कई जिलों के निवासी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी तैयार करने के काम से संतुष्ट हैं, उन्हें लगता है कि इससे अवैध प्रवासियों की पहचान में मदद मिलेगी.
कामरूप ग्रामीण/ नलबारी/ बारपेटा (असम): नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) के पहले मसौदे के प्रकाशन के बाद कामरूप ग्रामीण/ नलबारी/ बारपेटा आदि तमाम जिलों में इस रजिस्टर में शामिल न हो पाए नामों को लेकर शिकायतें तो उभरी हैं लेकिन अवैध प्रवासियों को खोज निकालने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही कार्यवाही से लोग खुश नजर आते हैं. एनआरसी पहली बार 1951 में प्रकाशित हुआ था और अब इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 1971 को कटऑफ वर्ष मान कर संशोधित किया जा रहा है.
बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों का मसला असम में काफी संवेदनशील रहा है. 2016 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने इन प्रवासियों के निष्कासन को अपने अभियान का प्रमुख मुद्दा बनाया था. अब जातीय अल्पसंख्यकों के डर है कि इस संशोधन प्रक्रिया में उन्हें निशाना बनाया जा सकता है. कामरूप ग्रामीण जिलों के चायगांव के 76 वर्षीय निवासी समुद्र नारायण दास कहते हैं, “हमसे कहा गया है कि हमें डरने की जरूरत नहीं है…. यह एक अच्छा काम हो रहा है, जिससे उन प्रवासियों का पता लगाने में मदद मिलेगी, जो हमारे संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं”.
दास के नौ लोगों के परिवार में से सात के नाम सूची में दर्ज हुए हैं लेकिन उनकी दो संतानों के नाम उस पहले मसौदे में नहीं हैं, जिसे 31 दिसंबर की आधी रात में जारी किया गया. दास ने ‘दिप्रिंट’ को बताया, “उनके नाम दूसरी सूची में आएंगे. हमें असमी होने का गर्व है, हमारे नाम भला क्यों नहीं शामिल होंगे”.
आवेदकों को सबूत देना पड़ता है कि उनका नाम 1951 के एनआरसी में, या 1971 तक जारी असम की किसी मतदाता सूची में, या 1971 से पहले जारी दूसरे 12 दस्तावेजों में से किसी में दर्ज था.
चायगांव एनआरसी केंद्र में उपलब्ध सूची में अपना नाम खोज चुकीं निभारानी देवी बताती हैं कि उनका नाम तो अभी शामिल नहीं किया गया है लेकिन उनके पति और ससुराल वालों के नाम दर्ज हैं. पूरी प्रक्रिया का ब्यौरा देने के बाद वे बताती हैं कि 2015 में ही उन्होंने कतार में लग कर अपने पूरे परिवार से संबंधित दस्तावेज जमा करवा दिए थे. एनआरसी केंद्र ने उन्हें सभी आवेदनपत्रों तथा अन्य ब्यौरों की प्रति के साथ इसकी पावती रसीद भी दी थी.
केंद्र के स्थानीय अधिकारी राकेश दास ने ‘दिप्रिंट’ को बताया कि पूरी प्रक्रिया शुरू करने से पहले सामुदायिक स्तर पर बैठकें की गईं और जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए. “हमने लोगों से कहा कि इससे डरने की कोई बात नहीं है. हमने उन्हें समझा दिया कि उन्हें कौन-कौन-से कागजात जमा करने हैं”. उन्होंने आगे बताया कि बड़ी संख्या में फील्ड अधिकारियों को तैनात किया गया. इस केंद्र में 3,903 लोगों ने आवेदन किए थे जिनमें से 64 प्रतिशत के नाम पहली सूची में आ गए हैं.
बोको प्रखंड के एनआरसी केंद्र में तैनात अधिकारी अब्दुल खालिद ने लोगों द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों की जांच के लिए विभिन्न विभागों में भेजा गया है. “देरी इसलिए हो रही है कि ये विभाग जांच करने में अपना-अपना समय लगाते हैं. यही वजह है कि कुछ नाम सूची में आ पाए और कुछ रह गए.”
स्थानीय बनाम प्रवासी
‘दिप्रिंट’ ने जिन लोगों से बात की उनमें से अधिकतर ने बताया कि एनआरसी का संशोधन एक “अच्छा कदम है क्योंकि इससे देसी असमी लोगों को अपने अधिकारों का उपयोग करने और अवैध प्रवासियों की पहचान में मदद मिलेगी”. नलबारी जिले में बरामा के खोगनेश्वर बर्मन ने कहा, “मेरे परिवार के पांच लोगो में से चार के नाम को मंजूरी मिल चुकी है लेकिन हमें कोई बड़ी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा. यह बहुत अच्छा कदम है. हम इसका समर्थन कैसे नहीं करेंगे. असम के मूल लोगों को अपने अधिकार मिलेंगे. असम में बांग्लादेशी प्रवासियों की बाढ़ आ गई है, इनकी पहचान की जाएगी”.
कामरूप ग्रामीण जिले के देलियापाड़ा गांव के निरंजन राभा ने दावा किया कि “बाहरी लोग राज्य में बहुत ज्यादा गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं”, यह कार्रवाई इसे रोकेगी. बारपेटा के नोगेन बशीर और अरशद अली चौधरी ने कहा कि हालांकि उनके परिवार के कुछ लोगों के नाम सूची में नहीं आए हैं, लेकिन वे परेशान नहीं हैं क्योंकि उन्होंने उनके सारे जरूरी कागजात जमा करवा दिए हैं. बशीर ने कहा, “हमें कोई परेशानी नहीं हुई. अगर हुई हो, तो भी हम चाहते हैं कि असमियों और गैरकानूनी प्रवासियों के बीच फर्क साफ हो जाए, और इसके लिए यह कार्रवाई अच्छी है”.
सूची से गायब नामों का मामला
हालांकि लोग एनआरसी के संशोधन का समर्थन करते हैं लेकिन कई लोगों को यह नहीं मालूम है कि यह काम कैसे हो रहा है और पहली सूची से बड़ी संख्या में नाम क्यों गायब हैं. कामरूप ग्रामीण जिले में मकेली गांव के मुन्ना मुकुद दास ने कहा, “मेरे परिवार में पांच लोग हैं जिनमें से मेरे पिता सहित दो लोगों के नाम नहीं दर्ज किए गए हैं”. उन्होंने बताया कि उन्होंने तो सारे दस्तावेज जमा करवा दिए थे “मगर यह कैसे हो गया कि उनका नाम नहीं आया? कुछ घपला तो हो रहा है”. उनके पड़ोसी निपेन दास ने भी कहा, “मेरी बीवी का नाम है लेकिन मेरा नाम नहीं है. यह तो आश्चर्य की बात है क्योंकि उसने मेरे ही दस्तावेजों का इस्तेमाल किया”.
क्या भाजपा को फायदा होगा ?
असम में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों का मुद्दा दशकं से राजनीति में गर्मी पैदा करता रहा है और जाहिर है कि इस कदम को उठाने का श्रेय लेकर भाजपा इसका फायदा उठाना चाहेगी. वैसे, ऐसा लगता है कि अधिकतर लोग इसे भाजपा की पहल के रूप में नहीं देखते हैं और भलीभांति जानते हैं कि यह काम सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रहा है. बारपेटा की भूमिका दास कहती हैं, “हम इसे राजनीतिक कदम के तौर पर नहीं देखते. यह कांग्रेस या भाजपा की बात नहीं है. यह काम कोर्ट के आदेश पर हो रहा है और भाजपा सत्ता में है इसलिए वह यह काम करवा रही है”.