी यात्रा का आयोजन किया और जाति जनगणना के मुद्दे पर अन्य पिछड़े वर्गों को संगठित करने के लिए महाराष्ट्र के सभी जनपदों की यात्रा की।

जातियों पर डेटा एकत्र किया जाना भारत की पहले दशक की जनगणना के साथ ही शुरू हो गया था जिसे 1872 में ब्रिटिश राज के तहत पूरा किया गया था। इस जनगणना में, भारत भर में 3,208 जातियों की पहचान की गई। औपनिवेशिक सरकार ने 1931 की जनगणना तक जातियों से संबंधित जानकारी एकत्रित करना जारी रखा, लेकिन बाद की जनगणनाओं में इस अभ्यास का पालन नहीं किया गया।

भारत की स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर जाति सम्बंधित डेटा, 1951 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पहली जनगणना से नियमित रूप से एकत्र किया जाता रहा है। इसलिए, हम जनसँख्या में उनकी हिस्सेदारी के सटीक प्रतिशत को जानते हैं – जैसा कि 2011 कि जनगणना के अनुसार यह प्रतिशत अनुसूचित जाति के लिए 16.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 8.6 प्रतिशत है। लेकिन सरकार ने शेष जनसँख्या के जाति के आंकड़ों को इकठ्ठा करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

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2011 के आस पास जनगणना में जाति का कॉलम शामिल करने की मांग उच्च स्तर तक पहुँच गयी थी। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, छगन भुजबल और गोपीनाथ मुंडे जैसे ओबीसी नेता इसके समर्थन में थे। संसद में और संसद से बाहर सवाल उठाये गए और केंद्र सरकार को मांग से सहमत होना पड़ा। हालाँकि जाति के आंकड़े सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) नामक एक अलग जनगणना के तहत एकत्र किए गए थे। 2015 में एसईसीसी डेटा आंशिक रूप से जारी किया गया था, लेकिन सरकार ने जनगणना में जाति के डेटा को रोक दिया है। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने हाल ही में इस डेटा को जारी करने की मांग की है।

अलग सर्वेक्षण, अलग आंकड़े

जातियों की गणना करने का प्राथमिक महत्व यह है कि यह हमें भारत में विभिन्न जाति समूहों के बारे निष्पक्ष रूप से सटीक जनसांख्यिकीय डेटा प्रदान करेगी। अभी, हमारे पास ओबीसी की आबादी के लिए सटीक आंकड़ा नहीं है। अलग-अलग सर्वेक्षणों ने अलग-अलग संख्याओं का आंकड़ा दिया है।

ओबीसी समूह का मानना है इसे मिलने वाला 27 प्रतिशत आरक्षण इसकी आबादी के आंकड़ों की तुलना में अपर्याप्त है, जिसे मंडल आयोग 1931 की जनगणना के आंकड़ों के बाद अनुमानित रूप से 52 प्रतिशत तक ले गया था।

राठौड़ का कहना है: “ओबीसी आबादी के जाति-आधारित डेटा को जानना, उनके लिए नीतियां तैयार करने, कल्याणकारी योजनाओं और उत्थान के नए उपाय तैयार करने के लिए महत्वपूर्ण है। हमारी मांग सार्वभौमिक जाति गणना के लिए है। लेकिन अगर यह सरकार को स्वीकार्य नहीं है, तो कम से कम ओबीसी जनगणना की जानी चाहिए।

ब्राह्मण, बनिया और अन्य गैर-आरक्षित श्रेणी के जाति समूहों के लिए भी प्रतिशत संख्याएं अस्पष्ट हैं। यह उस प्रभुत्व क्षेत्र को अनुभवतः सिद्ध करने के लिए मुश्किल बनाता है कि ब्राह्मण और अन्य द्विज जातियां देश में अधिक धन और ताकत रखती हैं।

बेहतर सॉफ्टवेयर और विशेषज्ञ की सलाह मदद कर सकती है

हालाँकि जनगणना में जाति का कॉलम शामिल करने के खिलाफ दो मुख्य तर्क हैं – एक क्रियान्वन सम्बन्धी और दूसरा विचारधारात्मक।

क्रियान्वन सम्बन्धी तर्क यह है; कि जाति के आंकड़ों को मिलाना व्यावहारिक रूप से असंभव है जो प्राप्त होने वाली जाति प्रविष्टियों की संख्या पर विचार करते हुए जनगणना में एकत्र किये जायेंगे; कि जनगणना करने वाले लोग जाति की जटिलताओं को सँभालने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य नहीं हैं; कि वहां बहुत सारी गलत प्रविष्टियाँ होंगी क्योंकि अलग-अलग लोग “आपकी जाति क्या है” के सवाल को अलग अलग तरीके से समझ सकते हैं; और यह कि जाति डेटा के निष्पक्ष रूप से विश्लेषण के लिए कोई भी तंत्र मौजूद नहीं है।

वैचारिक तर्क यह है कि जनगणना जाति की पहचान को मजबूत करेगी, जो कि जातियों के उन्मूलन के लक्ष्य के खिलाफ जाती है।

क्रियान्वन सम्बन्धी कठिनाइयों को एसईसीसी डेटा के साथ पहले से ही महसूस किया जा रहा है, जैसा कि हिंदुस्तान टाइम्स की इस रिपोर्ट के मुताबिक जो कहती है कि “जनगणना गणनाकर्ताओं ने 330 मिलियन परिवारों की गिनती कर ली थी, जिसमें उन्होंने 4.6 मिलियन प्रविष्टियों के साथ कार्य समाप्त कर दिया था। इसे भी एक कारण बताया गया कि क्यों सरकार अब तक एसईसीसी डेटा के जाति वाले भाग को जारी करने में असमर्थ रही है।

जबकि निश्चित रूप से इस कार्य की प्रकृति चुनौतीपूर्ण है लेकिन ये कठिनाइयाँ अजेय नहीं हैं। बेहतर सॉफ्टवेयर और विशषज्ञों के नियोजन से डेटा को श्रेणीबद्ध करना एक प्राप्य कार्य होना चाहिए। इन क्रियान्वन सम्बन्धी कठिनाइयों के पूर्वानुमान से डेटा के संग्रहण को रोकने का कोई मतलब नहीं है। इस डेटा को कैसे प्रोसेस किया जाए ये बाद में तय किया जा सकता है। इसके अलावा, एक के बाद एक जनगणनाओं के होने के साथ साथ प्रणाली को निपुण किया जा सकता है। 2021 जनगणना को जाति से सम्बंधित जनसांख्यिकीय डेटा के लिए अंतिम नियोग के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।

यह तर्क, कि जातिगत गणना जातियों को कठोर बनाएगी, अविश्वसनीय है। यद्यपि जाति एक संगठित शक्ति के रूप में राजनीति में बढ़ी हुई भूमिका निभा रही है लेकिन ये संगठन बहु-जातीय समूहों जैसे कि दलित, पासमंद, ओबीसी इत्यादि के आस पास जन्म ले रहे हैं। जब बहु-जातीय गठबंधन अपनी साझा मांगों के लिए एक छतरी के नीचे आते हैं तब जाति व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती होती है। यह जाति व्यवस्था के उस तर्क की निंदा करता है जो कहता है कि अन्तर्निहित श्रेष्ठता/निम्नता के कारण कोई भी दो जातियां एकजुटता की भावना साझा नहीं कर सकती हैं।

एकल जाति, एकल संगठन वाली संख्यात्मक रूप से मजबूत जातियां जैसे मराठा, जाट, पटेल, गुज्जर इत्यादि लगातार बनी रहेंगी चाहें जाति गणना हो या न हो। वे अपनी बड़ी आबादी के कारण सरकार और सार्वजनिक नीतियों पर दबाव बनाते हैं। जाति गणना वास्तव में उनके हवाई संख्याओं वाले दावों की हवा निकालने में मदद कर सकती है। हालाँकि छोटी जातियां, जिनके पास संख्याबल और संगठनात्मक साधन नहीं है, के पास दूसरी जातियों के साथ गठजोड़ के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता जो उन्हें खतरनाक अक्खड़ जातियों के विरुद्ध खड़ा करता है।

तेजस हरड एक सामाजिक टिप्पणीकार हैं और आर्थिक और  Economic and Political Weekly में कॉपी एडिटर के रूप में काम करते हैं।

Read in English: There’s no accurate data on Other Backward Classes. 2021 census should start counting

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