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Thursday, 26 December, 2024
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योगी सरकार ने बताई जबरन धर्मांतरण की परिभाषा, इसमें शामिल है नौकरी का लालच या फ्री नर्स ट्रेनिंग

राज्य के गैरकानूनी धर्मांतरण कानून को निरस्त करने की मांग वाली याचिकाओं के बारे में जवाब देते हुए यूपी सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक हलफनामा दायर किया. नए कानून का बचाव करते हुए इसमें कहा गया है कि संविधान 'किसी भी तरह के जबरन धर्मांतरण' से घृणा करता है’.

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नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को बताया है कि यदि मिशनरियों का कोई समूह अनुसूचित जाति समुदाय के बाहुल्य वाले किसी मोहल्ले में जाता है, उन्हें नौकरी अथवा मुफ्त में नर्स (परिचारिका) के प्रशिक्षण कार्यक्रम का आश्वासन देता है, और फिर उनसे ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के लिए उनकी सहमति प्राप्त करता है तो ऐसा धर्मांतरण स्वतंत्र इच्छा से हुआ नहीं माना जायेगा, बल्कि इसे फोर्सफुल या मजबूर करके किया गया धर्मांतरण कहा जायेगा.

राज्य सरकार द्वारा पिछले सप्ताह उच्च न्यायालय के समक्ष दायर किए गए एक हलफनामे में कहा गया है कि इसी तरह मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत किसी गैर-मुस्लिम के साथ विवाह को वैध ठहराने के लिए धर्मांतरण की आवश्यकता होती है और इसे भी जबरन धर्मांतरण माना जायेगा.

इस दस्तावेज़ को उत्तर प्रदेश के गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021 को निरस्त करने की मांग करने वाली याचिकाओं के जवाब में प्रस्तुत किया गया और इसमें इस आधार पर नए कानून की अधिघोषणा का बचाव किया कि भारत का संविधान ‘किसी भी प्रकार के जबरन रूपांतरण’ से नफरत करता है, खासकर धर्म के मामले.

हलफनामे में कहा गया है, ‘एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के नाते, यह राज्य का सबसे परम कर्तव्य बन जाता है कि वह अपने नागरिकों को किसी भी तरह के गैर-कानूनी या बलपूर्वक धर्मांतरण से बचाए, ताकि उनके विचार, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता तथा इसके साथ-साथ समानता या सामाजिक स्थिति की रक्षा की जा सके और सभी व्यक्तियों की गरिमा को सुनिश्चित किया जा सके.’

इसके बाद यह उस सब चीजों को प्रदर्शित करता है जिनकी बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के रूप में व्याख्या की जा सकती है. हलफनामे में दिए गए स्पष्टीकरण के अनुसार, किसी भी तरह के गलत लाभ के लिए किए गए धर्मांतरण को वैध धर्मांतरण नहीं माना जाएगा.

इस हलफनामे में दो ऐसे उदाहरण भी शामिल हैं जिन्हें बलपूर्वक किया गया धर्मांतरण नहीं माना जा सकता है.

पहले उदाहरण वाली स्थिति में राज्य का कहना है कि अगर कोई बच्चा जो ईसाई नहीं है और फिर भी एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ता है, वहां सुबह की प्रार्थना में भाग लेता है, और होली बाइबिल जैसा धर्मशास्त्र पढ़ता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक धर्मांतरित शख्श है, या फिर उसने ईसाई धर्म में विश्वास करना शुरू कर दिया है.

हलफनामे में कहा गया है, ‘ऐसे गैर-ईसाई धर्म के छात्र अपने स्वयं के धर्म में विश्वास करते हैं और उनकी सामाजिक स्थिति की समानता या फिर गरिमा की कोई हानि नहीं होती है और साथ ही उनके पास एक विशेष संस्थान में अध्ययन करने का विकल्प है.’

दूसरे उदाहरण के रूप में, यह हलफनामा किसी गैर-ईसाई परिवार के साथ एक किरायेदार के रूप में रहने वाले एक ईसाई परिवार के बारे में बात करता है. यहां वह किरायेदारी के नियमों और समझौतों की शर्तो के तहत कुछ पूर्व-प्रतिबंधों का पालन करने के लिए बाध्य है, जिसमें शराब नहीं पीना – यहां तक कि उत्सव के अवसरों पर भी नहीं – अथवा मांसाहारी भोजन न करना शामिल है. साथ ही, परिवार को मकान मालिक द्वारा कुछ रीति रिवाजों का पालन करने के लिए कहा जाता है जो ईसाई धर्म के अनुरूप नहीं है. इस हालत में राज्य ने तर्क दिया है कि चूंकि किरायेदार को चर्च में जाना बंद करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है, अतः यह बलपूर्वक धर्मांतरण के सामान नहीं माना जायेगा.


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‘चुनाव की आजादी न होना, गरिमा की हानि’

हलफनामे में यह भी बताया गया है कि आखिर क्यों मिशनरी अनुसूचित जाति के लोगों को मुफ्त व्यावसायिक प्रशिक्षण या नौकरियों के वादे के साथ धर्मांतरण करवाने को को जबरन धर्मांतरण के समान माना गया है. उसमें कहा गया है, ‘यहां (निजी) पसंद की कोई आजादी नहीं है, बल्कि इस तरह का ‘चुनाव’ कुछ प्रलोभनों द्वारा प्राप्त किया गया है और जिस समुदाय में उन्हें धर्मांतरण के बाद शामिल किया जा रहा है, वह इसके बाद भी उन्हें धर्मान्तरित लोगों के रूप में देखता है. यहां सामाजिक स्थिति की भी कोई समानता नहीं है, अंतरात्मा की स्वतंत्रता की तो बात ही छोड़िए.’

इस हलफनामे में एक मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के बीच अंतर-धार्मिक विवाह के रूप में एक कथित तौर पर बलपूर्वक धर्मांतरण का दूसरा उदाहरण भी शामिल किया गया है. यूपी सरकार के अनुसार, कोई वयस्क हिंदू महिला किसी मुस्लिम पुरुष से शादी करने का फैसला लेती है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ उसे पत्नी का पूर्ण दर्जा नहीं देता है और जब तक वह धर्म परिवर्तन नहीं करती है, तब तक उसे उनकी विरासत से वंचित किया जा सकता है. हलफनामे में कहा गया है, ‘जब हिंदू महिला अपने विश्वास का पालन करना छोड़ देती है, मूर्तियों की पूजा करना बंद कर देती है तथा इस्लाम को अपने धर्म के रूप में स्वीकार कर लेती है (और साथ ही शादी के बाद सम्बन्धों की स्थापना कर लेती है) तभी उसे एक वैध विवाह में शामिल हुआ माना जाएगा.’

राज्य सरकार के विचार से भले ही कोई हिंदू महिला अपने विश्वास को छोड़ना नहीं चाहती हो, फिर भी उसे अपने विवाह को वैध बनाने के लिए ऐसा करना पड़ता है. राज्य के तर्क के अनुसार, यह जबरन धर्मांतरण के मामला माना जाएगा.

दायर किए गए हलफनामे में कहा गया है, ‘एक बार फिर से यहां, चुनाव की आजादी का प्रयोग तो होता है, लेकिन गरिमा की हानि होती है. साथ ही धर्मांतरण को किसी स्वतंत्र विकल्प के रूप में नहीं अपनाया जाता है, बल्कि यह एक पर्सनल लॉ के हस्तक्षेप के कारण मजबूरी की वजह से होता है.’

यह स्वीकार करते हुए कि किसी व्यक्ति की प्रेम करने की भावना ‘निर्विवाद रूप से निजता के दायरे आती है’; राज्य ने तर्क दिया कि इसका यह मतलब नहीं है कि उसे एक कल्याणकारी राज्य के रूप में यह सुनिश्चित करने की अपनी जिम्मेदारी का परित्याग कर देना चाहिए कि ऐसी भावना को बाह्य कारकों, जैसे कि जबरदस्ती और धोखा, से खतरा न हो रहा हो.

हालांकि, इस मामले के याचिकाकर्ताओं में से एक के वकील शाश्वत आनंद ने राज्य के इन जवाबी तर्कों (काउंटर-आर्ग्यूमेंट्स) को ‘चौंकाने वाला’ बताया.

आनंद ने दिप्रिंट को बताया, ‘राज्य इस तथ्य की अनदेखी कर रहा है कि किसी भी पत्नी और उसके बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के अलावा, किसी साथी द्वारा दूसरे के विश्वास (धर्म) को अपनाया जाना पारिवारिक एकीकरण और सामाजिक स्वीकृति की दृष्टि से विवाह का एक अभिन्न पहलू है.’

उनका कहना है कि यह हलफनामा पूरी तरह से अस्पष्टता और अतिव्याप्ति के दोषों से ग्रस्त है, तथा समाज में एक तरह के ‘सांप्रदायिक रंगभेद’ की स्थिति पैदा करता है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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