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Sunday, 3 November, 2024
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जल्द पहचान, टीका, साफ-सफाई – भारत के मिल्क कैपिटल में क्यों कम देखे गए लंपी स्किन रोग के मामले

भारत के सबसे बड़ी डेयरी सहकारी समिति, अमूल, का घर कहे जाने वाले आणंद में 1 अप्रैल के बाद से 1,507 मामले दर्ज किए हैं. अमूल के अधिकारियों ने बताया किसानों को मवेशियों की बेहतर देखभाल करना सिखाया गया है.

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आणंद : गुजरात और राजस्थान में बड़े पैमाने पर फैले लंपी स्किन रोग ने हजारों मवेशियों को अपनी चपेट में ले लिया है. लेकिन फिर भी भारत की दुग्ध उत्पादन की राजधानी कहे जाने वाले और भारत के सबसे बड़े डेयरी ब्रांड ‘अमूल’ के घर आणंद में इसका प्रभाव काफी कम रहा है.

गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ (गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन-जीसीएमएमएफ) – जो भारत का सबसे पुराना और सबसे बड़ा डेयरी को-ऑपरेटिव है और जो ‘अमूल’ ब्रांड के तहत दुग्ध उत्पादों की मार्केटिंग करता है – का घर कहे जाने वाले आणंद और उसके आस-पास के गांवों में 1 अप्रैल के बाद से लंपी स्किन रोग, जो मवेशियों को प्रभावित करने वाली एक वायरल बीमारी है, के 1,507 मामले दर्ज किए गए हैं.

हालांकि, अमूल की मूल कंपनी जीसीएमएमएफ में प्रशासन विभाग के प्रमुख एच.एस. राठौड़ इस साल इस बीमारी के इस तरह से लोगों के ध्यान में आने को लेकर चकित हैं.

H.S. Rathod at Amul | Praveen Jain | ThePrint
अमूल में एच.एस रौठौड़/ प्रवीण जैन/दिप्रिंट

दिप्रिंट द्वारा कच्छ, जो इस साल इस रोग से सबसे ज्यादा प्रभावित जिले में से एक है, के हालात का जायजा लिए जाने के बाद जब हमने आणंद  का दौरा किया और राठौड़ से इस बारे में सवाल किये तो उन्होंने कहा, ‘यह बीमारी नई नहीं है. इसने 2019 में बांग्लादेश से भारत में प्रवेश किया. तब से सभी राज्यों में इस रोग से जुड़े छिटपुट मामले सामने आते रहते हैं. गुजरात में इसका पहला मामला हमारे द्वारा साल 2020 में दर्ज किया गया था.’

राठौड़ ने फ़ूड एन्ड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (एफएओ) की साल 2017 की रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें दिखाया गया है कि इस बीमारी ने बांग्लादेश से भारत के पूर्वी राज्यों में प्रवेश किया और धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में फैलती गई.

उन्होंने कहा कि लंपी स्किन रोग की ‘मृत्यु दर बहुत कम’ है और इसकी आसानी से रोक-थाम की जा सकती है. पिछले साल, दक्षिण गुजरात को इस बीमारी के प्रकोप का सामना करना पड़ा था – तब यह महाराष्ट्र के रास्ते सूरत, कायरा, बरोच और आणंद में फैल गयी थी.

राठौड़ ने कहा, ‘हमारे पास पिछले साल कायरा जिले में 40,000 से अधिक मामले आये थे, जो पिछले साल जुलाई और अगस्त के दौरान अपने चरम पर पहुंच गए थे. हालांकि, तब मृत्यु 1 प्रतिशत से कम थी.’

दिप्रिंट से एक बातचीत में, जीसीएमएफएफ के प्रबंध निदेशक आर.एस.सोढ़ी ने कहा कि इस बीमारी के कारण आणंद जिले के कुल दूध उत्पादन में सिर्फ 0.25 प्रतिशत की गिरावट आई है.

तो फिर आणंद गुजरात के दूसरे हिस्सों में, खासकर कच्छ में, देखी गई भयावहता और दिल तोड़ देने वाली आपदा से बचा क्यों है? इसका जवाब टीकाकरण और स्वच्छता मानकों में निहित हो सकता है.

राठौड़ ने बताया कि आणंद और उसके आसपास के गांवों में, मवेशियों को इस बीमारी के खिलाफ सुरक्षा देने के लिए उनका पूरी तरह से टीकाकरण किया गया है. इसके अलावा डेयरी से जुड़े किसान अमूल के पशु चिकित्सा दल के संपर्क में रहते हैं.

अमूल के अनुसंधान और विकास विभाग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जय पटेल ने कहा कि गायों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वर्षों से प्रयास किए जा रहे हैं.

पटेल ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम पशु मालिकों को गौशालाओं में स्वच्छता बनाए रखने के बारे में प्रशिक्षण दे रहे हैं. वे समझते हैं कि यह एक विषाणु जनित बीमारी है – इसलिए वे अपने मवेशियों को नियमित रूप से नहलाते हैं ताकि उन्हें टिक (किलनी) के संक्रमण से बचाया जा सके.’


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‘स्वच्छता के बेहतर मानक’

Amul plant at Anand | Praveen Jain | ThePrint
अमूल प्लांट आणंद/ प्रवीण जैन/दिप्रिंट

आणंद, जहां से 1973 में भारत की डेयरी क्रांति की शुरुआत हुई थी, में गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ प्रत्येक किसान से थोङी-थोङी मात्रा में दूध एकत्र करता है. फिर इस दूध, और अन्य डेयरी उत्पादों, को संसाधित कर ‘अमूल’ ब्रांड के नाम से बेचा जाता है.

पटेल ने कहा कि स्वच्छता मानकों में किसानों को मच्छरों और मक्खियों को दूर रखने के लिए नीम के पत्तों को जलाने की सलाह देना शामिल है.

उन्होंने कहा, ‘यहां सभी मवेशियों को नाद में चारा खिलाया जाता है, जिसका मतलब है कि उन्हें चरने के लिए बाहर नहीं भेजा जाता है.’

इस सहकारिता समिति ने हर गांव में रोगग्रस्त गायों के किसी भी नए मामले की सूचना देने के लिए सचिवों को नियुक्त किया है. पटेल ने कहा कि प्रत्येक गांव में कृत्रिम गर्भाधान के लिए जाने वाला तकनीशियन भी बीमारी के लक्षणों पर नजर रखता है और नए मामलों की सूचना देता है.

राठौड़ का कहना है, ‘किसान अगर जागरूक हो और डॉक्टर को समय पर बुलाए तो यह बीमारी 10 से 12 दिन में ठीक हो जाती है.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि वे आवारा जानवर जिन्हें ठीक से चारा नहीं दिया जाता है और जिनमें पोषक तत्वों की कमी होती है, वे इस बीमारी के प्रति ज्यादा असुरक्षित होते हैं.

आनंद में संकर (हाइब्रिड) गायों का अनुपात भी अधिक है, और पटेल का कहना है कि यह बात उन्हें स्वदेशी गायों की तुलना में अधिक असुरक्षित बनाती है .

उन्होंने कहा, ‘मगर, चूंकि ये गायें बहुत मूल्यवान हैं, इसलिए उन्हें अच्छी गुणवत्ता वाला भोजन और पोषण दिया जाता है, जो उन्हें बीमारी से लड़ने के लिए बेहतर स्थिति में रखता है.’


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‘रोग प्रतिरोधक क्षमता’

आणंद शहर से करीब चार किलोमीटर दूर गोपालपुरा गांव में रहने वाले पशुपालक रजनी भाई पटेल कहते हैं कि 6 अगस्त को उन्होंने देखा कि उनकी एक गाय के बदन पर गांठें है और उन्होंने तुरंत अमूल को इसकी सूचना दी.

रजनी भाई अपने गांव के उन गिने-चुने किसानों में से एक हैं, जिन्होंने इस बीमारी की सूचना दी है. अपने पास 13 गाय-भैंस होने के बावजूद, वह संक्रमित गाय को अन्य गायों से दूर रखते हुए संक्रमण को केवल गाय तक रोकने में सक्षम हो सके.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं 6 तारीख (अगस्त) को गाय का दूध दुह रहा था, तभी मैंने देखा कि उसमें कुछ गांठें विकसित हो गई हैं. इसलिए मैंने तुरंत उसका इलाज अमूल के डॉक्टरों से करवाया.’

उनके अन्य मवेशियों को पिछले साल इस बीमारी के खिलाफ टीका लगाया गया था, लेकिन यह वाली गाय उस समय गर्भवती थी.

गोपालपुरा सामान्य रूप से गुजरात के अन्य हिस्सों में से दिप्रिंट द्वारा देखे गए संक्रमण के गंभीर मामलों, जहां इस बीमारी ने मवेशियों को खड़े होने या अपने आप से खाने में असमर्थ बना दिया है, की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है.

डॉ. संजय पटेल को लगता है कि पिछले साल फैली इस बीमारी के प्रकोप ने यहां के मवेशियों को बीमारी के प्रति कुछ प्रतिरोधक क्षमता दे दी होगी.

जीसीएमएमएफ का डेयरी प्रशिक्षण केवल आणंद जिले तक ही सीमित नहीं है. भिलोदा जिले के एक सुदूर गांव मऊ टांडा – जो आनंद से लगभग 215 किमी दूर स्थित है – में अमृत मोती बंजारा और उनके परिवार के पास 15 से अधिक गाय और भैंस हैं और उन्हें इस बात की अच्छी तरह से समझ है कि यह बीमारी कैसे फैलती है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हम अपने मवेशियों को दिन में दो बार नहलाते हैं. हम गोबर और मूत्र को ठीक से साफ़ करने के लिए गौशाला के फर्श को भी धोते हैं. हम उन्हें पौष्टिक भोजन खिलाने पर बहुत खर्च करते हैं. वे हमारे परिवार की तरह हैं.’

इस तथ्य के बावजूद कि उनके मवेशियों का टीकाकरण नहीं किया गया है, उनमें से कोई भी इस बीमारी से प्रभावित नहीं हुआ है.

उनके भाई मधुर ने हमें बताया, ‘यह सामान्य बात है, अगर हम इंसान होते हुए हुए भी रोज न नहाएं तो हम भी बीमारी की चपेट में आ जाएंगे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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