scorecardresearch
Tuesday, 26 November, 2024
होममत-विमत'मुंबई में मौत सचमुच जीवन की ‘कई शानदार’ सच्चाइयों में से एक है'

‘मुंबई में मौत सचमुच जीवन की ‘कई शानदार’ सच्चाइयों में से एक है’

Text Size:

कमला मिल में आग जैसी दुखद घटनाएं अधिकारियों के खिलाफ गुस्सा भड़काती हैं. लेकिन कुछ ही समय बाद शहर अगली दुर्घटना होने तक व्यस्त और प्रशासन सुस्त हो जाता है.

मुंबई में संदेहवाद, निरपेक्षता और भाग्यवाद फैलता जा रहा है, जबकि पहले यही शहर ऊर्जावान, स्पंदित और लचीला हुआ करता था. ये भावनाएं निर्बंध हरेक तबके, हरेक वर्ग में ही हैं.

कमला मिल्स के उच्चवर्गीय पब में उस धधकते नर्ककुंड में, अधिकतर युवा और धनी मारे गए, जबकि इसके ठीक तीन महीने पहले ही एक जानलेवा भगदड़ में एलफिंस्टन रोड उपनगरीय स्टेशन पर भी कई मौतें हुई थीं. उसमें भी अधिकतर कामकाजी युवा ही थे. यह स्टेशन भी कमला मिल्स से बहुत नज़दीक है.

अभी पिछले ही महीने दूर उपनगरीय इलाके में नमकीन बनाने की छोटी सी फैक्टरी में आग लगी थी, जिसमें युवा कामगार झुलस कर मर गए थे. उस फैक्टरी में काम करने की स्थितियां सचमुच बेहद त्रासद थीं, पर क्या किसी ने ध्यान दिया? पब की आग में भी, ओड़ीशा से आया एक युवा मजदूर भी मारा गया, पर मीडिया ने शायद उसे ध्यान देने लायक नहीं समझा.

उपनगरीय रेलवे-ट्रैक पर सालाना लगभग चार हज़ार लोगों की मौतें होती हैं, उनमें से अधिकतर कामकाजी वर्ग से हैं. वे ट्रेन से गिरकर मरते हैं, या तो इसलिए क्योंकि कंपार्टमेंट में भयानक भीड़ होती है, या फिर पटरियां पार करते समय ट्रेन से कट जाते हैं.

शहर में लाखों की संख्या में चॉल हैं, पुरानी, जर्जर और कुछ तो बेहद खतरनाक तरीके से बनी हुईं. मॉनसून के महीने में उनमें से कुछ गिर जाते हैं. इसके निवासी — जो अधिकतर निम्न-मध्यवर्गीय या कामकाजी वर्ग के होते हैं –जानते हैं कि इमारत गिरनेवाली है, पर चेतावनी के बावजूद वे अड़े रहते हैं, क्योंकि कहीं और जाने का विकल्प ही उपलब्ध नहीं है.

ये सभी दुर्घटनाएं, जिनमें धनी, मध्यवर्गीय और गरीब मारे गए, सुर्खियों में आती हैं, उसके बाद नगरपालिकाओं और नेताओं के खिलाफ गुस्सा फूटता है, लेकिन जल्द ही शहर फिर से अगली दुर्घटना के होने तक खुद में व्यस्त हो जाता है. बीच-बीच में, मुंबईकरों के मिथकीय और ऐतिहासिक जोश को जगाया जाता है, जिसे ‘स्पिरिट ऑफ मुंबई’ भी कहा जाता है. यह जो लोच है, यह जो संघर्ष का जज्बा है, उसे तो वर्गीय चरित्र से निर्मित इस शहर में शायद वर्गहीन परिघटना के तौर पर प्रत्याशित माना गया है.

न तो बॉलीवुड का ग्लैमर, न ही सेंसेक्स की उछाल और न ही ठाकरेओं की रैली की गर्जना ही मुंबई के जीवन को दिखाती है. इस बाजार के नव-उदारवादी गिरोह की तथाकथित ‘एनिमल स्पिरिट’ बेहद अलग है, उस पशुवत ऊर्जा (एनिमल स्पिरिट) के, जिससे मुंबईकर की ज़िंदगी चलती है. बुहत अधिक भीड़ से ठंसी-फंसी हमारे रेलवे स्टेशन हों या सड़कों पर की अराजकता, यही इसका सही और बदसूरत बयान है. कारों की बढ़ती संख्या (रोज़ाना 700) और घटती हुई सड़कों की चौडाई (उनके गड्ढों की तो बात ही जाने दें) सचमुच कहीं आने-जाने को रोमांचक बनाती हैं.

एक विख्यात डॉक्टर खुले नाले में गिरकर मर गया, दूसरा अंतरराष्ट्रीय स्तर का शतरंज-कोच एक गड्ढे में गिरा और ट्रक से टकराया. मुंबई में मौत सचमुच जीवन की ‘कई शानदार’ सच्चाइयों में से एक है.

एक पूरी तरह संवेदनहीन नौकरशाही, सुस्त प्रशासन, उच्च मध्यवर्ग के अश्लील उपभोक्तावाद, पिछले दशक के वेतन-आयोगों की मेहरबानी, रिहाइश वाले फ्लैट्स के दामों में आकाशीय वृद्धि, एमबीए की डिग्री धारी युवा पीढ़ी जो ‘एनिमल इंस्टिंक्ट” वाली विचारधारा से लैस है और स्त्रियों और पुरुषों में बढ़ते अतिशय-व्यक्तिवाद (जिसे उच्चवर्ग सशक्तिकरण का जामा पहनाता है) ने इस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवधान को बढ़ावा दिया है.

शहर का लंपटीकरण लगभग तीन दशक पहले शुरू हुआ। हालांकि, तब यह स्वयंभू सेनाओं और छिटपुट माफियाओं तक सीमित था.

मोटे तौर पर, मध्य वर्ग (जो सहकारी हाउसिंग सोसाइटी में रहते हैं) ही, जो अपने एक या दो बेडरूम फ्लैट में रहता है, शहर की सांस्कृतिक रीढ़ है. विजय तेंदुलकर, श्याम बेनेगल, किशोरी अमोणकर या कुमार गंधर्व, पृथ्वी थिएटर और नेशनल सेंटर फॉर परफॉरमिंग आर्ट्स, रवींद्र नाट्य मंदिर और शण्मुखानंद हॉल ने ही मुंबई के सौंदर्यात्मक मूल्यों को आकार दिया है.

आजकल बड़े प्रायोजक के बिना कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम संभव नहीं है. जब कोई ठीकठाक कॉरपोरेट स्पांसर नहीं मिलता, तो बिल्डर, कांट्रैक्टर और नव-धनाढ्य वर्ग की बारी आती है, जिनके संपर्क और खाते दुबई से हैं.

मध्यवर्ग महानगरीय और सहिष्णु था, चरित्र में उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष था. हालांकि, उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के उफान के साथ ही बढ़ती आमदनी ने इस मध्यवर्ग में भी लंपट प्रवृत्ति के बीज बो दिए. स्वकेंद्रित जीवन और ह्वाट्सएप, स्मार्टफोन की बढ़ती दखल ने इस उदार, तर्कवादी लेकिन सामाजिक और मधुर मध्यवर्ग को असहिष्णु बना दिया। अब तो  ड्राइंग रूम या डिनर टेबल की बहसें भी मानो टी.वी. न्यूज चैनल पर चल रही बहस का ही आईना बन गयी हैं –तेज़, असंबद्ध, गाली की हद तक सांप्रदायिक और वार्तालाप की जगह एकालाप की प्रबलता वाली.

निस्संदेह, इन गिरावटों की वजह से कमला मिल्स में आग नहीं लगी, और न ही एलफिन्स्टन ब्रिज की भगदड़  हुई. हालांकि, बढ़ती निरपेक्षता और मौद्रिक सुखवाद ने काफी तेजी से मुंबई के जीवंत और बहुरंग चरित्र को बदल दिया है और इस महानगर को आदमखोरों से भरे जंगल में बदल दिया है.

कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार और अर्थशास्त्री हैं.

share & View comments