आम धारणा के विपरीत, प्रधानमंत्री मोदी के बजट की असली समस्या टैक्सों के चलते नहीं है बल्कि सरकारी निवेशों पर खराब लाभ के कारण है.
अगर सरकार को उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त बजट बनाना है जिन्हें जरूरत से कम पैसा दिया गया है, तो उसे टैक्सो से होने वाली कमाई के, जो हाल के वर्षों में काफी बढ़ी है, इतर देखना हगा. नरेंद्र मोदी सरकार के पांच बजटों के मूल में एक विरोधाभास नजर आता है. करदाताओं की बढ़ती संख्या टैक्सों के रूप में अच्छी-खासी रकम उगल रही है लेकिन सरकारी खर्चों में मामूली वृद्धि ही हुई है और यह अर्थव्यवस्था की वृद्धि के साथ कदम मिलाकर नहीं चल रही है. इसका नतीजा यह है कि सरकार के प्रमुख कार्यक्रम पर खर्चे मुद्रास्फीति दर के हिसाब से नहीं बढ़े हैं. मोदी के बजट की असली समस्या टैक्सों के चलते नहीं है बल्कि सरकारी निवेशों से खराब लाभ के कारण है. जी हां, सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेशों से.
जरा आंकड़ों पर गौंर करें. मोदी के पिछले बजट में आयकर से उगाही में, मनमोहन सिंह के बजट में हुई उगाही के मुकाबले 118 प्रतिशत की वृद्धि, और कुल कर राजस्व में दोगुना वृद्धि का अनुमान है. दोनों ने अर्थव्यवस्था में वृद्धि को, जो इन पांच वर्षों में अंकित मूल्य (यानी वास्तविक वृद्धि और मुद्रास्फीति का योग) के मुताबिक 67 प्रतिशत होने की उम्मीद है, बहुत पीछे छोड़ दिया है.
टैक्सों से हुई कमाई का राज्यों के बीच जो बंटवारा होता है उसमें पिछले पांच वर्षों में 145 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी होने की उम्मीद है. इस वजह से केद्र का कुल कर राजस्व काफी धीमी गति से बढ़ता है. फिर भी इसमें अच्छी-खासी 81 प्रतिशत की उछाल की संभावना है. यह आंकड़ा छोटा है फिर भी केंद्र सरकार के खर्चे में मात्र 57 प्रतिशत की वृद्धि का ही अनुमान है, जो कि इस अवधि में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 67 प्रतिशत की वृद्धि के मुकाबले धीमा ही है. टैक्सों से काफी पैसा इकट्ठा किया जा रहा है लेकिन बढ़ती अर्थव्यवस्था की तुलना में सरकार सिकुड़ती जा रही है.
समस्या उन कई मदों के कारण है, जिन्हें करों से इतर तथा पूंजीगत आमद के रूप में दर्ज किया गया है, और जिनमें पांच वर्षों के भीतर मात्र 20 प्रतिशत की वृद्धि की उम्मीद की जा रही है. इस ग्रुप के मुख्य मदों में ये शामिल हैं- सरकार द्वारा जारी कर्जों पर ब्याज, विनिवेशों से और टेलिकॉम कंपनियों के रेडियो स्पेक्ट्रम की बिक्री से होने वाली आय, सरकारी कंपनियों द्वारा लाभांश के भुगतान, और घाटे को पूरा करने के लिए लिये गए उधार. इनमें जो अंतिम मद है उसी के सिकुड़ने की उम्मीद है, जबकि राजस्व के लिए स्पेक्ट्रम को दुहने की गुंजाइश अब खत्म हो चली है.
अगर सरकार शिक्षा जैसे क्षेत्रों के लिए, जिन्हें जरूरत से कम पैसा दिया जाता है, उपयुक्त बजट बनाना चाहती है, स्वास्थ्य बीमा सरीखे बहुचर्चित कार्यक्रमों के लिए समुचित प्रावधान करना चाहती है, और इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी प्रमुख बुनियादी सुविधाओं में निवेश को तेजी से बढ़ाना चाहती है तो सरकार की आमदनी में टैक्सों से इतर मदों के हिस्से को बढ़ाना पड़ेगा. फिलहाल स्थिति यह है कि सरकार करीब 85 विभिन्न कार्यक्रमों को ‘प्रमुख’, ‘प्रमुख में भी प्रमुख’ और ‘बड़े’ कार्यक्रम बताती है, जिनमें ग्रामीण रोजगार गारंटी, हाइवे निर्माण, फसल बीमा, स्वच्छ भारत अभियान, शहरी मेट्रो परियोजनाएं शामिल हैं. इन विभिन्न कार्यक्रमों को कुल केंद्रीय बजट का बमुश्किल कुल पांचवां हिस्सा ही मिलता है. बाकी सरकारी व्यवस्था, प्रतिरक्षा, ब्याज भुगतान, सब्सीडियों और पेंशन के मदों में जाता है. इनमें से प्रतिरक्षा और सब्सीडियों पर खर्च में भी हाल के वर्षों में कटौती की गई है.
पिछले करीब पच्चीस वर्षों के दौरान करों में अनियमित सुधारों के कारण एक ऐसा ढांचा तैयार हो गया है, जो व्यापक तौर पर अपेक्षित था. अब कॉरपोरेट टैक्सों में कुछ सुधार बाकी रह गए हैं, जीएसटी की दरों को तर्कसंगत बनाना रह गया है, और पूंजीगत लाभ पर टैक्स को सभी परिसंपत्ति वर्गों के लिए उपयुक्त तौर पर बराबर करना रह गया है. इन्हें चरणबद्ध तरीके से आसानी से किया जा सकता है. मुद्दा यह है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय वाली अर्थव्यवस्था में यही उम्मीद की जाती है कि उसका कर राजस्व जीडीपी के अनुपात में रहे. वास्तव में, यह 2013-14 में 10.1 प्रतिशत से बढ़कर अगल्¨ साल 12.1 प्रतिशत हो गया, जो कि अब तक के अधिकतम स्तर पर था. नोटबंदी और जीएसटी ने इसमें मदद की.
बाकी रह गया असली काम सरकारी परिसंपत्तियों के पूरे पोर्टफोलियों की समीक्षा का है- मुख्यतः कंपनियों, हाइवे और पूरी की जा चुकीं इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और जमीन की समीक्षा. यह काम ज्यादा महत्वाकांक्षी तथा बहुआयामी निजीकरण शुरू करने की दृष्टि से किया जाए, जिसका मकसद सरकारी परिसंपत्तियों का उपयोग करना हो. बिक्री से हुई आमदनी को नई इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं तथा दूसरी परिसपत्तियों पर खर्च किया जाए. जिन परिसंपत्तियों का कामकाज खराब है या जिन्हें आसानी से बेचा जा सकता हो, उनका उपयुक्त दोहन ही प्रमुख कार्यक्रमों के लिए पैसा जुटाने का रास्ता है.
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