कोलकाता: पिछले तीन दशकों से कोलकाता की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) में, व्यवस्थित ढंग से तेज़ गिरावट देखी जा रही है, और अब वो देश का ऐसा मेट्रो बन गया है, जिसकी टीएफआर देश में सबसे कम है.
2021 की जनगणना के अनुसार, कोलकाता की टीएफआर (किसी महिला को पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या) 1.2 थी; जो 2019-20 के पिछले एनएफएचएस 5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) डेटा के अनुसार बढ़कर 1.4 हो गई.
पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विभाग के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, कि 2021 के लिए जनगणना आंकड़े अभी महामारी के चलते प्रकाशित नहीं किए गए हैं, फिर भी कोलकाता की टीएफआर 1.2 से नीचे चली गई है, और अब 1 के क़रीब है.
टीकाकरण प्रक्रिया के लिए एक हालिया सर्वे के दौरान, राज्य के स्वाथ्य विभाग को पता चला कि पिछले साल 44 लाख लोगों (2011 जनगणना) के शहर में, क़रीब 42,000 बच्चे पैदा हुए थे.
एक शीर्ष स्वास्थ्य अधिकारी ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, कहा, ‘कोलकाता में प्रजनन दर सिर्फ 1 है, और शहर में जन्म दर भी गिरकर 10 से नीचे आ गई है’.
इससे भी, ये सबसे कम टीएफआर वाला मेट्रो शहर बन गया है. दूसरे मेट्रो तथा प्रमुख शहरों में, पिछली एनएफएचएस रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली की टीएफआर 1.6 है, मुम्बई की 1.5, हैदराबाद की 1.8, पुणे की 1.7 और चेन्नई की 1.4 है.
लेकिन, पश्चिम बंगाल के अंदर कोलकाता कोई विसंगति नहीं है.
एनएफएचएस 5 डेटा के अनुसार, राज्य की शहरी आबादी की टीएफआर 1.4 है, जबकि ग्रामीण बंगाल में ये आंकड़ा 1.7 है.
कोलकाता और पूरे पश्चिम बंगाल में, इस गिरती प्रजनन दर और जन्म दर (साल में जीवित-जन्मों की संख्या, और उस साल की कुल औसत आबादी का अनुपात) ने, अब समाज विज्ञानी और जनसांख्यिकी विशेषज्ञों के बीच ख़तरे की घंटी बजा दी है.
शोधकर्त्ता, समाज विज्ञानी, और जनसांख्यिकी विशेषज्ञ कहते हैं, कि बंगाली जोड़ों के बीच गिरती प्रजनन दरों के पीछे कई कारण हैं.
उन कारणों में अपने और बच्चे के लिए आकांक्षा, गिरती आमदनी, वित्तीय दबाव और अनिश्चितता शामिल हैं. जानबूझकर गर्भ निरोधकों के प्रयोग, और इमर्जेंसी गर्भनिरोधकों ने भी शहर तथा पूरे सूबे में, प्रजनन दर को लगातार कम किया है.
एनएफएचएस 5 सर्वे के अनुसार, 2019-20 में बंगाल की शहरी आबादी में, 77.5 प्रतिशत गर्भनिरोधक कवरेज थी, जो 2015-16 के मुक़ाबले 3 प्रतिशत अधिक थी.
ग्रामीण आबादी के लिए ये कवरेज अब 73 थी, जो 2015-16 की कवरेज से 2 प्रतिशत ज़्यादा थी.
प्रोफेसर सास्वता घोष ने जिनकी गिरती टीएफआर पर थीसिस में, जिसे लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (एलएसई) द्वारा वित्त-पोषित किया गया, बंगाल की शहरी और ग्रामीण आबादियों पर काफी शोध किया गया, दिप्रिंट से कहा, ‘प्रकाशित डेटा और स्थानीय सरकार के सर्वे के अनुसार, कोलकाता की टीएफआर और जन्म दर दोनों में, पिछले 30 साल से निरंतर गिरावट आ रही है. इसके फिर से पटरी पर आने के कोई संकेत नहीं दिखे हैं, और अब ये चिंताजनक दिखने लगी है. बच्चा पैदा करने में हिचकिचाहट कोलकाता के संभ्रांत और शिक्षित जोड़ों में, काफी समय से एक आम बात रही है. 1977-80 में, कोलकाता की टीएफआर 2.2 थी, और 40 साल में अब ये लगभग 1 है. अगर कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ, तो कुछ ही समय में ये निगेटिव हो जाएगी’.
घोष ने आगे कहा कि 1947-48 के एक सर्वे में, जिसके अब सरकार के पास दस्तावेज़ हैं, पता चला कि उस समय कोलकाता की शिक्षित महिलाओं में, गर्भनिरोधक कवरेज 30 प्रतेशत से अधिक थी.
कोलकाता में आईडीएसके (इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़) के एक प्रोफेसर, घोष ने कहा, ‘उसके पीछे का कारण पश्चिमी प्रभाव, शिक्षा, और उदार विचार थे. बंगाल उपनिवेशन की जगह रहा है, और अलग अलग समय पर ये ब्रिटिश, डच, और फ्रेंच उपनिवेशों के प्रभाव में रहा है’.
‘लेकिन अब, अभिजात और ग़ैर-अभिजात, शहरी और ग्रामीण, तथा हिंदू और मुसलमान जोड़ों के बीच की रेखाएं धुंधली पड़ गईं हैं. बंगाल के सभी ज़िलों में जन्म दर और प्रजनन दर तेज़ी से गिर रही हैं’.
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बंगाल की गिरती जन्म दर
इसी महीने प्रकाशित नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की रिपोर्ट के अनुसार, बंगाल उन सबसे निचले तीन राज्यों में है, जहां जन्म दर 15 से नीचे है. बंगाल में अब जन्म दर 14.9 है, जबकि तमिलाडु और पंजाब में भी, ये गिरकर क्रमश: 14.5 और 14.7 पर आ गई है.
जन्म दर किसी आबादी की जनन क्षमता नापने का एक कच्चा उपाय है, और जनसंख्या वृद्धि का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है. इससे किसी क्षेत्र और वर्ष में प्रति एक हज़ार आबादी पर, जीवित जन्मों की संख्या का पता चलता है.
दिप्रिंट के हाथ लगी एसआरएस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘पिछले चार दशकों में, पूरे भारत में जन्म दर में भारी गिरावट आई है, जो 1971 में 36.9 से गिरकर 2019 में 19.7 पर आ गई है. इन सालों के दौरान ग्रामीण-शहरी अंतर भी कम हुआ है. लेकिन, पिछले चार दशकों में, शहरी इलाक़ों के मुक़ाबले ग्रामीण क्षेत्रों में जन्म दर ऊंची बनी रही है’.
बंगाल स्वास्थ्य सेवा निदेशक अजॉय चक्रबर्ती ने कहा, कि पूरे बंगाल में जन्म और प्रजनन दोनों दरों के गिरने के पीछे कई कारण हैं. ‘एनएफएचएस 5 सर्वे के अलावा हमारे पास अपना भी डेटा है. लेकिन 2021 की जनगणना रिपोर्ट से हमारे लिए चीज़ें स्पष्ट हो जाएंगी, और हम जनगणना कराए जाने का इतज़ार कर रहे हैं’.
धुंधला होता ग्रामीण-शहरी विभाजन
प्रोफेसर घोष ने आगे कहा कि जन्म दर के मामले में, ग्रामीण और शहरी, शिक्षित और अशिक्षित, तथा हिंदू और मुसलमान के बीच का स्पष्ट अंतर अब ग़ायब हो रहा है.
घोष ने कहा, ‘बंगालियों ने बच्चों की क्वालिटी के बीच, जानबूझकर एक प्रवृत्ति विकसित कर ली है. यहां बंगाली समाज में बेटों के लिए खुले तौर पर कोई पसंद नहीं रही है, जिसकी वजह से उत्तरी प्रांतों में जोड़े, अकसर ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘यहां पर कन्या भ्रूण हत्या बहुत कम है, और एक औसत बंगाली परिवार को बेटी को पालने में कोई दिक़्क़त नहीं है. लेकिन प्रमुख कारण है गिरती आय और वित्तीय दबाव. बंगाल बेरोज़गारी और, नौकरियां ख़त्म होने की तकलीफ से दोचार है, जहां अधिकांश ग्रामीण परिवार सरकारी सहायता के सहारे हैं. खेती-बाड़ी बिल्कुल फायदेमंद नहीं रही है, और राज्य में भूमि जोत बहुत टुकड़ों में बंट गई है. यही कारण हैं जिनकी वजह से ग्रामीण आबादी, एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो बच्चों का विकल्प चुन रही है’.
घोष ने कहा, ‘हिंदुओं में टीएफआर 3.1 से गिरकर 2.1 (यानी रिप्लेसमेंट लेवल पर) पर आ गई है, और मुसलमानों में 4.1 से गिरकर 2.7 पर आ गई है- जो प्रति महिला 1.4 बच्चों की गिरावट है. सभी दक्षिणी राज्यों के अलावा, अधिकांश उत्तर-पश्चिमी तथा पूर्वी सूबों ने, कुल मिलाकर 2011 में रिप्लेसमेंट लेवल जनन क्षमता प्राप्त कर ली है’.
‘ऐसे बहुत से प्रांत हैं, जैसे पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक और केरल, जहां मुसलमानों की टीएफआर रिप्लेसमेंट लेवल के क़रीब है. हरियाणा, असम, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और झारखंड में प्रति मुस्लिम महिला पर बच्चों की संख्या में ये कमी ज़्यादा पाई गई (लगभग दो बच्चे प्रति महिला)’.
आईडीएसके की एक सीनियर रिसर्च फेलो प्रोफेसर काकोली दास, जो पिछले चार वर्षों से बंगाल की ग्रामीण महिलाओं की गिरती जनन क्षमता पर काम कर रही हैं, ने कहा कि एक कारण ये है कि बंगाल की ग्रामीण महिलाओं की, काम में भागीदारी और जागरूकता में इज़ाफा हुआ है.
उन्होंने कहा, ‘सामाजिक मनोवैज्ञानिक कारकों के अलावा, गर्भनिरोध के साधन भी सुविधाजनक हो गए हैं. ग्रामीण महिलाएं आशा कार्यकर्त्ताओं के पास उपलब्ध, इमरजेंसी गर्भनिरोधक या ऐसे दूसरे साधनों का इस्तेमाल नहीं करतीं. वो अपनी ग़रीबी की बात ज़्यादा करती हैं, जिसके चलते वित्तीय दबाव में वो बच्चे की अच्छे से परवरिश करने में सक्षम नहीं हैं.
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