चंडीगढ़: हरसिमरत कौर बादल ने कृषि संबंधी अध्यादेश के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया, जो पंजाब की राजनीति के लिहाज से शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के लिए एक निर्णायक क्षण है.
पूर्व उपमुख्यमंत्री और हरसिमरत कौर के पति सुखबीर सिंह बादल की अध्यक्षता वाली एसएडी ने कृषि प्रधान राज्य में अपने मुख्य वोटबैंक जाट-सिख किसानों को फिर साधने के लिए भाजपा के साथ अपने दशकों पुराने रिश्तों को ताक पर रखते हुए विरोध की आवाज मुखर कर ली है.
राज्य में मुश्किलों में घिरे और जनाधार खो चुके अकाली दल, जिसे 2017 के विधानसभा चुनावों में तीसरा स्थान मिला था, के लिए किसानों के नाम पर खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री के पद से हरसिमरत का इस्तीफा 2022 के आरंभ में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों के लिए सबसे बड़ा दांव है. गुरुवार शाम को मीडिया से बातचीत में सुखबीर ने कहा कि अकाली दल हमेशा से ही किसानों की पार्टी रही है और उनके हित में हर कुर्बानी देने को तैयार है.
इस मुद्दे पर अकाली दल का रुख तभी अचंभित करने वाला था जब पिछले तीन महीनों से सुखबीर एपीएमसी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और आवश्यक वस्तु अधिनियम पर केंद्र के अध्यादेश को सही ठहराने में असजह नजर आ रहे थे. लेकिन मंगलवार को उन्होंने आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक पारित होने के खिलाफ पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखी और अगले दिन अकाली दल ने तीन लाइन वाला एक व्हिप भी जारी किया. इसमें दोनों सदनों में पार्टी के सभी सांसदों से कृषि संबंधी तीनों विधेयकों के खिलाफ मतदान करने को कहा गया, जो मूलत: अध्यादेशों के तौर पर लाए गए थे.
लोकसभा ने तीनों बिल ध्वनि मत से पारित किए. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक मंगलवार और अन्य बिल गुरुवार को पारित हुए.
विधेयकों से जुड़े किसानों के मुद्दे
किसान मुख्य रूप से फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल, 2020 का विरोध कर रहे हैं, जो कृषि उपज विपणन समितियों या एपीएमसी में सुधार संबंधी अध्यादेश के बाद आया है.
किसानों का मानना है कि यह विधेयक लागू होने से सरकार नियंत्रित मंडियों के माध्यम से गेहूं और धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की प्रणाली खत्म हो जाएगी. एमएसपी और मंडी प्रणाली से लाभ उठाने वाले कमीशन एजेंट भी इस विधेयक के विरोध में किसानों के साथ खड़े हो गए हैं.
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प्रदर्शनकारियों का मानना है कि यद्यपि शुरुआत में कुछ किसानों को अपनी उपज के लिए एमएसपी से बेहतर कीमत मिल सकती है, लेकिन दीर्घावधि में जब कॉरपोरेट क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाएगी तो उनका शोषण होगा.
फॉर्मर्स (इंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस बिल पंजाब के लिए अनावश्यक माना जाता है, क्योंकि राज्य में 2013 से ही अनुबंध संबंधी एक कृषि कानून है, जो काफी हद तक निष्क्रिय बना हुआ है. राज्य में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग परस्पर भरोसे और साधारण कानूनी समझौतों के माध्यम से चलती है. प्रदर्शनकारियों का मानना है कि नए अधिनियम से ऐसी स्थितियां मजबूत होंगी जिसमें अमीर कॉर्पोरेट्स को तो फायदा मिलता है, जबकि किसानों का शोषण होता है.
किसानों का कहना है कि कॉरपोरेट उन्हें महंगा इनपुट खरीदने और धोखाधड़ी और तमाम तिकड़मों के खिलाफ किसी सरकारी सुरक्षा के बिना कंपनियों को उपज बेचने को बाध्य करेंगे.
आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक पर किसानों का मानना है कि यह सभी अनाज, दलहन, तिलहन, आलू और प्याज को व्यापार प्रतिबंध और मूल्य नियंत्रण के दायरे से बाहर कर देगा, जिससे अंतत: ये वस्तुएं एमएसपी व्यवस्था से बाहर हो जाएंगी.
उनका कहना है कि कृषि संबंधी तीनों विधेयकों का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में ‘चुपके से कॉरपोरेट घरानों का दखल’ बढ़ाना है,
अध्यादेश/विधेयकों के खिलाफ अभियान
इस सबकी शुरुआत तब हुई जब कांग्रेस नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अध्यादेशों के खिलाफ अभियान चलाया, इस मुद्दे पर उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि सर्वसम्मति बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाए. 28 अगस्त को विधानसभा के एक दिवसीय सत्र के दौरान अमरिंदर ने अध्यादेशों को खारिज करने संबंधी एक प्रस्ताव पेश किया जिसे बहुमत से पारित कर दिया गया.
हालांकि, पिछले दो हफ्तों से किसान यूनियनों के समूह अध्यादेशों के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, इस मुद्दे पर कांग्रेस की कवायद अकाली दल और साथ ही भाजपा के साथ उसके गठबंधन की आलोचना करने तक ही सीमित था.
संसद में मंगलवार को इन विधेयकों की आलोचना वाले सुखबीर बादल के भाषण के बाद अमरिंदर ने घोषणा की कि कांग्रेस आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक को अदालत में चुनौती देगी. इसके बाद बुधवार सुबह उन्होंने पंजाब के राज्यपाल वी.पी.एस. बदनोर से मिलने पहुंचे कांग्रेस नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की और उन्हें एक ज्ञापन सौंपकर मोदी सरकार की तरफ से इन विधेयकों को लागू न किए जाने की मांग की.
हरसिमरत द्वारा गुरुवार को इस्तीफा देने के बाद भी अमरिंदर ने इसे ‘देर से उठाया गया मामूली कदम’ बताया. साथ ही इसे अकाली दल द्वारा की जाने वाली नाटकबाजी का ही हिस्सा करार दिया.
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मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी ने भी इस मुद्दे पर अकाली दल से आगे निकलने की कोशिश की, और उसके पंजाब प्रमुख और एकमात्र लोकसभा सदस्य भगवंत मान ने बुधवार को कहा कि आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक ‘कभी मतदान के लिए रखा ही नहीं गया’ इसलिए सुखबीर यह दावा नहीं कर सकते कि उनकी पार्टी ने इसके खिलाफ मतदान किया था. डैमेज कंट्रोल के एक अन्य प्रयास के तहत आप के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गुरुवार को ट्वीट करके कहा कि उनकी पार्टी कृषि संबंधी बिल के खिलाफ मतदान करेगी.
खेती और किसानों से संबंधित तीन क़ानून संसद में लाए गए हैं जो किसान विरोधी हैं। देश भर में किसान इनका विरोध कर रहे हैं। केंद्र सरकार को इन तीनों क़ानूनों को वापस लेना चाहिए। आम आदमी पार्टी संसद में इनके विरोध में वोट करेगी।
— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) September 17, 2020
लेकिन हरसिमरत के केंद्रीय मंत्री के रूप में इस्तीफे के साथ अकालियों ने कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन कांग्रेस और आप से एक मुद्दा छीन लिया है.
अकाली दल पर आफत
शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन ने मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर के पिता के नेतृत्व में 2007 से 2017 तक 10 साल तक पंजाब में शासन किया. लेकिन इसके बाद उसे कांग्रेस के हाथों से बुरी तरह हार मिली, जिसने राज्य की 117 सीटों में से 77 सीटें जीतीं. आप को 20 सीटें मिलीं जबकि अकाली-भाजपा गठबंधन केवल 18 सीटें ही हासिल कर सका. हालांकि, चुनाव नतीजे तो पंजाब में अकाली दल की हालत खराब होने की शुरुआत भर थे.
अकालियों की हार का एक प्रमुख कारण 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब, सिखों का पवित्र ग्रंथ, की बेअदबी की कई घटनाएं होना भी था, बादल सरकार इस बेअदबी के जिम्मेदार लोगों का पता लगाने में नाकाम रही और फिर तत्कालीन गृह मंत्री सुखबीर के अधीन काम करने वाली पंजाब पुलिस ने प्रदर्शन करने वालों पर फायरिंग कर दी, जिसमें दो सिख युवकों की मौत हो गई. इसने अकाली दल के मुख्य वोट बैंक जाट-सिख किसानों को दूर कर दिया.
यह अलगाव तब मुखर नजर आया जब नवंबर 2015 में सिख कट्टरपंथियों की तरफ से आयोजित एक सरबत खालसा को पंजाब भर के सिखों का व्यापक समर्थन मिला.
सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस बेअदबी के मुद्दे को बादल पर निशाना साधने के लिए इस्तेमाल करती रही है. अमरिंदर सरकार की तरफ से गठित जांच आयोग ने बादल को ‘राजनीतिक उद्देश्यों’ के लिए दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने का जिम्मेदार माना है. आयोग ने जून 2018 में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि सिरसा में डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार थे और बादल ने उनके खिलाफ कार्रवाई से इनकार कर दिया क्योंकि वे विधानसभा चुनाव के दौरान डेरा का समर्थन चाहते थे.
आयोग की रिपोर्ट के बाद कांग्रेस के कई लोगों का मानना था कि बादल पिता-पुत्र को उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों में गिरफ्तार किया जाएगा.
आंतरिक मतभेद और भाजपा पर दोषारोपण
सत्ता से बाहर होने के बाद से यह एकमात्र मुश्किल नहीं थी जिसका बादल परिवार सामना कर रहा. अक्टूबर 2018 में पार्टी के कई बुजुर्ग नेताओं, जिनमें से कई तो दशकों से अकाली दल के साथ जुड़े थे, ने बेअदबी के मुद्दे पर अपनी राह अलग कर ली. उन्होंने सुखबीर और उनके बहनोई बिक्रम सिंह मजीठिया- हरसिमरत के भाई को विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हार और बेअदबी के मुद्दे पर लापरवाही का जिम्मेदार ठहराया. इन नेताओं ने बाद में अपनी पार्टी- शिरोमणि अकाली दल (टकसाली) बना ली.
2019 के संसदीय चुनावों में, एसएडी पंजाब की 13 सीटों में से सिर्फ दो सीटें जीत पाई, हरसिमरत बठिंडा की अपनी सीट बमुश्किल बचा पाईं और सुखबीर ने पार्टी की पारंपरिक सीट फिरोजपुर जीती. भाजपा ने दो सीटों- गुरदासपुर और होशियारपुर-पर जीत हासिल की.
चुनावों के बाद अकाली दल को पार्टी के एक और दिग्गज नेता और लंबे समय तक प्रकाश सिंह बादल के दोस्त और विश्वस्त सहयोगी रहे सुखदेव सिंह ढींढसा का साथ गंवाना पड़ा. राज्यसभा सांसद ढींढसा ने अपने बेटे और राज्य के पूर्व वित्त मंत्री परमिंदर सिंह ढींढसा के साथ पार्टी छोड़ी और शिरोमणि अकाली दल (लोकतांत्रिक) का गठन किया.
पंजाब की राजनीति में यह व्यापक धारणा है कि राज्य भाजपा ने बादल परिवार की छत्रछाया से बाहर एसएडी के नए स्वरूप को आकार देने के लिए वैकल्पिक जाट-सिख नेताओं के रूप में ढींढसा को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है. भाजपा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह पंजाब में बड़ी हिस्सेदारी चाहती है, यदि गठबंधन में बड़ा भाई न भी बन पाए तो भी बराबर की भागीदार बनना चाहती है.
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पंजाब भाजपा में एक वर्ग का मानना है कि उसे राज्य में बादल परिवार के प्रति नाराजगी के कारण ही विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा चुनावों में भी हार का सामना करना पड़ा है और बादल की अगुवाई वाली एसएडी के साथ रहने से 2022 में एक और चुनावी हार तय है.
एसएडी सूत्रों का कहना है कि बादल इस बात को लेकर राज्य भाजपा से खुश नहीं है जिस तरह से उसने उनकी पार्टी के भीतर ‘असंतोष को हवा देने’ वाला काम किया है.
इसलिए, हरसिमरत के इस्तीफे से दो सवाल उपजे हैं- क्या अकाली भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ने जा रहे हैं, और क्या किसान बादल के नेतृत्व वाले अकाली दल को फिर दिल से स्वीकार करेंगे?
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