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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतकठुआ और उन्नाव:बलात्कार निपटारे के दो मामले जिन्होंने निर्भया विरोध प्रदर्शन को मज़ाक ठहरा दिया

कठुआ और उन्नाव:बलात्कार निपटारे के दो मामले जिन्होंने निर्भया विरोध प्रदर्शन को मज़ाक ठहरा दिया

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पिछले कुछ सालो में लगातार इस प्रकार की होने वाली घटनाए , पराजय के ऊपर पराजय ।

दिसम्बर 2012: मेरे जैसे हजारों हमउम्र भारतीयों के लिए एक निर्णायक और काफी महत्वपूर्ण माह था। इसी माह में दिल्ली की एक लड़की ज्योति सिंह पाण्डेय के साथ बहुत ही हिंसक और घिनौने तरीके से बलात्कार किया गया था, जिसके कारण देश में उबाल आ गया था, इस घटना को ‘निर्भया कांड‘ के नाम से संदर्भित किया गया था। जनता द्वारा किया गया यह विरोध केवल दिखावा नहीं था। लोगों द्वारा दिखाए गए इस गुस्से और प्रतिशोध ने जस्टिस वर्मा कमेटी के गठन को मजबूर कर दिया। इस कमेटी में सार्वजनिक तौर पर जनता के सुझावों को भी आमंत्रित किया गया था, जिसमें करीब 80,000 लोगों ने भी अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। इस पूरे प्रकरण ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 का नेतृत्व किया।

लेकिन क्या वाकई में इस संशोधन से समाज में कुछ बदलाव आया? अगर सच कहा जाए तो नहीं, बिल्कुल नहीं। जस्टिस वर्मा की वह रिपोर्ट, जो इस प्रकार के बेहतरीन उपायों और सुझावों से भरी हुई थी कि भारत में महिलाओं की इस दयनीय स्थिति को सुधारने और उनकी मदद के लिए एकजुट नीति परिवर्तन कैसे किए जाएं,को कभी पूर्ण रूप से लागू ही नहीं किया गया था।

मुझे तो आश्चर्य होता है कि लोगों का वह जोश वह उत्तेजना कहाँ गायब हो गई।

8 अप्रैल 2018 की तारीख एक सुरक्षित तारीख की तरह दिखती है, लेकिन हम इसे वापस जाकर देखें और महसूस करें कि यह दिन था जब भारत का बचा-खुचा कौशल भी अशोभनीय और घिनौनी मानवता के कारण अंधेरों में गुम हो गया।बलात्कार की दो घटनाओं एक कठुआ (जम्मू-कश्मीर) तथा दूसरी उन्नाव (उत्तर प्रदेश) ने देश वासियों की चिंता की लकीरों को और गहरा कर दिया। यह दोनों राज्य देश के प्रतिष्ठित राज्यों में गिने जाते हैं।

कठुआ की बार एसोसिएशन ने एक 8 वर्षीय बच्ची, जोखाना बदोश मुस्लिम जनजाति बक्करवाल समुदाय की सदस्य थी, के दिल दहला देने वाले बलात्कार और हत्या के मामले में पुलिस को आरोप पत्र दाखिल करने से बाधित करने की कोशिश की।

इस घृणित अपराध की जांच में पहले से ही राजनीतिक हस्तक्षेप चल रहा था, आरोपियों के समर्थन में निकाली गई एक रैली में भाजपा के मंत्री और विधायक, चौधरी लाल सिंह, चंदर प्रकाश गंगा, राजीव जसरोटिया और कुलदीप राज शामिल हो गए। वकीलों ने आरोप पत्र दाखिल करने में 6 घंटे का समय लगा दिया और धीमी प्रक्रिया और न्यायायिक प्रक्रिया को लेके मज़ाक बनाते रहे।

जम्मू और कश्मीर के जैसा ही मामला उत्तर प्रदेश के उन्नाव में देखने को मिला। एक दलित महिला और उसका परिवार, जिन्होंने भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर और उनके साथियों पर उसका बलात्कार करने का आरोप लगाया है, ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आवास के बाहर आत्महत्या करने की कोशिश की।चूंकि मौके पर ही पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और पीड़ित के पिता को हिरासत में ले लिया। जिसकी अब मृत्यु हो चुकी है। पीड़ित परिवार का एस के महाजन (जस्टिस) से न्याय पाना एक धुंधले सपने जैसा हो सकता है,। इस मौत पर हो रहे बवाल पर,मुख्यमंत्री से मिलने जा रहे सेंगर ने कहा कि “अरे वो निम्न स्तर के लोग हैं, यह अपराधियों की साजिश है।“

इन दोनों घटनाओं ने देश को झकझोर कर रख दिया है। महिला समुदाय के प्रति वैचारिक लड़ाई में भारत का हमेशा शर्मनाक इतिहास रहा है, लेकिन ऐसे मामले इस इतिहास कोऔर भी ज्यादा बुरा बना रहे हैं। एक कमजोर अल्पसंख्यक बच्ची और एक दलित महिला दोनों का ही बलात्कार उन लोगों ने किया जिनके उपर उनकी रक्षा का भार सौंपा गया था। यदि केवल विशेष पक्ष की मीडिया अपनी महत्वपूर्ण कवरेज को रोककर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों के छोले भटूरे खाने पर तेजी से प्रतिक्रिया करती है जो आज अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ(1984 के सिखों के खिलाफ दंगों के मुख्य आरोपी, जगदीश टायटलर ने मंच की शोभा बढ़ा रहे थे) उपवास पर बैठे थे।सत्तारूढ़ पार्टी के प्रतिनिधियों ने संवेदनशीलता की कमी के लिए विपक्ष पर तंज कसने के लिए समय निकाल लिया, लेकिन देश में हो रहे इन बलात्कारों के मामलों पर चुप्पी साध ली।

भारत ने जिस वादे को अपने अल्पसंख्यकों में प्रसारित (फैलाया) किया था उसे इस मजाक के रूप में सामने आता देखमुझे आश्चर्य हुआ कि यह उदासीनता है या केवल थकावट। पिछले कुछ सालों में बार-बार होने वाली इस प्रकार की घटनाओं ने हमें बार-बार हमारी असफलता याद दिलाई है। जैसा कि सत्ताधारियों ने अपनी स्थिति को संगठित कर लिया है, भारत की कमजोर आबादी कभी भी इस प्रकार वंचित नहीं हुई है जिस प्रकार अब है। सार्वजिक भाषणों में भारी परिवर्तन आया है, इन भाषणों में अब तथ्यों, कठोर सच्चाइयों और वास्तविकताओं से दूरी दिखाई देती है, इन भाषणों में जहरीली कौमपरस्ती और भेदभाव किया जा रहा है। मुझे आश्चर्य है कि अगर लोग उस तरह के क्रोध और असहायता, जो वो महसूस करते हैं, से थक गए हैं और अब उन वादों के साथ शालीनता से अपने आप को शांत करने के आसान विकल्प चुन रहे हैं, जो वो गहराई से जानते हैं कि कभी पूरे नहीं होंगे।

यह सिर्फ मीडिया और राज्य तंत्र की विफलता नहीं है क्योंकि वे तो वर्षों से ही विफलता की तरफ दौड़ रहे रथ पर सवार हैं। यह सहानुभूति और मानव जाति की ‘अदम्य’ भावना की क्षति है, हम इस प्रकार की कमजोरी को पालें या न पालें लेकिन ऐसे मामलों को स्वीकार करना जारी रखेंगे। मुँह फेर लेना, आशाएं खत्म कर लेना और चुपचाप सब-कुछ सह लेना। जो लोग एक बार अपने मूल अधिकारों को वापस लेने के लिए सड़कों पर उतरे थे, बहुत कम बचे हुए विश्वास के साथ संदेहवादी बनकर रह गए हैं।

कवि डिलन थॉमस ने एक बार लिखा था, कि “उस गुड नाईट में कोमल न बनो/अंधकार के खिलाफ क्रोध दिखाओ। जिस अन्धकार में हम खोते जा रहे हैं वह अन्धकार अच्छा नहीं है। यह सुनसान जगह पर क्लेश और कलह का एक काला साया है। अफसोस की बात यह है, कि हम इस यात्रा पर एक निष्क्रिय यात्री बन गए हैं और हमें नहीं पता कि हम वापस लौटने में सक्षम भी हो पाएंगे या नहीं।

हरनिध कौर एक कवि और नारीवादी महिला हैं। विचार निजी हैं

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