मुरादाबाद/रामपुर: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के पारसपुरा गांव में मंगलवार की सुबह सर्द भरी रही. मुरादाबाद और रामपुर जिले के सीमा वाले क्षेत्र में 20 से ज्यादा लड़के जो स्नातक और परास्नातक हैं- वे धूल भरे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे. घर पर सभी काम खत्म करने के बाद सभी लड़के जो सभी 20 वर्ष की आयु के हैं और 30 वर्ष के हैं- उनके पास बाकी पूरे दिन कोई काम नहीं रहता है.
बेरोज़गार, झुंझलाए और उदासीन लड़के अपने पसंदीदा खेल खेलते हैं, कभी कभी घंटों, जबतक कि खाने का समय न हो जाए.
इनमें से कुछ लड़कों ने 8 नवंबर 2016 को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए गए नोटबंदी के बाद से निजी कंपनियों से नौकरी चली गई. जिन लोगों ने स्नातक पूरी कर ली उन्हें आज तक नौकरी नहीं मिली. जो लोग इंजीनियरिंग और एमबीए कर शहर गए थे वो पिछले कुछ सालों में गांव लौट रहे हैं जब से आर्थिक मंदी देश को घेर रही है.
अरविंद चौहान ने कहा, ‘मैंने एमएससी की हुई है लेकिन उसके बाद नौकरी नहीं मिली. अभी भी मैं खेतों में अपने पिता की मदद करता हूं और अपना समय काटता हूं.’
‘मेरी पत्नी स्कूल में काम करती है और हमारे पास थोड़ी सी जमीन है. हम लोग ऐसे काम चलाते हैं. लेकिन गांवों में मेरे जैसे लड़कों के पास करने को कुछ नहीं है जिन लोगों ने पढ़ाई की, पढ़ाई में पैसा लगाया. आगे कोई भविष्य नहीं दिख रहा है.’
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ये उत्तर प्रदेश के कई गांवों के युवाओं की कहानी है जो कि युवा होने के साथ काबिल हैं फिर भी बेरोज़गार हैं. नरेंद्र मोदी सरकार के सामने ये सबसे बड़ी चुनौती है- आकांक्षा वाले युवाओं को रोज़गार देना.
चिंता करने वाली संख्या
पीएलएफएस सर्वे (जुलाई 2017- जून 2018) के आंकड़ों के अनुसार 2017-18 में बेरोज़गारी दर (6.1 प्रतिशत) पिछले 45 सालों के अपने चरम स्थान पर थी. नोटबंदी के ठीक अगले साल हीं. नोटबंदी ने काफी सारे छोटे उद्योगों को बुरी तरह से प्रभावित किया जिससे काफी सारे लोगों को अपने गांव तक लौटना पड़ा.
ज्यादा चिंताजनक ये है कि आकंड़ों दिखाते हैं कि 15-29 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों के बीच बेरोजगारी दर 17.8 प्रतिशत थी. जिसने मोदी सरकार के कार्यकाल के समय रोज़गार पैदा करने पर कई सवाल खड़े किए.
विकास की गति कमजोर होने से भारत में बेरोज़गारी बढ़ रही है. अर्थव्यवस्था लगातार पिछले छह तिमाहियों में कमजोर हुई है जो अप्रैल 2018 से होनी शुरू हुई थी. सितंबर 2019 में ये कमजोर होकर 4.5 प्रतिशत रह गई. पूरे साल की विकास दर अपने 11 साल के सबसे निचले स्तर पर यानी की 5 प्रतिशत पर रहने की उम्मीद है.
निर्माण और ऑटोमोबाइल क्षेत्र के कमजोर होने से अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है जिससे रोजगार वृद्धि पर भी असर पड़ रहा है.
काफी सारे मैन्यूफैक्चरिंग फर्म्स जिसमें ऑटोमोबाइल सेक्टर भी शामिल है, उसमें प्रोडक्शन को कम करना पड़ रहा है और दिहाड़ी मजदूरों को हटाया जा रहा है.
शिक्षा का अधूरा वादा
गाज़ियाबाद जिले के बनैरा गांव में रहने वाले 27 वर्षीय शशांक त्यागी का अनुभव काफी खराब और अधूरे सपनों वाला है. बीबीए और एमबीए करने के बाद त्यागी कुछ निजी इंस्टीट्यूट में पढ़ाने गया और एचसीएल जैसी कंपनी में काम किया ताकि वापस आकर वो भैंसो को लोन पर खरीद सके और अपने गांव में छोटे स्तर पर डेयरी का बिजनेस शुरू कर सके.
त्यागी जो संपन्न परिवार से नाता रखता है जिसके पास 25 बीघे जमीन है… ने शिक्षा के अधूरे वादे को कहा.
उन्होंने कहा, ‘मैंने काफी पढ़ाई की है… मैं गांव का रोल मॉडल हुआ करता था जो नोएडा पढ़ाई और काम के लिए जाता था. लेकिन जब मैंने काम करना शुरू किया तब कोई ऐसी नौकरी नहीं थी जो मुझे 15 हज़ार रुपए से ज्यादा दे. कोई एमबीए करके इतने पैसे पर क्यों काम करेगा. एमबीए का कोई मोल नहीं है?’
त्यागी ने कहा, ‘मेरे पीठ पीछे सब कहते हैं कि इसने ये सब करके क्या हासिल कर लिया… वो भी बाकी लोगों की तरह हो गया है.’
त्यागी भारत के सामने एक और बड़ी समस्या का प्रतिनिधित्व करता है – भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश को कैसे भुनाना है.
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भारत के दो-तिहाई से ज्यादा जनसंख्या (15-64 वर्ष के बीच) काम करने के वर्ग में है. हालांकि भारत अपने शिक्षा के मानकों को सुधारने के लिए संघर्ष कर रहा है. जो कि बहुत महत्वपूर्ण है जिससे जनसांख्यिकीय लाभांश की जरूरत पूरी हो सकेगी.
एनएसएसओ की ‘हाउसहोल्ड सोशल कंसप्शन’ रिपोर्ट के मुताबिक जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच शिक्षा व्यवस्था में आने वाले छात्रों की संख्या में कमी आई है.
जो लड़के कभी स्कूल नहीं गए उनका प्रतिशत 2017-18 में बढ़कर 11 हो गया जो 2014 में 7 प्रतिशत था वहीं इसी अवधि में लड़कियों का प्रतिशत बढ़कर 17 प्रतिशत हो गया जो 12 प्रतिशत था.
27 नवंबर को केयर रैटिंग्स ने एक नोट में कहा कि ये आंकड़ें बताते हैं कि बच्चों के स्कूल में दाखिले के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं है.
गाजियाबाद जिले के जाटपुरा गांव के हिमांशु शर्मा जो एमबीए हैं….. 2018 में स्नातक करने के बाद अभी तक नौकरी नहीं मिल पाई है…और अब वो ट्यूशन पढ़ाते हैं. उन्होंने कहा, ‘हम युवा है, हमें मूलभूत चीज़ें जैसे कि स्मार्टफोन और मोबाइल डाटा चाहिए. मुझे कुछ करना है इसलिए मैं गांव में ट्यूशन पढ़ाता हूं.’
शर्मा कहते हैं, ‘युवा लोगों का कहना है कि एक या दो साल पहले तक मोबाइल डाटा आसानी से उपलब्ध था, अब वे इंटरनेट का उपयोग करने के लिए अपने दोस्तों के हॉटस्पॉट का उपयोग करते हैं. “फोन और इंटरनेट बुनियादी है, अगर हम ऐसा नहीं कर सकते हैं तो हम क्या करें?’
ये अलग-थलग मामले नहीं है. सीएमआईई के अनुसार उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी 2018 के 5.91 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 9.95 हो गई. एक ऐसा राज्य जहां देश की 16 प्रतिशत आबादी रहती हैं.
लेकिन चौहान, त्यागी और शर्मा के परिवार भी हैं जिसके लिए उन्हें कमाने की जरूरत है. जिन लोगों के पास पारिवारिक जमीन नहीं है उनके लिए बेरोज़गारी झुंझलाहट और उदासीनता भरी है. यह रोज का संघर्ष है.
कर्ज में जिंदगी
भारत भूषण 50 वर्ष के हैं और वह दिल्ली के करीब गाज़ियाबाद बॉर्डर पर एक कंपनी में रखरखाव कर्मचारी थे.
उनकी सैलरी 22000 रुपये थी और वह इस सैलरी में चार लोगों के परिवार के साथ आराम से जीवनयापन कर रहे थे. लेकिन आर्थिक मंदी के बाद कंपनी ने धीरे-धीरे कर्मचारियों को 2017 के आखिरी महीनों में निकालना शुरू किया और 2018 में कंपनी बंद हो गई.
कंपनी बंद होने के बाद भूषण बाध्य हुआ गांव वापसी की ओर, वह 30 साल बाद घर वापस आ गए हैं जहां उसके माता-पिता रहते हैं और उनकी दो बीघा ज़मीन है.
भूषण कहते हैं, ‘मैं अब ‘हैंड टू माउथ’ की स्थिति में पहुंच चुका हूं. मेरी हमेशा अच्छी सैलरी थी लेकिन अब मैं अपने बच्चे की हर मांग पर ‘न’ कहता हूं. मैं गांववालों से बच्चों की स्कूल फीस के लिए लोन लिया है, यहां तक की मैंने प्रतिदिन के खर्चे के लिए भी लोन लिया है.
पूरे गांव में लोगों का कहना है कि 80 फीसदी लोगों ने खेती किसानी, मवेशी खरीदने, बच्चों की शादी और हर दिन के खर्च के लिए बैंक से लोन लिया है.
भूषण और उसके जैसे कई लोगों की पारिवारिक जिंदगी और मूलभूत जरूरतें आर्थिक मंदी में प्रभावित हुई हैं. उनके पास खाने के लिए भोजन नहीं है, पोषण नहीं है यहां तक की नए कपड़े खरीदने के बारे में तो सोचना ही बेकार है. वह अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पुश्तैनी जमीनें तक बेच रहे हैं.
भूषण बताते हैं, ‘रात के खाने में हम कई बार रोटी और चटनी खाते हैं. आज कल हर दिन मुश्किल से गुज़ारा चल रहा है.’
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा संकलित उपभोक्ता व्यय डेटा से पता चलता है कि भारत में उपभोक्ता व्यय में 3.7 प्रतिशत की गिरावट आई है- 2017-18 में प्रति माह प्रत्येक व्यक्ति ने केवल 1,446 रुपये खर्च किए, जबकि 2011-12 में यह 1,501 रुपये था. ग्रामीण क्षेत्रों में, गिरावट 8.8 प्रतिशत थी.
औसतन, ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन पर मासिक खर्च 10 प्रतिशत घटकर 643 रुपये से 580 रुपये हो गया.
परिवार में बढ़े झगड़ें
आर्थिक तंगी पारिवारिक जीवन को भी प्रभावित कर रही है. पुरुषों द्वारा घर में पर्याप्त पैसा नहीं ला पाने के कारण, कई घरों में झगड़ा बढ़ गया है.
34 वर्षीय सुमन बताती हैं, मेरे पति पंजाब में कार चलाते हैं. पिछले एक साल से वह घर पर कम पैसे भेज रहे हैं. पहले वह करीब 10,000 से लेकर 12000 रुपये हर महीने भेजा करते थे लेकिन अब वह महज 6000 से 7000 रुपये ही भेजते हैं जिससे घर चलाना मुश्किल हो रहा है.
अपने पति के विपरीत, सुमन अपनी दो स्कूल जाने वाली बेटियों के लिए जवाबदेह हैं, उन्हें तब बहुत मुश्किल होती है जब बेटियां उनके सामने कोई मांग रखती हैं और ‘मैं उन्हें मना कर देती हूं.’ ‘अगर मैं उन्हें बताती हूं तो वह मुझपर चिल्लाते हैं.’ वह कहती हैं,’ कलेश तो होता ही है जब हालात इतने बुरे हों.’
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पारसपुरा गांव में दूसरी महिलाओं की तरह सुमन ने भी दुपट्टा डिज़ाइन करना शुरू कर दिया था. उनके घर के पास की ही महिला ने यह काम शुरू किया है. हर एक दुपट्टे को डिज़ाइन करने में उसे एक घंटे का समय लगता है. सुमन को हर दुपट्टे के लिए महज़ आठ रुपये मिलते थे. इसलिए सुमन ने यह काम करना भी छोड़ दिया.
राजश्री भी इसी गांव की रहने वाली हैं वह कहती हैं कि अपने पतियों की मदद करने के लिए कई महिलाएं अब बाहर निकल कर काम कर रही हैं. वह कहती हैं, ‘जब पति घर में पैसा नहीं ला पा रहे हैं तो हमें ही जाकर काम करना पड़ रहा है.’
जहां रोजगार का मतलब सिर्फ न्यूनतम कमाई है
मुरादाबाद-रामपुर बॉर्डर पर पारसपुरा गांव के कई महिला एवं पुरुषों को स्थानीय हैंडीक्राफ्ट फैक्टरी में काम मिल गया है.
महज़ तीन साल पुरानी इस फैक्टरी में अब कर्मचारियों की संख्या 500 पहुंच गई है. गांववालों का कहना है कि यहां काम करने के अलावा हमारे पास कोई ऑप्शन नहीं है.
चौहान बताते हैं, ‘इस फैक्टरी में अधिकतर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट काम करते हैं, उन्हें 5,000 से 6,000 से अधिक नहीं मिलता है. ‘लेकिन कुछ लोग पैसे को लेकर इतने पागल हैं कि वह अधिक पैसे के लिए 10-12 घंटे काम कर रहे हैं.’
वह आगे कहते हैं, यह स्थिति आपको बताती है कि एक तरफ, लोगों के पास नौकरी नहीं है, और दूसरी ओर, जो लोग नौकरी कर रहे हैं उनका जमकर शोषण किया जा रहा है. क्योंकि उनके पास खुद को और अपने परिवार को खिलाने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है.
‘लोगों के पास पैसा नहीं है कि घर में चूल्हा तक जल सके इसलिए वह कुछ भी काम करने को तैयार हैं.’
ग्रामीणों का कहना है कि कंपनी मजदूरों और ग्रेजुएट्स को लगभग एक ही सैलरी का भुगतान करती है.
यह कहां जाकर रुकेगा
कानपुर में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स में निदेशक ए.के वर्मा कहते हैं कि लोगों को पुराने मॉडल की वापसी की उम्मीद करना बंद करना होगा, जहां सरकार लोगों की एक बड़ी नियोक्ता है, और आजीविका कमाने के लिए गैर-पारंपरिक और उद्यमशील तरीके खोजने होंगे.
वह आगे कहते हैं, ‘हमलोग बाजारी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं. सरकार भी अधिक से अधिक प्रोफेशनल हो रही है. वह उनलोगों को कृत्रिम रूप से नहीं रख रही है जो उनके बिल में फिट नहीं बैठ रहे हैं. ‘हर किसी को यह समझना होगा कि अगर आपके पास तकनीकी शिक्षा नहीं है.’
वर्मा कहते हैं कि पारंपरिक इंजीनियरिंग, बीए, एमए और एमबीए की डिग्री अब निरर्थक साबित हो रही है. वह आगे कहते हैं, ‘शिक्षा प्रणाली में एक सुधार होना चाहिए, अन्यथा बेरोजगारी की समस्या केवल बढ़ेगी, और सरकार कुछ भी करने की स्थिति में नहीं रह सकेगी.’
त्यागी कहते हैं, ‘हमने सुना था और हमें सभी ने कहा था कि आधुनिक समय में एक इज्जतदार जिंदगी जीने के लिए एमबीए कितना जरूरी है, इसलिए हमने अपना दिल और आत्मा इसी में लगा दिया. लेकिन अब मैं गांव वापस आ गया हूं और अपना पालन-पोषण मवेशियों के भरोसे कर रहा हूं.’
‘मैं नहीं जानता यह किसका दोष है, लेकिन पढ़ाई इसके लिए नहीं की थी.’
वह कहते हैं, ‘मैं नहीं समझता की देश में इससे पहले कभी ऐसा असक्षम सरकार कभी थी. वह बात करते हैं युवा की और उनके पोटेंशियल की लेकिन सरकार ने बाजार से सारी नौकरियां लगभग खत्म कर दी हैं. वह चाहते हैं कि लोग अपना ध्यान सिर्फ हिंदुत्व पर नजर रखें, और जब फेल होने लगते हैं तो लोगों का ध्यान पाकिस्तान की तरफ मोड़ देते हैं. और लोग खुश होकर उनका अनुसरण करते हैं.
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हालांकि, पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई ऐसे हिंदू से मुलाकात हुई जिन्होंने कहा कि वह भाजपा को ही वोट देंगे चाहें उन्हें कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों न करना पड़े, या फिर उनकी आर्थिक स्थिति कैसी भी क्यों न हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि ‘लार्जर दैन लाइफ’ देशभक्त की है, जिसका दिल सही जगह पर है. इन धारणा के साथ मिलकर ही पहली बार भारतीय इतिहास में एक सरकार हिंदू के गौरव को बहाल कर रही है जो भारतीय जनता पार्टी के वोटों को आश्वसत करने के लिए काफी है. और उनलोगों के लिए भी जो एक गंभीर वित्तीय संकट में फंसे हैं.
बनैरा गांव के सेवक राम 70 साल के हैं, वह कहते हैं गुस्सा एक तरफ है लेकिन मोदी के लिए मतदान करना दूसरी बात है. यही भावना पूरे गांव में नज़र आती है.
(रैम्या नायर के इनपुट के साथ)
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