बेंगलुरू: पिछले कुछ दिनों में ये विचार ज़ोर पकड़ता जा रहा है कि वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से हुई संभावित लीक में, सार्स-सीओवी-2 वायरस बाहर आ गया, जिससे कोविड-19 महामारी फैल गई. जो लोग वायरस के स्रोत का पता लगाने की मांग कर रहे हैं, उनका कहना है कि इस बात की जांच की जाए, कि किसी प्राकृतिक पशुजन्य संक्रमण की बजाय, क्या सार्स-सीओवी-2 वायरस पर, किसी लैबोरेट्री (लैब) में शोध किया रहा था, जहां से किसी जैव सुरक्षा समस्या के चलते वो लीक हो गया या इसे इंसानों को संक्रमित करने के लिए, उसी लैब में तैयार किया गया था.
जहां विशेषज्ञों तथा वायरस विज्ञानियों ने, बाद वाले विचार को ख़ारिज किया है, वहीं उनमें से कुछ ने ‘लैब लीक’ की अवधारणा को पूरी तरह क्लीन चिट नहीं दी है, जिसमें हो सकता है कि कोई रिसर्चर संक्रमित हो गया हो, और फिर उससे वायरस बाहर फैल गया हो. लेकिन, जहां ऐसी संभावना की जांच की मांग बढ़ती जा रही है, वहीं वैज्ञानिक संसार के बहुत दूसरे लोगों को यक़ीन है, कि ये वायरस जैव सुरक्षा विफल होने से लीक हुआ.
जो लैब्स पैथोजंस पर रिसर्च करती हैं, उन्हें कई स्तर पर जैव सुरक्षा उपाय करने होते हैं, जिनकी सीमा अध्ययन किए जा रहे पैथोजंस से हुए, संक्रमण की गंभीरता पर निर्भर करती है. ऐसी तमाम एहतियात के बावजूद, लैब से निकले आकस्मिक संक्रमण के, किसी संक्रमित उपकरण, या फिर लैब में काम करने वालों के ज़रिए, बाहर निकलने के मामले सुनने में आए हैं.
दिप्रिंट कुछ ऐतिहासिक जैव सुरक्षा दुर्घटनाओं पर नज़र डाल रहा है, वो कैसे हुईं, और वैज्ञानिकों को वायरस की उत्पत्ति, तथा उस पर हो रही चर्चा पर चिंता क्यों हो रही है.
जैव सुरक्षा का इतिहास
वैज्ञानिक समुदाय उन वायरसों से संयोगवश हुए संक्रमण की दुर्घटनाओं से नावाक़िफ नहीं है, जिनपर शोधकर्त्ता काम करते हैं. इनमें से अधिकतर लैब्स में हुए संक्रमण (एलएआई) होते हैं.
एलएआईज़ बेक्टीरिया, वायरसों, तथा परजीवियों से होते हैं. सबसे ज़्यादा संक्रमण शरीर की खुली जगहों में मौजूद म्यूकस मेम्ब्रेन्स के संपर्क, सांस लेने, भोजन या पानी में मौजूद पैथोजन, या बीमारी वाले किसी वेक्टर से होते हैं. ये संक्रमण ख़ासकर सीरिंज जैसे, किसी संक्रमित उपकरण से भी हो सकता है.
एलएआई की पहली घटना कथित रूप से 1890 में हुई थी, लेकिन तक़रीबन एक सदी के बाद जाकर, पैथोजंस को हैण्डल करने और इंसानी बीमारी के बीच के संबंध को अच्छे से समझा जा सका. संक्रमण के बारे में जानकारी, संयोग से लुई पैस्च्योर और रॉबर्ट कोच के समय में, ‘जर्म थ्योरी’ की व्यापक स्वीकार्यता के साथ बढ़ी. चिकित्सा में बीमारी की जर्म थ्योरी ये है, कि कुछ बीमारियां जीवाणुओं, या सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से पैदा होती हैं.
कीटाणु विज्ञान में जैव सुरक्षा के उपाय सबसे पहले, 1970 के दशक में विशेषरूप से उच्च आय वाले देशों में, बाक़ायदा तौर पर लागू होने शुरू हुए. इनमें नियंत्रण के उपायों के साथ साथ, सही इस्तेमाल के लिए निजी सुरक्षा उपकरण तथा कर्मियों की ट्रेनिंग आदि शामिल थीं.
एलएआईज़ के अलावा, क्लीनिकल रिसर्च में बायो-टेक्नॉलजी की ओर से भी ख़तरे की संभावना बनी रहती है, इसलिए इसके जोखिम को देखते हुए, ऐसे काम में लगीं लैब्स, अच्छे से सुसज्जित रहती हैं.
सबसे बड़ा ख़तरा वहां से आता है, जिसे गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च कहा जाता है, जिसमें सूक्ष्मजीवों को सुरक्षित वातावरण में, इस तरह तैयार किया जाता है, कि उनके अंदर उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अधिक संचरणशीलता और संक्रामकता जैसी क्रियाशील बढ़त पैदा हो जाए. ये पूर्वानुमानित शोध होता है, जिसे ये समझने के लिए किया जाता है, कि भविष्य की बीमारियां कहां से आ सकती हैं, और सूक्ष्म कीटाणु खुले में परिवर्तित होकर अचानक घातक बन सकते हैं.
गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च आमतौर से, बेहद नियंत्रित और सुरक्षित वातावरण में की जाती है.
जैव सुरक्षा स्तर
ऐसे नियंत्रित वातावरण की सुरक्षा के मूल्यांकन का एक तरीक़ा, जैव सुरक्षा के स्तरों से हो सकता है. ये पैथोजन की सुरक्षा के स्तर को चिन्हित करते हैं, जो किसी बंद सुविधा में जैव नियंत्रण उपायों की सीमा को इंगित करते हैं. ये अलग अलग देशों में बायो सेफ्टी लेवल (बीएसएल), सुरक्षा स्तर (पीएल) या अन्य नामों से जाना जाता है, ये स्तर समान ही रहता है, और एक से चार तक होता है.
बीएसएल-1 उन अच्छे से समझे गए पैथोजंस के साथ काम करने के लिए होता है, जो स्वस्थ इंसानों को संक्रमित नहीं करते. सावधानियों में लैब में घुसने से पहले, और निकलने के बाद, अनिवार्य रूप से हाथ धोना शामिल है. लैब को मुख्य बिल्डिंग से अलग रखने की ज़रूरत नहीं होती. स्टाफ को लैब के अंदर, कुछ खाने या पीने की मनाही होती है, और कड़े निस्तारण के साथ, शुद्धिकरण प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है.
बीएसएल-2 ज़्यादा सुरक्षित होता है, और इसमें जैव सुरक्षा के अतिरिक्त उपाय किए जाते हैं. इनमें पैथोजंस को हैण्डल कर रहे लोगों की ट्रेनिंग, लैब तक सीमित पहुंच, और ऐसी प्रक्रियाएं शामिल हैं, जो विशिष्ट उपकरणों के अंदर एयरोसोल्स पैदा कर सकती हैं. एचआईवी तथा हेपिटाइटिस समूह के वायरस कुछ ऐसे पैथोजंस हैं, जो बीएसएल-2 जांच के उपयुक्त होते हैं.
बीएसएल-3 ऐसे पैथोजंस पर काम करने के लिए उपयुक्त होता है, जो सांस की नली के रास्ते संक्रमित कर सकते हैं. अधिक सुरक्षा के लिए, जहां संभव हो, वहां स्टाफ का प्रतिरक्षण, और टीकाकरण किया जाता है. नियमित पीपीई से पूरे शरीर को कवर कर लिया जाता है, और कई दरवाज़ों तथा नियंत्रित दबाव के वेंटिलेशन सिस्टम के ज़रिए, लैब को अलग रखा जाता है, ताकि सांस वाला पैथोजन बचकर न निकल पाए.
सार्स-सीओवी-2 वायरस की स्टडी, बीएसएल-3 लैब्स में की जाती है, जैसे कि दूसरे कोरोनावायरसों, टीबी बेक्टीरिया, और चिकिनगुनिया वायरस की होती है.
बीएसएल-4 लैब्स का वास्ता ऐसे माइक्रोब्स से होता है, जो सूक्ष्म कणों के रूप में आसानी से फैल जाते हैं. ऐसे पैथोजन से होने वाली बीमारी, अकसर घातक साबित होती है, और कोई इलाज या टीका उपलब्ध न होने की वजह से, ऐसे मामलों को सावधानीपूर्वक अलग रखना होता है. इन लैब्स के अंदर जै वसुरक्षा कैबिनेट्स होते हैं, जिनके अंदर सारा काम अंजाम दिया जाता है, जहां शोधकर्त्ता शीशे की कैबिनेट के बाहर बैठकर, ग्लव्ज़ चढ़े हुए अपने हाथ अंदर डालते हैं. किसी धारदार चीज़ की इजाज़त नहीं होती, ताकि ग्लव्ज़ को क्षति न पहुंचे.
लैब के अंदर दाख़िला एयरलॉक्स के द्वारा ही मिलता है, और उसका रिकॉर्ड रखा जाता है. सभी लैब कर्मियों को शुद्धिकरण शावर से गुज़रना होता है, जहां से वो अपने सूट उतारने के लिए, एक आइसोलेशन कक्ष में जाते हैं, जिसका दबाव ऐसा होता है कि बाहर की हवा अंदर नहीं आ सकती. इसके बाद पूरे शरीर का शावर होता है. कैबिनेट से बाहर निकलने वाली हर चीज़ को, कीटनाशकों में डुबोना होता है.
बीएसएल-4 का इस्तेमाल इबोला, नीपा, और हेंद्रा वायरसों पर काम करने के लिए किया जाता है. यहां पर बीएसएल-4 पैथोजंस से मिलते जुलते, ऐसे पैथोजंस पर काम किया जाता है, जिसके बाद उनकी प्रकृति तय की जाती है. अब समाप्त हो चुके छोटी चेचक वायरस की स्टडी के, सिर्फ दो केंद्र हैं जो जो रूस व अमेरिका में हैं, और ये दोनों बीएसएल-4 लैब हैं.
मंगल या एंसेलाडस जैसे स्थानों से, जहां पानी मौजूद है और जहां रहा जा सकता है, ज़मीन पर लौटकर आए मिशन्स को, अपनी सामग्री को पहले बीएसएल-4 लैब्स में जमा कराना होता है, ताकि उन्हें ग्रहों के संक्रमण से सुरक्षित किया जा सके.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलजी (पुणे), सीसीएमबी-हैदराबाद, और हाई सिक्योरिटीएनिमल डिज़ीज़ लैबोरेटरी (भोपाल), भारत की तीन बीएसएल-4 लैब हैं.
जैव सुरक्षा घटनाएं
अब स्थापित हो चुके सिस्टम से पहले, जैवसुरक्षा की घटनाएं होना कोई असामान्य बात नहीं थीं.
लैब कर्मियों के उन पैथोजंस से संक्रमित हो जाने की घटनाओं का सिलसिला, जिन पर वो काम कर रहे होते थे, चिकित्सा दस्तावेज़ों में पिछली सदी की शुरूआत तक जाता है.
अधिकतर मामलों में आमतौर पर, एक या दो लोग संक्रमित होते थे, जो कभी कभी संक्रमित सुईं ख़ुद को चुभा लेने से भी हो जाता था. इस मामले में सबसे उल्लेखनीय और दुर्भाग्यपूर्ण मौत, जानी-मानी ऑस्ट्रेलियाई सूक्ष्म जीव विज्ञानी डोरा लश की थी, जिन्होंने 1943 में ग़लती से, एक ऐसी सुईं अपनी उंगली में चुभा ली, जिसपर टाइफस का एक घातक स्ट्रेन मौजूद था.
बहुत से मामलों में या तो संयोगवश संक्रमित हुए जानवर शामिल थे, या वो निकल भागे थे. एक अकेले व्यक्ति से जुड़ी घटनाओं का संबंध, सुरक्षा नियमों की अवहेलना, दुराचार या कमज़ोर सुरक्षा से जोड़ा गया है.
छोटी चेचक से हुई बिल्कुल आख़िरी ज्ञात मौत, 1978 में मेडिकल फोटोग्राफर जैनेट पारकर की हुई, जब उनके ऑफिस के नीचे एक लैब से वायरस लीक हो गया था. 12 साल पहले भी यही लैब, छोटी चेचक की एक और लीक का स्रोत रही थी.
लेकिन, वायरस लीक होने की बहुत सी घटनाएं हुई हैं, जिनके बाद प्रकोप फैले, और बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुईं. 1979 में रूस से एंथ्रेक्स के बीजाणु दुर्घटनावश रिलीज़ हो गए, जिससे कम से कम 66 मौतें हुईं. नाइजीरिया की एक लैब 1963 से 1977 के बीच,15 साल तक बहुत से वायरस ‘लीक’ करती रही, जिसके नतीजे में क़रीब 1,000 संक्रमण, और 50 से अधिक मौतों की घटनाएं हुईं. चीन में, पिछले साल ही, एक बायो-फार्मास्यूटिकल फैक्ट्री से निकलने वाली गैस से, 6,000 से अधिक निवासी ब्रूकलोसिस की चपेट में आ गए, चूंकि एक्सपायर हो चुके कीटनाशक, अनुपयोगी गैस से बेक्टीरिया को नहीं मिटा सके.
गेन ऑफ फंक्शन या ‘दोहरे इस्तेमाल’ वाली रिसर्च (ऐसी रिसर्च जिसकी वैज्ञानिक मंशा अच्छी होती है, लेकिन जिसमें नुक़सान की संभावना बहुत होती है) के परिणाम चिंताजनक रहे हैं, हालांकि इनसे इंसानों की बजाय, वही जानवर प्रभावित होते हैं, जिनपर परीक्षण किए जा रहे होते हैं.
इस क्षेत्र में म्यूटेट हो चुके एवियन फ्लू वायरस पर रिसर्च, सबसे विवादास्पद विषयों में से एक है.
एक स्टडी घातक एच5एन1 एवियन इंफ्लुएंज़ा वायरस को बदलने में कामयाब हो गई, जो नेवलों के बीच- जिन्हें इंसानी सिस्टम की एक क़रीबी नक़ल माना जाता है- हवा से संक्रमण फैलाने में सक्षम हो गया, जिससे अमेरिका में इस वायरस पर चल रहे काम को लेकर, चिंताएं बहुत बढ़ गईं.
इसकी वजह से अमेरिका में 2012 में, पहले कुछ समय के लिए, गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च पर रोक लगाई, और फिर तीन साल के लिए उसकी फंडिंग रोक दी गई.
लेकिन, लैबोरेटरीज़ से कोरोनावायरसों के लीक होने के कोई दस्तावेज़ी रिकॉर्ड नहीं हैं, चाहे वो दोहरे इस्तेमाल की रिसर्च हो, या रोग चिकित्सा के लिए.
कोविड की जांच में लैब लीक
लैब हादसे की थ्योरी तब और मुखर हुई, जब प्रसिद्ध रिसर्चर्स के एक ग्रुप ने, साइंस पत्रिका में लिखते हुए, वायरस की उत्पत्ति की जांच किए जाने की मांग की, चूंकि लैब से लीक होने की संभावना को ख़ारिज करने लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे.
वॉल स्ट्रीट जर्नल की एक हालिया ख़बर ने, जिसमें दावा किया गया कि नवंबर 2019 में, वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलजी के रिसर्चर्स को निमोनिया हो गया था, इस तरफ और ध्यान आकर्षित किया, लेकिन बाद में अविश्वस्नीय सूत्रों पर भरोसा करने के लिए, ख़बर की आलोचना की गई है.
ये थ्योरी फिर से चर्चा में आ गई है, चूंकि अमेरिकी राष्ट्रपति ने ख़ुफिया समुदाय से कहा, कि वायरस के मूल का पता लगाने के अपने प्रयास, ‘फिर से बढ़ा दें’.
लैब दुर्घटना थ्योरी की बहुत आलोचनाएं हुई हैं. वैज्ञानिकों ने इनमें से एक प्रमुख आलोचना की ओर ध्यान खींचा है, जो ये है कि चीनी वैज्ञानिकों ने, सार्स-सीओवी-2 वायरस पर काम किया होगा, और निष्कर्षों पर पहुंचे होंगे, लेकिन इस पर उन्होंने कुछ प्रकाशित नहीं किया, जबकि दूसरे कोरोनावायरसों के निष्कर्ष उन्होंने प्रकाशित किए.
जहां बहुत से वैज्ञानिक लैब लीक की संभावना के प्रति खुला रवैया रखते हैं, और उसे ख़ारिज करने के लिए जांच की मांग कर रहे हैं, वहीं वैज्ञानिक समुदाय विवाद की नेचर को लेकर, गहराई से बटा हुआ है.
बहुत से वैज्ञानिकों को चिंता है, कि किसी लैब से लीक जैसे दावे के लिए, मज़बूत सबूत होने चाहिएं, और जांच की मांग आरोप जैसी लगती है. इससे एक कूटनीतिक समस्या भी खड़ी होती है, क्योंकि चीन अतीत में अवांछित दबाव के सामने, ख़ामोशी इख़्तियार करने के लिए जाना जाता रहा है.
सार्स-सीओवी-2 वायरस की उत्पत्ति को लेकर निरंतर जांच चल रही है. लेकिन, किसी पैथोजन के स्रोत या उत्पत्ति का पता न चला पाना, कोई नई बात नहीं है. हमें अभी भी मालूम नहीं है, कि इबोला वायरस किस जानवर से आया है; हाल के दिनों में इंसानों में आ जाने वाला, सार्स-सीओवी-2 कोई ऐसा पहला वायरस भी नहीं है, जिसका पता हम नहीं लगा पाए हैं.
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