पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह का कहना है कि राहुल गांधी आज पहले वाले राहुल गांधी नहीं हैं, जिनका मज़ाक ‘पप्पू’ कहकर उड़ाया जाता था. लेकिन कांग्रेस की कमान संभालना उनके लिए निश्चित ही एक बड़ी चुनौती होगी
नई दिल्ली: कांग्रेस के शिखर पर चिरप्रतीक्षित परिवर्तन की रस्मअदायगी भर बाकी रह गई है. वर्षों की अटकलों को समाप्त करते हुए राहुल गांधी पार्टी की बागडोर अपनी मां सोनिया गांधी से अपने हांथों में लेने ही वाले हैं. बहरहाल, उनके अधिरोहण की तैयारी के क्रम में कांग्रेस के महाराष्ट्र के पार्टी नेता शहजाद पूनावाला के सौजन्य से एक छोटी-सी बगावत की आवाज सुननी पड़ी है. दूसरी ओर भाजपा ने हमला बोल दिया है और प्रधानमंत्री ने राहुल की ताजपोशी की तुलना औरंगज़ेब की ताजपोशी से की है, तो केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का कहना है कि यह ‘बिना काम के इनाम’ देने जैसा है.
‘दप्रिंट’ ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता तथा पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह से, जो नेहरू-गांधी परिवार की चार पीढ़ियों के साथ काम कर चुके हैं, यह जानने की कोशिश की कि राहुल के आरोहण का कांग्रेस और देश की राजनीति के लिए क्या अर्थ है. प्रस्तुत है इस बातचीत के अंश-
आपने कभी कहा था कि ‘‘राजनीति तो २४ घंटे की जॉब है. राहुल अच्छे आदमी हैं लेकिन उनके भीतर वह आग नहीं है.’’ अब जबकि वे कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले हैं, तब क्या आपके विचार में कोई बदलाव आया है?
मेरा मानना है कि राहुल में एक स्पष्ट बदलाव आया है. पहली बात तो यह कि वे कहीं ज्यादा सक्रिय हो गए हैं. दूसरे, वे अपने शब्दों के चुनाव में काफी सावधानी बरतने लगे हैं. मैं नहीं जानता कि क्या हुआ है, मगर सितंबर में अमेरिका से लौटने के बाद से उनमें कायाकल्प हुआ दिख रहा है.
मेरा ख्याल है कि उन्हें काफी पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष बन जाना चाहिए था. पता नहीं इसमें देरी क्यों हुई ? 2014 में वे सक्रिय नहीं थे इस अर्थ में कि उन्होने चुनावों में वास्तव में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई. अब वे काफी कुछ कर रहे हैं. राहुल का कद ऊंचा हुआ है. लोग अब उन्हें ‘पप्पू’ नहीं कह रहे हैं.
राहुल के आ जाने के बाद आप सोनिया गांधी की क्या भूमिका देखते हैं?
वे गद्दी के पीछे की ताकत होंगी, क्योंकि कांग्रेस पार्टी में उन्हें ज़बरदस्त इज़्जत हासिल है. सोनिया अब शक्तिशाली मातृत्व की भूमिका में होंगी.
क्या वे कांग्रेस संसदीय दल की नेता बनेंगी?
इसकी ज़रूरत नहीं है. उनका कद इतना ऊंचा है कि उन्हें किसी पद की ज़रूरत नहीं है.
और प्रियंका गांधी के बारे में आपका क्या कहना है?
मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह है कि वे राजनीति में नहीं उतरेंगी क्योंकि तब राहुल का क्या होगा? आप सत्ता के दो केंद्र नहीं बना सकते. वे अपने भाई की राजनीति में खलल डालना नहीं चाहेंगी. मेरा मानना है कि दस साल पहले वे जो प्रभाव डाल सकती थीं, अब उतना नहीं डाल सकेंगी. वे सहायता में तो ज़रूर रहेंगी लेकिन राजनीति में आने के लिए काफी देर हो चुकी है. एक समय था जब वे बड़ा असर डालने में सक्षम थीं.
क्या सोनिया गांधी शुरू से ही चाहती थीं कि राहुल गांधी को बागडोर सौंप दी जाए?
दो बाते हैं. एक तो यह कि यह एक ऐसा परिवार है, जिसे जनता ने चुनाव में निर्वाचित किया है. इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि किसी को ऊपर से थोपा गया है. वे चुने जाते रहे हैं. दूसरी बात यह कि सोनिया ने राहुल को नहीं बिठाया होता तो प्रियंका आतीं. इसलिए, मैं नहीं मानता कि इस फैसले में कोई उलझन थी.
आप उस गुट में थे जिसने सोनिया गांधी को राजनीति में उतारा. क्या आपको कभी इस फैसले पर अफ़सोस हुआ?
मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में वे विफल साबित होतीं – घोर विफल. सरकार क्या होती है, यह उन्हें कुछ पता नहीं था. उन्हें मालूम था कि उन्हें मनमोहन सिंह से कोई खतरा नहीं है, वे खतरा थे भी नहीं. वे शानदार व्यक्ति हैं, लेकिन प्रधानमंत्री को तो बेहद कठोर होना होता है.
क्या आपको लगता है कि यह परिवार काबिज रहेगा?
मेरी निजी राय है कि यह अब आखिरी मुकाम पर है, क्योंकि लोग गांधी परिवार से ऊब चुके हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह अमेरिका में लोग क्लिटन परिवार से ऊब चुके थे. युवा लोग परिवार वगैरह की कोई फिक्र नहीं करते.
राहुल गांधी अब जब बागडोर संभाल रहे हैं, तो इसके लिए अब समय चुनने का क्या कोई खास महत्व है?
मेरे ख्याल से समय का चुनाव सही है. बागडोर हाथ में लेने के लिए यह उपयुक्त समय है, और राहुल के लिए भी खुद को साबित करने के लिहाज से यह एक अच्छी चुनौती है, क्योंकि 2014 में और उत्तर प्रदेश में वे विफल साबित हो चुके हैं. लेकिन गुजरात में कांग्रेस की स्थिति सुधरेगी. यहां तक कि हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस का सफाया नहीं होने वाला. अगले साल विधानसभाओं के अहम चुनाव होने वाले हैं. मेरे ख्याल से राहुल के लिए ये अच्छे ड्रेस रिहर्सल हैं.
आप नेहरू-गांधी परिवार की चार पीढ़ियों से जुड़े रहे हैं. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने पद पर रहते हुए खुद को पूरी तरह बदल डाला था. आप राहुल का क्या भविष्य देखते हैं?
कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले वे नेहरू-गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी के हैं. यही एकमात्र परिवार है जिसकी अखिल भारतीय लोकप्रियता है. लेकिन मेरे ख्याल से वे इस परिवार के ऐसे आखिरी व्यक्ति हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में अगर वे कांग्रेस की सीटों की संख्या 44 से बढ़ाकर 144 कर सकें, तो यह भारी बदलाव होगा. यह आंकड़ा 44 से बढ़कर 84 तक ही पहुँचा, तो इसका कोई मतलब नही होगा. उनका भविष्य कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ा है. अगर वे इसमें जान फूंकते हैं, उसे मजबूत बनाते हैं, तो बहुत अच्छा. अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो वे एक सामान्य नेता बनकर रह जाएंगे.
क्या आपको लगता है कि ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे वरिष्ठ विपक्षी नेता राहुल के साथ मिलकर काम करेंगे?
यह एक निर्णायक पहलू हो सकता है. मेरे ख्याल से ये नेता उनके साथ काम नहीं करेंगे. राजनीति हर दिन करवट बदलती है. 2019 के बाद भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बन सकती है. कांग्रेस अगर 144 सीटें नहीं ला पाती तो वह गिनती में नहीं रहेगी. राहुल के लिए परीक्षा और चुनौती यही है. उन्हें कांग्रेस में उसी तरह जान फूंकनी होगी जिस तरह उनकी दादी इंदिरा गांधी ने फूँकी थी. राजीव उसे सहेजकर नहीं रख पाए और 1987 तक सब कुछ खत्म हो गया.
मौजूदा हालात में कांग्रेस को किस तरह के नेतृत्व की ज़रूरत है?
हम घोर अनिश्चितता के दौर में हैं, और कांग्रेस अपने निम्नतम स्तर पर है. आज वह केवल छह राज्यों में सत्ता में है. पंजाब तथा कर्नाटक को छोड़ बाकी चार राज्य तो छोटे ही हैं. अगर वह राजस्थान जैसे दो-तीन बड़े राज्यों में सत्ता हासिल कर पाती है, तो इससे खासा फर्क पड़ेगा. राहुल का कद और ऊंचा होगा. हमारे पास डेढ़ साल का वक्त है. इसमें बहुत कुछ हो सकता है. समस्या यह है कि कांग्रेस को मजबूत करने के लिए जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी, दोनों के मेल वाले नेतृत्व की ज़रूरत है. यह दयनीय स्थिति है, क्योंकि भारत को एक सशक्त विपक्ष की ज़रूरत है और कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जो इस ज़रूरत को पूरा कर सकती है.