रांची: झारखंड की राजधानी रांची से करीब 230 किलोमीटर सारंडा के किरिबुरू बॉक्साइट माइंस के नजदीक का गांव है दुबिल. यहां लगभग 150 घर हैं. गांव के गुनई चंपिया (40) माइंस में मजदूरी करते हैं. वहीं रुईदास आईंद (32) के पास कोई काम नहीं है. उनकी पत्नी सरकारी स्कूल में रसोईया है, उसी के कमाई से चार सदस्यों का परिवार चल रहा है.
गांव में गुनई चंपिया जैसे कुछेक लोग हैं. जबकि रुईदास जैसे सैंकड़ों युवक और पुरुष हैं. क्योंकि कई प्रयासों के बाद भी इन्हें माइंस में काम नहीं मिला. आसपास के गांव मरंग पोंगा, दिकू पोंगा, हतनाबुरू, दीगा में भी लोगों का यही हाल है. ये सभी गांव चिड़िया (जगह का नाम है) माइंस के नजदीक हैं.
खनन प्रभावित इलाकों के लिए डीएमएफ
इन गांवों का ये हाल तब है जब ऐसे इलाकों के विकास के लिए डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड (डीएमएफ) की स्थापना साल 2015 में की गई है. पहले तो रॉयल्टी का सौ फीसदी हिस्सा खनन प्रभावित इलाकों और लोगों को विकास पर खर्च की बात कही गई. लेकिन फिलहाल इसमें खनन से मिलनेवाली रॉयल्टी का दस फीसदी हिस्सा ही डीएमएफ के तहत प्रभावित जिलों में जमा कराए जाते हैं.
साल 2015 में ही इसे प्रधानमंत्री खनीज क्षेत्र कल्याण योजना (PMKKKY) से भी जोड़ दिया गया. ताकि खनन प्रभावित इलाकों की बेहतरी और लोगों की आजीविका के लिए विभिन्न योजनाओं को सही तरकी से लागू किया जा सके. इसके लिए डीएमएफ का पैसा इस्तेमाल हो सके.
ये फंड जमा तो किए गए, लेकिन इसका इस्तेमाल लगभग ना के बराबर किया गया. देश के सभी राज्यो में इस फंड के तहत भुगतान किया जा रहा है. जिसमें ओडिशा 5838.26 करोड़ और झारखंड 3426.69 करोड़ सबसे ऊपर हैं. यानी माइंस और उसके आसपास के इलाकों का विकास करने के लिए इन राज्यों के पास इतना पैसा है. जहां तक खर्च का सवाल है, झारखंड को उसके हिस्से का अब तक 2079.05 मिल चुका है. लेकिन उसने मात्र 750.83 करोड़ रुपए ही खर्च किए हैं.
पश्चिमी सिंहभूम जिले के इन गांवों में बेसिक सुविधा के नाम पर टूटी सड़कें और सरकारी स्कूल भर है. बिजली के तार हैं, लेकिन कई घरों में बिजली नहीं है. प्रधानमंत्री आवास नहीं, चापाकल नहीं. बेरोजगार लोग जंगल से सरगी और सियाल पत्ता तोड़कर उसे सुखाते हैं. फिर उसे बाजार में बेचते हैं. कुछ लोगों के पास थोड़ी बहुत जमीन है, सो तीन चार महीने भर इस्तेमाल हो जाए, इतना धान उपजा लेते हैं. झारखंड के सभी 24 जिले डीएमएफ के तहत आते हैं. पश्चिमी सिंहभूम के हिस्से 616.03 करोड़ रुपए आए हैं. लेकिन यहां मात्र 74.96 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए हैं.
डीएमएफ के तहत जो पैसा मिलता है वह नॉन लैप्स फंड होता है. यानी अगर शिक्षा के मद में केंद्र की तरफ से किसी राज्य को जो पैसे मिलते हैं, उसमें जितने पैसों का इस्तेमाल नहीं हो पाता है, वह उन्हें लौटाना होता है. लेकिन डीएमएफ के तहत मिला पैसा जमा ही रहता है. साथ ही यह पैसा जिलों (जिन जिलों में खनन हो रहा है, जहां खदान हैं) के खाते में जमा रहता है. न की सीधे राज्य सरकार के खाते में. हालांकि इसके खर्च की निगरानी राज्य सरकार को ही करनी होती है.
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पैसा है इन जिलों के पास
आमदनी और खर्च के लिहाज से देखें तो धनबाद को 858.28 करोड़ मिले, जबकि खर्च हुए 314.23 करोड़, पश्चिमी सिंहभूम को 616.03 करोड़ मिले, खर्च हुए 74.96 करोड़. रामगढ़ को 523.69 करोड़ मिले, खर्च हुए 231.70 करोड़. चतरा को मिले 476.17, खर्च हुए 28.73 करोड़. बोकारो को मिले 317.49 करोड़, खर्च हुए मात्र 10 करोड़.
एक रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिमी सिंहभूम जिले में प्रतिमाह 5,000 रुपए से कम कमाने वाले परिवारों की संख्या 53.8 प्रतिशत, पांच से दस हजार रुपए कमाने वाले 37.3 प्रतिशत और दस हजार कमाने वाले मात्र 8.9 प्रतिशत है. वहीं चतरा जिले में पांच से कम वाले 83.2 प्रतिशत, पांच से दस के बीच 11.8 प्रतिशत और दस हजार से अधिक कमाने वाले मात्र 5.0 प्रतिशत लोग हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि जब विकास के लिए पैसे रखे हुए हैं, फिर खर्च क्यों नहीं हो पाता है. चतरा के जिलाधिकारी दिव्यांशु झा ने दिप्रिंट को बताया, ‘फिलहाल घर-घर साफ पानी से संबंधित एक बड़ी योजना चल रही है.’
हालांकि, काम संतोषजनक नहीं चल रहा है.झा ने कहा, ‘ये बात सही है कि जितना पैसा डीएमएफ में है, उतना कई डिपार्टमेंट का बजट नहीं होता है. प्रभावित लोगों के रिहैबिलिटेशन का काम खनन कंपनी ही देख रही हैं, ऐसे में जिला प्रशासन उसमें दखल नहीं दे रहा. हालांकि इस साल इस फंड से कई काम होंगे, ऐसा मैं कह सकता हूं.’
‘खनन प्रभावित इलाकों, लोगों को छोड़ सरकारें फ्लाईओवर बना रही हैं.’
बीते 30 अप्रैल को पीएम मोदी ने खनन क्षेत्र में विकास की गति तेज करने के लिए एक बैठक की अध्यक्षता की. इसके बाद आत्मनिर्भर भारत स्कीम के तहत बीते 16 मई को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि खनन में अब निजी क्षेत्रों की भागीदारी और बढ़ाई जाएगी. इसके लिए माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1959 में बदलाव की बात भी कही. इस बैठक में डीएमएफ को लेकर खास तौर पर कहा गया कि राज्य सरकार इसके लिए अलग से कमेटी गठन करे. जिला स्तर पर एक कार्यबल गठित की जाए. जिसके ऊपर आमदनी का पांच प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाए.
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‘सरकार तय नहीं कर पाती कौन है प्रभावित’
हालांकि इसके स्ट्रक्चर और कार्यसंस्कृति, पद आदि को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं. आम जन की ओर से इसमें 10 सितंबर तक सुझाव भी आमंत्रित किए गए. कई संगठनों ने इसको लेकर सुझाव भी दिए हैं.
इसी मसले पर भारत सरकार को सुझाव भेजने वाले संगठन इनवारोनिक्स ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी केआर श्रीधर कहते हैं, ‘सरकारें यह तय ही नहीं कर पाती हैं कि इससे प्रभावित व्यक्ति कौन है और उसकी जरूरतें क्या है. जो इलाका प्रभावित है, उसकी बेहतरी के लिए किस तरह की योजनाओं की जरूरत है. यही वजह है कि छत्तीसगढ़ ने डीएमएफ के सबसे अधिक पैसे खर्च तो कर लिए, लेकिन प्रभावित लोगों और इलाकों के बजाय उसने सड़कें और फ्लाईओवर बना लिए.’
वहीं झारखंड उलगुलान पार्टी के सदस्य और पर्यावरण कार्यकर्ता उमेश ऋषि का कहना है, ‘डीएमएफ का पैसा उन लोगों पर खर्च होना चाहिए जिनकी जमीन इसमें गई है. इस पैसे का इस्तेमाल ऐसा हो जिससे कि उनकी आनेवाली पीढ़ी और वहां का पर्यावरण सुरक्षित रह सके. लेकिन झारखंड में भी इन चीजों के अलावा सब चीजों पर खर्च किया जा रहा है.’
इससे पहले बीते जुलाई माह में सीएम हेमंत सोरेन ने सभी जिलों को निर्देश दिया कि अगले आदेश तक डीएमएफ का इस्तेमाल नहीं किया जाना है. इस फंड से जो योजनाएं पहले से चल रही है, वह चलती रहेगी, लेकिन किसी नई योजना पर काम नहीं होगा. इस बीच सभी योजनाओं और उसपर हुए खर्च का ब्योरा मांगा है.
देशभर के हिसाब से देखें तो ओडिशा के हिस्से 5838.26 करोड़ हैं. उसे मिले हैं 5128.56 करोड़ और उसे खर्च किए हैं मात्र 933.88 करोड़. छत्तीसगढ़ के हिस्से 3336.29 करोड़ रुपए हैं. उसे मिले हैं 4387.03 करोड़ और उसने खर्च किए हैं 2488.61 करोड़. राजस्थान के हिस्से 2340.05 करोड़ रुपए हैं. उसे मिले हैं 2295.01 करोड़ और खर्च किए हैं मात्र 438.89 करोड़ रुपए. वहीं तेलंगाना के हिस्से 2028.87 करोड़ हैं. उसे मिले हैं 388.81 और उसने खर्च किए हैं 29.32 करोड़ रुपए. यानी देशभर के 21 राज्यों के 557 जिलों में 23606.11 करोड़ रुपए डीएमएफ के तहत जमा किए गए. जिसमें इन जिलों को कुल 18189.39 करोड़ रुपए दिए जा चुके हैं. लेकिन इन जगहों पर मात्र 5726.50 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए हैं.
राज्य स्तर पर इस फंड के इस्तेमाल की निगरानी के लिए कमेटी के गठन का बात कही जा रही है. आठ राज्यों ने इसका गठन भी कर लिया है. लेकिन इनमें ये दो टॉप राज्य ओडिशा और झारखंड में अब तक गठन नहीं किया गया है. गरीबी, पोषण, स्वास्थ्य, रोजगार संबंधित मुद्दों के झारखंड के ये खनन प्रभावित जिले बुरी तरीके से जूझ रहे हैं. इससे निकलने के लिए इनके पास पैसा भी है, लेकिन ये ब्यूरोक्रेसी के अडंगाबाजियों में उलझ कर शायद इसका बेहतर इस्तेमाल नहीं हो पा रहा.
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(आनंद स्वतंत्र पत्रकार हैं)