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Friday, 22 November, 2024
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राफेल कीमतों पर पर्दा डालकर, बोफोर्स जितनी बड़ी मुसीबत मोल रहे हैं मोदी

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सैन्य खरीदों को पारदर्शी होना चाहिए। लेकिन मोदी सरकार राफेल डील पर अड़ियल रवैय्या अपनाकर एक नई खूनी जंग की शुरुआत कर रही है

आज से चार दशक पूर्व (1977-78) जनता पार्टी की अगुआई वाली सरकार ने भारतीय वायु सेना के लिए ऐंग्लो-फ्रेंच जैगुआर खरीदने का फैसला लिया था। तब से अब तक किसी भी पश्चिमी देश के साथ हुई डील विवादास्पद ही रही है। उनमें से अधिकांश बड़े एवं जीवंत राजनैतिक घोटालों का विषय बन चुके हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस जुर्म में आजतक न तो किसी को सज़ा हुई है और न ही कोई जेल गया है, ‘चोरी’ हुआ एक अदद डॉलर भी नहीं लौटाया गया है।

भारतीय राजनैतिक-सैन्य परिदृश्य की बात करें तो 1977 के उपरांत दो मुख्य परिवर्तन हुए हैं। नंबर एक, कांग्रेस की हार की बदौलत राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति की शुरुआत हुई। दूसरे, नई सामरिक चुनौतियों एवं सोवियत तकनीक की अपनी सीमाओं के कारण भारत ने पश्चिमी हथियार उत्पादकों का रुख किया। इसके अलावा मोरारजी सरकार स्वयं भी सोवियत रूस का ग्राहक बनकर नहीं रहना चाहती थी।

1980 में इंदिरा गांधी की वापसी होने के साथ ही सोवियत रूस और भारत के संबंध फिर से सहज हो गए। हालांकि राजीव गांधी ने आधुनिकीकरण की ज़रूरत समझी और इन बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास किया। गड़बड़ी बस यह है कि पश्चिम से किये उनके सारे सैन्य सौदे, स्वीडिश बोफोर्स तोपें, टाइप 209 जर्मन पनडुब्बियाँ, यहाँ तक कि फ्रेंच मिराज -2000 भी, घोटाले बनकर रह गए। पहले दो तो अबतक हमारी सेना एवं राजनीति पर एक बदनुमा दाग की तरह मौजूद हैं।

मोदी सरकार ने एक ताज़ा बोफोर्स चार्जशीट डालकर देश को एक नई मुश्किल में डाल दिया है। ऐसा तब किया गया है जब इस कांड के सारे आरोपियों, विन चड्ढा और राजीव गांधी से लेकर क्वात्रोची, को मरे हुए सालों हो चुके हैं। एक भारतीय सैन्य घोटाले में ही स्वर्ग से लेकर नर्क तक पहुंचने की क्षमता है।

सैन्य आयात न निगलते बनते हैं न ही उगलते। 1978 के बाद हुआ हर महत्वपूर्ण अधिग्रहण कांग्रेस और भाजपा के बीच खूनी लड़ाई का कारण बनता आया है। वाजपेयी सरकार पर भी कांग्रेस ने ताबूत घोटाले एवं तहलका स्टिंग के माध्यम से हमले किये थे।

ह दो ‘घोटाले’ हमारी यादों में ताज़ा हैं, इस बात के बावजूद कि पहले मामले में कोई गड़बड़ी नहीं थी और दूसरे मामले में कोई डील हुई ही नहीं थी: ज़्यादा से ज़्यादा यह एक राष्ट्रीय प्रदर्शन था जिसके माध्यम से यह दिखाया गया कि एक लाभप्रद सैन्य डील को हासिल करने के लिए रिश्वत या लालच देना भी चलता है।

यूपीए के दस वर्षों के शासनकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर अपने पूर्ववर्ती (जार्ज फर्नांडीस) पर निशाना नहीं साधा जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने मंत्रालय से भी हाथ धोना पड़ा। उनके बाद ए के एंटनी ने आठ सालों तक (किसी भारतीय रक्षामंत्री का सबसे लंबा कार्यकाल) यह जिम्मेदारी तो संभाली लेकिन काम कुछ नहीं किया। 1998 के बाद के दो दशकों में भारतीय सेना की मुस्तैदी में कमी आयी है। पाकिस्तान पर हमारी पुरानी बढ़त अब उतनी तीखी नहीं रही और चीनी सीमा पर भी रक्षात्मक अवरोधों की मजबूती घटी है।

एक पल के लिए ज़रा ए.के. एंटनी को याद करें, वह व्यक्ति जो खतरों से इतना दूर भागते थे कि समय-समय पर मैंने उन्हें “लेटेक्स में लिपटे” संत एंटनी, भारतीय राजनीति के बापू नाडकर्णी: जो न रन बनाने देगा, न ज़्यादा बल्लेबाज़ों को आउट करेगा, भी कहा है

एंटनी के लिए मुश्किल की स्थिति तब आयी जब उन्होंने मनमोहन सिंह की कैबिनेट का सबसे मुखर अमरीका विरोधी होने के बावजूद भारत एवं अमरीका के बीच की सबसे बड़ी सैन्य डील ,सिंगल वेंडर, गवर्नमेंट टु गवर्नमेंट के तहत C-17 एवं कि-130 मालवाहक, चिनूक हेलीकॉप्टर एवं नेवी के लिए खरीदे गए P-8i, की नींव रखी।

राजनीतिज्ञ कई बार मूर्खतापूर्ण फैसले लेते हैं और इसके पीछे उनके अपने कारण होते हैं, जिसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ती है। इस मामले में यह कारण है सेना। 1978 के बाद खरीदी गई कोई भी पश्चिमी प्रणाली अर्जन एवं विकास के चक्र को पूरा करने में नाकाम रही है। भारतीय वायु सेना इसका एक अच्छा उदाहरण है : तीन स्क्वाड्रन इसके, तीन उसके, स्पेयर पार्ट भी पुराने हवाईजहाजों से निकाले हुए। अगली बड़ी भूल होनेवाली है राफेल के केवल दो स्क्वाड्रन। राफेल जैसे एक ज़बरदस्त वायुयान के होते हुए हमारा इंफ्रास्ट्रक्चर एवं तकनीकी ज्ञान केवल दो स्क्वाड्रनों के लिए पर्याप्त होगा। वैसे भी राफेल के चारों ओर घोटाले का एक आवरण चढ़ जाने की वजह से इसका अपनी पूर्ण क्षमता को पाना मुश्किल होगा। भारत अभी से ही नए यानों (F-16/18, ग्रिपेन वगैरह)की खोज में लगा है। और फिर तेजस तो है ही।

सैन्य खरीदों को लेकर चल रही इस मुठभेड़ का अंत आवश्यक है। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने राफेल डील को लेकर पारदर्शिता न दिखाकर एक नई मुठभेड़ का आगाज़ कर दिया है। सरकार ने घमंड दिखाते हुए संसदीय कमेटी से भी इस डील पर बातचीत करने से मना कर दिया है। मोदी भी वही गलती दोहरा रहे हैं जो राजीव गांधी ने बोफोर्स के दौरान की थी। इस गलती की बदौलत राजीव की सरकार तो गिरी ही, उन्होंने अपने सबसे करीबी मित्र, अरुण सिंह एवं वीपी सिंह भी खो दिए। सेना के लिए बोफोर्स प्रोग्राम रोक दिया गया वह अलग।

सरकारें बदलती हैं पर एक देश की सैन्य ज़रूरतें नहीं बदलतीं। यह मोदी सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह राफेल को नया बोफोर्स बनने से रोकें ।

शुरुआत सैन्य खरीदों पर चढ़े रहस्य के आवरण को हटाने से होनी चाहिए। कई मिथकों को तोड़े जाने की ज़रूरत है। भारत विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है, यह सुनकर हमें गर्व होता है। पर दूसरी तरह से देखें तो हालात पूरी तरह से अलग दिखते हैं। हम विश्व की चौथी सबसे बड़ी सेना रखने के बावजूद हथियारों के घरेलू उत्पादन के मामले में टॉप तीन के बाकी देशों, अमरीका, रूस एवं चीन से बहुत पीछे हैं।

पिछले दशक के दौरान हमारे सैन्य आयातों का सालाना औसत केवल 4 बिलियन डॉलर (करीब 28,000 करोड़ रुपये) रहा है। तुलना के लिए : हमारे पंचवर्षीय सैन्य आयात हमारे एक साल में किये गए सोने के आयात का दो तिहाई , रिलायंस इंडस्ट्रीज के कुल आयात का दसवां हिस्सा एवं भारत के सबसे बड़े पीएसयू में से एक, इंडियन ऑयल कॉर्प के आयात का सातवां हिस्सा हैं।

सैन्य खरीदें घोटालों की तरह दिखती हैं और उसके अपने कारण हैं – विक्रेताओं की बहुतायत, एजेंट, लॉबिस्ट, फिक्सर वगैरह। इसके अलावा सैन्य हथियारों से जुड़ी एक माचो सेक्स अपील एवं जनता में इन मुद्दों को लेकर अज्ञान भी महत्वपूर्ण कारण हैं। सबसे बड़े सैन्य आयातक होने का यह मतलब कतई नहीं कि हम सैन्य व्यवसाय में लगे इन चोरों को खुली छूट देकर देश को लूटने दे सकते हैं। जबतक हम “हम सब चोर हैं” वाली मानसिकता का खात्मा नहीं करते तबतक सेनाएं इसका खामियाजा उठाती रहेंगी। लेकिन उसके लिए सैन्य आयतों को लेकर चल रही इस लंबी लड़ाई को खत्म करना होगा।

मोदी सरकार ऐसा कर सकती है और उसका सबसे आसान तरीका है राफेल डील को लेकर पूर्ण ईमानदारी एवं निष्कपट होना। इस सरकार को वाजपेयी, जसवंत सिंह एवं मुलायम सिंह यादव से सीख लेने की ज़रूरत है जिन्होंने अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर रूस से सुखोई-30 विमानों की खरीद को सफलतापूर्वक पूरा किया था। अगर अब भी यह सरकार अपने अड़ियल रवैये पर टिकी रहकर विपक्ष को अपने भरोसे में नहीं लेती तो वह दिन दूर नहीं जब बोफोर्स घोटाले की जगह राफेल घोटाला ले लेगा।

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