नई दिल्ली: केंद्रीय दत्तक संसाधक संस्था (कारा) इन दिनों संकट की स्थिति से गुजर रही है. अचानक अनाथ बच्चों को गोद लेने वाले माता-पिता उन्हें गोद लेने के बाद वापस कर रहे हैं.
इस साल की शुरुआत में कर्नाटक के एडॉप्शन से जुड़े समाज सेवी ने देखा कि अचानक परिवार एडॉप्शन एजेंसी को गोद लिए हुए बच्चे वापस कर रहा है. फिर इस समाज सेवी ने आरटीआई फाइल की. इसी साल अगस्त में कारा ने आरटीआई का जवाब दिया और उसके ऑब्जरवेशन को मुहर लगा दी. आरटीआई में यह भी पता चला कि 2017-2019 तक भारतीय परिवारों ने करीब 6,650 बच्चों को गोद लिया लेकिन इन गोद लिए बच्चों में से चार फीसदी यानी करीब 278 बच्चों को परिवार वापस छोड़ गए हैं.
कारा के सीईओ और सदस्य सचिव दीपक कुमार ने बताया कि अधिकतर बच्चे जो वापस कर दिए गए, वह विकलांग थे और परिवार उन बच्चों के साथ सामजस्य बनाने में पूरी तरह विफल साबित हुए. इसमें अधिकतर छह साल और उससे अधिक के बच्चे थे.
कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘एक साल में भारतीय परिवार ने करीब 3200 बच्चे गोद लिए हैं, इसमें बामुश्किल 50 ऐसे थे जिन्हें विशेष देख-रेख की जरूरत थी. जबकि अंतर देश गोद लेने की प्रक्रिया में 700 बच्चे गोद लिए गए जिसमें 400 विकलांग थे.’
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण (एनसीपीसीआर) इस तरह के तेजी से बढ़ते मामलों से चिंतित हैं और यह निर्णय लिया है कि जल्द ही इसकी तहकीकात करेंगे, लेकिन एसीपीसीआर के प्रमुख प्रियांक कांगू ने दि प्रिंट को बताया कि अभी तक कोई निर्णायक खोज नहीं हुई हैं.
वह पांच राज्य जहां गोद लिए गए बच्चे वापस किए गए
महाराष्ट्र में 56, कर्नाटक में 25, ओडिशा में 20, मध्य प्रदेश 18 और दिल्ली 14
भारत में सभी को चाहिए नवजात
2015 के जुवेनाइल केयर अधिनियम में कहा गया है कि सभी बच्चों की संरक्षण करने वाले संस्थान – जो ‘मुसीबत में फंसे’ या आम तौर पर बड़े बच्चों की देखभाल करते हैं -विशेषतौर पर दत्तक ग्रहण एजेंसियों से जुड़े हैं, जो 0-6 वर्ष की आयु के बीच के बच्चों को गोद लेने में सक्षम हैं, सभी को स्पेशलाइज्ड एडॉप्शन एजेंसी से जोड़ा जाए.
इसके बाद 2016 में बच्चे उपलब्ध हैं ‘तुरंत दिए जाने’ के साथ कारा लांच किया गया. जिसमें बच्चे को गोद लेने के इच्छुक अभिभावक गोद लेने की लंबी प्रक्रिया को दरकिनार कर तुरंत बच्चा गोद ले सकते हैं. ये ऐसे बच्चे थे जिन्हें मामूली विकृतियों के कारण या अन्य वजहों से गोद नहीं लिया जा रहा था. इसकी कई वजह भी थी जिसमें यह भी एक थी या तो ये बड़ी उम्र के थे या फिर यह विशेष की कैटेगरी (किसी न किसी रूप में विक्षिप्त, जिन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है) के थे.
कुमार ने बताया कि इन दो वजहों के कारण बहुत सारे भारतीय परिवार बड़े बच्चों को गोद ले लेते हैं. उन्होंने आगे यह भी कहा, ‘अक्सर भारतीय परिवार नवजात बच्चों को ही गोद लेना चाहते हैं, जो उनके अनुसार पूरी तरह से परफेक्ट होते हैं.’
कुमार ने यह भी बताया कि बहुत सारे भारतीय अभिभावकों ने कोशिश की कि वह बड़े बच्चे गोद लें लेकिन बाद में उन्हें यह महसूस हुआ कि वह इसके लिए तैयार नहीं थे और न ही वह उनके साथ समन्वय ही बैठा पाते हैं.
बड़े बच्चे नए वातावरण में आसानी से एडजस्ट नहीं कर पाते हैं और फिर परेशानी शुरू होती है.
कुमार ने कहा, ‘कई बार तो संस्थाएं बच्चों को ठीक से तैयार नहीं कर पाती हैं. न तो उनकी परवरिश ठीक से हुई होती है और न ही उन्हें यह बताया जाता है कि उन्हें किसी परिवार में जाकर कैसे रहना है.’
जब भी इस तरह के मामले सामने आते हैं ऐसे में स्टेट एडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी (सारा) को अभिभावक और बच्चों के बीच सलाह दिया जाना चाहिए और उनके लिए काउंसिलिंग सेशन बुलाया जाना चाहिए, जिससे यह पता चले कि समस्या कहां खड़ी हो रही है. जब भी कोई ऐसी घटना सामने आती है ऐसे में बच्चे और उन गोद लेने वाले माता-पिता को कुछ समय के लिए उस लिस्ट से हटा दिया जाता है जब कि वह दूसरी बार के लिए खुद को तैयार न कर लें.
कुमार ने कहा कि मामला जो भी रहा हो यह अच्छा है कि ऐसे मामलों में बच्चे वापस किए जा रहे हैं, वहां बच्चों के परेशान होने से तो ये अच्छा ही है.
अंतर-देश गोद लेने में हैं समस्याएं कम
गोद लिए गए 278 बच्चे जिन्हें वापस किए गए हैं उनमें से तीन ही देश के बाहर से आए हैं. इस फील्ड में काम कर रहे विशेषज्ञ बताते हैं कि यह संकेत है कि विदेशी परिवारों में सामजस्य बिठाने और मदद करने का सिस्टम काफी अच्छा है.
पालना की असिस्टेंट डायरेक्टर लौरेन कैंपस ने कहा, विदेशों की तरह भारत में गोद लेने वाले अभिभावकों और बच्चों के लिए सपोर्ट सिस्टम बिल्कुल अच्छा नहीं है. यहां बड़े बच्चे का स्कूल में एडमिशन कराना एक समस्या है.
उन्होंने कहा कि हमारे पास बढ़िया मनोवैज्ञानिक भी नहीं है, जो एक महत्वपूर्ण किरदार अदा करता है.
उम्मीद और सच्चाई
दिप्रिंट को बच्चा गोद लेने वाले अभिभावक ने बताया कि बड़े बच्चों की अपनी समस्याएं होती हैं. गोद लिए जाने के पहले तक संसाधनों की कमी की वजह से उनकी ग्रोथ और विकास उतना नहीं हुआ होता है जितना होना चाहिए.
बंगलूरू की महिला जिसने 2008 में दो सात साल के बच्चों को गोद लिया, उन्होंने दि प्रिंट को बच्चों के गोद लिए जाने की बारीकियों के बारे में बताया. उन्होंने कहा, ‘जब लोग बच्चे गोद लेते हैं तो वह चाहते हैं कि बच्चा उनके परिवार में घुल-मिल जाए, उनका बच्चों को लेकर कुछ सपना और कुछ विजन होता है. लेकिन जब वह बच्चा घर लाते हैं तो वह पाते हैं कि वैसा कुछ नहीं हो रहा है जैसा उन्होंने उस गोद लिए बच्चे के बारे में सोचा था. इससे उनके बीच दूरियां बनती है और वह शॉक्ड रह जाते हैं.’ इनके दोनों बच्चों को बाद में डिसलेक्सिया के साइन दिखे.
उन्होंने बताया कि पहले पांच साल बच्चे की जिंदगी के महत्वपूर्ण होते हैं, इस दौरान इनका विकास होता है- उनकी भाषा, उनके चाल चलन और उनके व्यक्तित्व का विकास इसी कार्यकाल के दौरान होता है. अधिकतर बच्चे गरीब परिवारों के होते हैं जो एक लिमिटेड रिसोर्स में पले बढ़े होते हैं यह सब उनके विकास को प्रभावित करता है.
मधु तुगनैत जो छोड़े गए बच्चों के लिए इच्छा फाउंडेशन चलाती हैं, इनमें विशेषकर वो बच्चे शामिल हैं जिन्हें विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होती है.
तुगनैत ने बताया कि बच्चे ऐसे परिवार में आकर बहुत समझौता करते हैं क्योंकि उन्हें संस्था जैसी सुविधा दिए जाने वाली जगहों पर रहने की आदत होती है.
उदाहरण के तौर पर हम उन बच्चों को अपने बच्चों की तरह देखने लगते हैं , ऐसी परिस्थिति में गोद लेने परिवार को और उन बच्चों को, दोनों को एडजस्ट करने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है.
लेकिन कई बार बच्चे ऐसे केंद्रों से आते हैं जहां उनकी परवरिश ठीक से नहीं हुई होती है. ऐसे भी कई मामले सामने आते हैं.
महाराष्ट्र के अमरावती के वह अभिभावक अनीला क़ाज़ी और याह्या क़ाज़ी ने 2009 में नौ साल के कामिल को गोद लिया था. कामिल के बायोलॉजिकल माता-पिता की मौत एड्स की वजह से हुई थी. क़ाज़ी दंपत्ति ने जब बच्चे को गोद लेने का मन बनाया तब इसका उनके सोशल सर्किल में काफी विवाद हुआ था. अनीला ने बताया कि हमारे कई दोस्तों ने कहा था कि अगर घर में वह रहेगा तो वो हमारे घर नहीं आएंगे, ‘मैंने कहा- ठीक है मत आओ.’
कामिल एचआईवी निगेटिव था लेकिन उसने गोद लिए जाने से पहले कई सारी समस्याओं का सामना किया था ऐसे में उसे अनीला के घर एडजस्ट करने में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा.
अनीला ने बताया कि उसे हमेशा ही बुरे सपने आते थे, वह सो नहीं पाता था.कई बार तो वह बिस्तर भी गीला कर देता था. वह बात- बात पर गुस्सा हो जाता था. कामिल को नॉर्मल होने में दस साल से अधिक का समय लग गया है.
हमलोगों ने उसे बेहतरीन स्कूल में डाला, लेकिन उसने पढ़ाई नहीं की. लेकिन वह पेंटिंग में बेहतरीन है तो हमने यह तय किया कि उसके अंदर जो कला है उसे आगे बढ़ाया जाए.
और काम किए जाने की है जरूरत
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2015 में गोद लिए जाने के पूरे प्रोसेस को बदल दिया. और मंत्रालय ने केरिंग्स (CARINGS) केंद्रीकृत डिजिटल लिस्ट जारी करनी शुरू की. जिसके द्वारा सभी माता पिता जो बच्चे गोद लेना चाहते हैं वह सभी राज्यों के एडॉप्शन सेंटर में बच्चों की उपलब्धता की जानकारी मिल सके.
कैंपोस ने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया को और दिल से किए जाने की जरूरत है. विशेषतौर पर बड़े बच्चों के लिए. वह कोई चीज (वस्तू) नहीं हैं. हर एक बच्चे का अपना व्यक्तित्व होता है अगर हम बच्चे को घर ले जा रहे हैं तो यह हमें ध्यान रखना चाहिए.
पहले जब भी बच्चे को गोद दिए जाने की बात होती थी तो हमलोग पहले परिवारवालों से बात करते थे खासकर बड़े बच्चों के मामले में. हमलोग यह भी कोशिश करते थे कि उस बच्चे का कोई दोस्त भी उस क्षेत्र में रहे जिससे उसे उस घर और सोसाइटी में रहना थोड़ा आसान हो जाए और बच्चे को फैमिलियर माहौल मिले. लेकिन अब सबकुछ बहुत ज्यादा डिजिटल हो गया है.
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The children should be adopted at local level. If their language culture and food habits tally with their foster parents then they can adjust early and easily.