अधिकारों को लेकर खींच-तान से लेकर,सुर्ख़ियों में रहने और अपनी ही सभा को संभालने की असमर्थता तक -न्यायापालिका अब अपने ही भीतर से खतरे में आ गई है
बासु भट्टाचार्य की 1971 में आई फिल्म “अनुभव” में वैवाहिक जीवन में होने वाले कलह को दिखाया गया था। इस फिल्म में पति की भूमिका निभा रहे संजीव कुमार को एक मेहनती संपादक और तनुजा को उसकी पत्नी के रूप में दर्शाया गया था। लगभग ढाई घंटे की इस फिल्म में दिनेश ठाकुर तनाव और परेशानियों का एक त्रिकोण बना देते हैं और फिर अंत में इस पति-पत्नी के जोड़े के बीच एक नाटकीय अदला-बदली का समय आता है।
तनुजा, संजीव कुमार से पूछती है कि “आप हर किसी की समस्याओं पर हर रोज लेख लिखते हैं, क्या आप हमारे लिए भी एक लेख लिखेंगे?”
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी आजकल कुछ इसी तरह की स्थितियों से दो चार हो रहे हैं। जरा उनको फिल्म के स्थान पर सोच कर देखें। इस सप्ताह इन न्यायाधीशों को बहुत ही दुर्लभ स्पष्टता और आडंबर मुक्त जोश वाला फैसला देते हुए देखा गया है।
नागपुर में न्यायाधीश बी.एच, लोया की मौत पर स्वतंत्र एजेंसी से जाँच की माँग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए,प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यों की खंडपीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने याचिकाकर्ताओं और उनके वकीलों की, सबूतों के अभाव, संपूर्ण न्यायपालिका का मजाक बनाने, गुमराह करने और इसमें गड़बड़ी करने के आरोप को लेकर तीखी आलोचना की।
इस जनहित याचिका के खारिज हो जाने से ऐसा लग रहा है कि इस निर्णय के बाद संपूर्ण न्यायपालिका को वकीलों, विवादित कार्यकर्ताओं, मीडिया और इसी प्रकार की अन्य इकाइयों से बचाने के लिए प्रयास किए गए थे। ऐसा लगता है कि हर कोई न्यायाधीशों से लड़ रहा है और वे भी वापस उन्हीं से लड़ रहे हैं।
तो क्या अब हम अनुभव की तनुजा के रूप में न्यायाधीशों से भी एक बात पूछ सकते हैं: आप दूसरों से न्यायपालिका को बचाने के लिए हर समय निर्णय लिखा करते हैं। तो क्या आप न्यायपालिका को न्यायाधीशों से भी बचाने के लिए भी कुछ लिखेंगे?
इस तर्क को उठाने में मैं बहुत ही सतर्क हूँ और बेहतर तरीके से इसको समझता भी हूँ। क्योंकि न्यायाधीशों ने कहा कि वे न्यायाधीश लोया की मौत से संबंधित वकीलों और याचिकाकर्ताओं को आपराधिक अवमानना से बचाने के लिए काफी कृपालु थे। एक अकेला संपादक बहुत अधिक उदार नहीं हो सकता है। हालांकि तथ्यों को उठाना पड़ता है और उनपर बहस भी करनी पड़ती है
यह निर्णय के गुणदोषों पर चर्चा करने का समय नहीं है। इस पर बहुत अच्छे तर्क व संक्षिप्तता के साथ निर्दिष्ट किया जाना उच्चतम न्यायालय के ज्यादातर हालिया आदेशों में नहीं दिखा है। ध्रुवीकरण के इस समय में, आप इसके बारे में जो करते हैं, ये इस पर भी निर्भर करता है कि आप राजनीतिक या वैचारिक रूप से कहाँ खड़े हैं।पत्रकार बरखा दत्त ने चमचों (चापलूसों) और मोर्चों (कार्यकर्ता मोर्चा) को दो प्रतिद्वंदी ध्रुवों के रूप में टिप्पणीकार की विकट स्थिति को निष्ठुर तरीके से उल्लिखित किया है।इस पर बात करना जोखिम भरा है क्योंकि आप को दोनों पक्षों द्वारा गालियाँ दी जाएँगी। हालाँकि, यह निहायत अत्यधिक परेशानीपूर्ण है, जब उच्च न्यायपालिका समान ध्रुवीकृत होती हुई दिखाई और सुनाई देती है।
यह इसके लिए, इसी के अन्दर, एक असली खतरा है। इस सब के बारे में न्यायाधीशों को नाराजगी दिखानी चाहिए। यही कारण है कि न्यायपालिका को न्यायाधीशों से बचाने की जरूरत है। यहां कोई व्यक्तिगत खलनायक नहीं हैं।बस उस समय तक, बाहरी वायरस के रूप में देखती है,और उसको बाहर भगाने की कोशिश करती है,जब तक संस्था खुद एक भयंकर स्व-प्रतिरक्षी बीमारी से घिर नहीं जाती। आप जानते हैं, जब एक शरीर खुद को खाना शुरू कर देता है।
आप निर्णय में दिए गये बिन्दुओं से सहमत नहीं हो सकते हैं। सबसे पहले, जनहित याचिकाओं का दुरूपयोग हो रहा है। लोगों ने अदालतों में राजनीतिक, व्यक्तिगत और वैचारिक झगड़ों को लाकर, उनका समय बर्बाद करके और विलम्ब में योगदान देकर अपने कैरियर बनाये हैं। दूसरा, न्यायाधीश झूठ नहीं बोलते – कम से कम उनमें से चार एक साथ तो बिलकुल नहीं। और तीसरा, यह कहना अनर्गल है कि एक आदमी पूरी न्यायपालिका को नियंत्रित करता है। यह एक असंभवता है।
अब, कुछ तथ्यों की जांच। जिस दिन यह फैसला दिया गया था, सुबह के अख़बारों ने सूचना दी थी कि बॉम्बे उच्च न्यायालय एक हालिया याचिका के जवाब में, महाराष्ट्र में, आईपीएल मुकाबलों के लिए पानी के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा रहा है। खेल के मैदान को पानी के लिए लालायित रख के, इस तरीके से किसानों के लिए बचाए गये पानी के अर्थ को भूल जाओ। क्या, क्रिकेट लीग पर दायर एक याचिका पर निर्णय देना, वास्तव में सम्माननीय अदालत के समय का सदुपयोग है, जबकि इसके पास इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण मामले हैं? आपको न्यायाधीशों के कार्यों के इरादों पर कभी भी लांछन नहीं लगाना चाहिए, भले ही आप उनके ज्ञान पर सवाल उठाते हों। लोया-फैसला ये कहता है कि याचिकाएं उन लोगों का मुखौटा बन गयी हैं जो लोग हमेशा पब्लिसिटी की तलाश में रहते हैं। क्या न्यायाधीश दर्पण में देखेंगे और खुद से पूछेंगे कि क्या वे भी इसी प्रलोभन का शिकार नहीं होते रहे हैं?
मेरे सहयोगी मनीष छिब्बर, जो उच्च न्यायपालिका के सबसे उत्साही और अंतर्दृष्टि वाले विशेषज्ञ हैं, ने निसंदेह मेरी एक और अधिक दिलचस्प उदाहरणों (तथ्यों) की संक्षिप्त सूची संकलित करने में मदद की,वास्तव में, बीसीसीआई ने अब एक साल के अधिक समय से भारतीय क्रिकेट को नियंत्रण करने वाले सर्वोच्च न्यायालय को छोड़ दिया है, जिसका अब कोई अवलोकन नहीं कर रहा है।हाल ही में मुख्य न्यायाधीश, जो अब क्रिकेट बेंच (संवैधानिक लोकतंत्र में ऐसा कोई सुना है?) का नेतृत्व कर रहे हैं, ने खेलों में सट्टेबाजी और जुए को वैध बनाने की मांग करते हुए एक और जनहित याचिका दायर की है। दीपक मिश्रा ने मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले (30 नवंबर 2016) को आदेश दिया था कि राष्ट्रगान को सिनेमाघरों में बजाना अनिवार्य बना दिया जाए, केवल बाद में इसे निष्प्रभावित करने के लिए। इनके द्वारा दायर की गई हर जनहित याचिका ने सुर्खियाँ उत्पन्न कीं। कोई भी याचिकाकर्ताओं के नाम याद नहीं रखता है। तो अकेले उन्हें ही क्यों सुर्खियां बनाने के लिए दोष दें? जस्टिस लोया के फैसले की सुबह तक, मुख्य न्यायाधीश की सूची में 43 मामलों में से 12 मामले जनहित याचिकाओं के थे।
कुछ और भी, जनहित याचिकाओं की सूची में ब्रिटेन से कोहिनूर वापस लाया जाए, एक और याचिका संता बता चुटकुलों को प्रतिबंधित किया जाए, पोर्न देखने को अपराध घोषित किया जाए,(2013 से अदालत के समय में खाना),विद्यालयों में योग अनिवार्य बनाने के लिए याचिका और भी ऐसी ही अनेकों याचिकाएं है जो जनहित याचिकाओं की सूची में शामिल हैं। अंततः इनमें से कुछ जनहित याचिकाएं खारिज कर दी गई हैं। ऐसी जनहित याचिकाओं को दायर ही क्यों किया गया, जब इतनी अधिक मात्रा में नागरिकों के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुद्दे लंबित हैं और न्याय पाने का इंतजार कर रहे हैं, यह एक सवाल है जो हम पूछ रहे हैं।
तथ्य यह है कि, 1980 के दशक के मध्य में नागरिकों की समस्याओं के अंतिम समाधान के रूप में जनहित याचिका का बेहद महान विचार उत्पन्न हुआ, जिसके कारण, बहुत से न्यायाधीशों की अपनी पहुंच और सीमा बढ़ोत्तरी हुई और इस प्रक्रिया ने उनके अधिकार क्षेत्र और शक्तियों को बढ़ाया है।यह अक्सर उन्हें कई उलझे विशिष्ट क्षेत्रों के मामलों में दाल देता है जिनसे बहार निकलना मुश्किल है ।
राजधानी में, अदालत ने 20 साल पहले हवा की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए एक सशक्त समिति की स्थापना की थी। यह आज भी जारी है, अब तक 18 मुख्य न्यायधीश अपना कार्यकाल पूरा कर चुके हैं लेकिन सुधार होने की जगह हवा केवल और अधिक प्रदूषित ही हुई है। अवैध निर्माण और राजधानी में अतिक्रमण के लिए भी अदालत की यही समिति है। दोनों मामलों में, अदालत विफलता स्वीकार नहीं कर सकती है और न ही अपने हठी रवैये को छोड़ सकती है। लेकिन लोग राजनेताओं की बजाय इसे दोष देते हैं और यह उन्हें ठीक लगता है । जनहित याचिकाएं (पीआईएल) न सिर्फ प्रचारक-कार्यकर्ताओं के द्वारा खत्म हो रही हैं बल्कि इस समस्या में न्यायाधीशों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
दूसरा सैद्धांतिक बिंदु यह था, कि न्यायाधीश झूठ नहीं बोलते हैं। कम से कम चार वरिष्ठ जिला न्यायाधीश एक साथ तो नहीं । क्या सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता है जो अब महीनों के लिए न्यायिक शासन के कुछ मुल अंक ऊपर उठा रहे हैं? क्या उनके शब्दों को प्रेरणा के रूप में छूट दी गई है और उनकी चिंताओं को गलत तरीके से खारिज कर दिया गया है जबकि हम महाराष्ट्र के चार न्यायाधीशों को उनके वाक्यों के साथ अपना सकते हैं? मैं इतना बड़ा बेवकूफ नहीं हूँ कि यह संकेत करूं कि जिला न्यायाधीश झूठ बोल रहे हैं । मुझे सुप्रीम कोर्ट (एससी) के शीर्ष न्यायाधीशों पर विश्वास करने के लिए उन्मादी होना होगा। उनके प्रश्नों को प्रतिक्रिया, बहस और आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।
अधिकार-क्षेत्र के इस निरंतर तनाव से, न्यायपालिका की एक ही पीआईएल के माध्यम से समाचार-हंटिंग की प्रवृत्ति, एक महामारी के रूप में कार्य करती है और अपने घर को पाने में इसकी असमर्थता ने संस्थान को किसी बाहरी व्यक्ति से भी अधिक कमजोर कर दिया है। जब न्यायाधीश अधिक अलग-अलग दिखते हैं, तो आप मुकदमेंबाजों और वकीलों के साथ फोरम शॉपिंग करने की उम्मीद करेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, जब आप सांस लेने वाली हवा की सफाई करने और क्रिकेट के खेल को चलाने की कोशिश करते हैं,तो आपको अपने साथ शासनात्मक खेल खेलना होगा, अपनी नियुक्तियों को वापस लेना होगा।
संस्थानों के बीच कुछ तनाव आरोग्य हैं। लेकिन अगर कोई बहुत कमजोर हो जाता है, तो दूसरा अपने आप को सुडौल बनाने के लिए अपनी जगह में अपनी कार्य शैली को पेश करेगा। यह वही है जो अब हो रहा है। शीर्ष न्यायाधीश वाद-विवाद कर रहे हैं और राजनेता हँस रहे हैं।
कौन हमें निर्णय में तीसरे मुख्य बिंदु पर लाता है – यह कहना बेहद मुश्किल है कि एक व्यक्ति पूरी न्यायपालिका को नियंत्रित कर सकता है। सैद्धांतिक रूप में, आप इस पर संदेह नहीं कर सकते। हकीकत में, हमने कई को आकर आगे निकलते हुए देखा है। आपत्ति जताने वाला एक पुरुष नहीं, बल्कि एक महिला थी, जिसका नाम इंदिरा गांधी था। सिर्फ एक महान न्यायाधीश, एचआर खन्ना के साहस और पराक्रम ने, उस समय हमें एर्डोगन के तुर्की की तरह बनने से बचाया। 2018 के भारत को ऐसे सिर्फ एक की ही जरूरत नहीं है, बल्कि ऐसे कई लोगों की जरूरत है, क्योंकि विशिष्ट खतरा अब बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही है।