नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश सरकार ने 2015 में मोहम्मद अखलाक की दादरी में हुई लिंचिंग के सभी आरोपियों के खिलाफ लगाए गए आरोप वापस लेने के लिए एक आवेदन दायर किया है. इस आवेदन में गवाहों के बयान में असमानता, आरोपियों और अखलाक के बीच किसी पुरानी दुश्मनी का सबूत न मिलना और “सामाजिक सौहार्द बहाल करने” की ज़रूरत को वजह बताया गया है.
बीजेपी के एक स्थानीय नेता संजय राणा के बेटे विशाल राणा जो कोई सरकारी पद नहीं रखते—की अगुवाई वाले समूह को दादरी के बिसहड़ा गांव में अखलाक की हत्या के लिए गिरफ्तार किया गया था. करीब एक दशक पहले हुई इस घटना ने पूरे देश में भारी आक्रोश और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन को जन्म दिया था, जिसके बाद ये गिरफ्तारियां हुईं.
10 सितंबर को गौतम बुद्ध नगर के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा लिखा गया एक पत्र—जो 26 अगस्त को यूपी सरकार के केस वापस लेने के आदेश के बाद लिखा गया—बताता है कि राज्यपाल ने सरकारी वकील को सरकार के निर्देश लागू करने की लिखित अनुमति दे दी है.
पत्र में लिखा था, “…माननीय राज्यपाल द्वारा पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को माननीय न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत करने की लिखित अनुमति प्रदान की गई है और आगे की कार्रवाई दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 में वर्णित प्रावधानों के अनुसार करने का निर्देश दिया गया है (sic).”
अब यह केस वापस लेने का आवेदन सीआरपीसी की धारा 321 के तहत दायर किया गया है. यह धारा सरकारी वकील को अदालत की अनुमति से किसी केस में अभियोजन वापस लेने का अधिकार देती है.
एडिशनल डिस्ट्रिक्ट गवर्नमेंट काउंसल (एडीजीसी) भग सिंह भाटी ने समाचार एजेंसियों को बताया कि राज्य सरकार से सच में पत्र मिला है. उन्होंने कहा कि इसमें दादरी लिंचिंग केस में अभियोजन वापस लेने का निर्देश दिया गया है.
क्रिमिनल और मानवाधिकार वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा, “…राज्य की ऐसी कार्रवाइयां अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं और कानून के राज को कमज़ोर करती हैं”.
उन्होंने दोहराया कि कानून के अनुसार ऐसा आवेदन सिर्फ ‘जनहित’ में ही दाखिल किया जाना चाहिए. “जिस अपराध में एक व्यक्ति को उसकी धार्मिक पहचान के कारण भीड़ ने मार दिया, उसमें आरोपियों को न सज़ा देना चाहने का मतलब है कि राज्य पक्षपातपूर्ण तरीके से काम कर रहा है और खुद को बहुसंख्यकवादी शासन की तरह पेश कर रहा है.”
दिप्रिंट से बात करते हुए उन्होंने समझाया कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के ‘तेहसीन पूनावाला’ फैसले में “मॉब लिंचिंग को हेट क्राइम बताया था और साफ दिशानिर्देश दिए थे कि राज्य की ज़िम्मेदारी है कि ऐसे अपराध करने वालों को सज़ा दिलाई जाए”.
राज्य का यह आवेदन, उन्होंने कहा, न सिर्फ “सुप्रीम कोर्ट के आदेश का खुला उल्लंघन है, बल्कि उसके संवैधानिक दायित्वों से भागने जैसा है”.
2015 में हुई थी घटना
28 सितंबर 2015 को भीड़ अखलाक के घर में घुस गई. यह घटना उस घोषणा के बाद हुई जिसमें कहा गया था कि उसने गाय को काटा है और अपने फ्रिज में बीफ रखा है.
भीड़, जिसका नेतृत्व विशाल राणा और उसके चचेरे भाई शिवम ने किया, उसने अखलाक और उसके 22 साल के बेटे दानिश को घर से बाहर घसीटा. फिर भीड़ ने पिता-पुत्र को पीटा जब तक कि वे गिर नहीं गए.
अखलाक (52) की नोएडा के एक अस्पताल में मौत हो गई. दानिश बड़ी सिर की सर्जरी के बाद बच गया.
पुलिस ने 18 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें तीन नाबालिग भी थे और भारतीय दंड संहिता की धाराओं 302 (हत्या), 307 (हत्या की कोशिश), 147 और 148 (दंगा और घातक हथियारों से दंगा), 149 (गैरकानूनी भीड़), 323 (मारपीट) और 504 (जानबूझकर अपमान) जैसी धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की.
181 पन्नों की चार्जशीट जिसमें 15 आरोपियों के नाम थे—जिनमें विशाल और शिवम मुख्य साजिशकर्ता बताए गए—उसी साल दाखिल कर दी गई थी. आरोपियों में से एक की बाद में न्यायिक हिरासत में मौत हो गई. 2017 के अंत तक सभी आरोपी ज़मानत पर बाहर आ गए.
ट्रायल 26 मार्च 2021 को शुरू हुआ जब 14 संदिग्धों के खिलाफ आरोप तय हुए. प्रगति धीमी रही है. मामला अभी भी सबूतों की स्टेज पर है.
मामले में विवाद तब और बढ़ गया जब मीट की फॉरेंसिक जांच में दावा किया गया कि अखलाक के फ्रिज से जो मीट मिला था वह “गाय या उसके वंश” का था. अखलाक के परिवार ने इस जांच को चुनौती दी और सैंपल से छेड़छाड़ का आरोप लगाया. 2016 में सुरजपुर की एक अदालत ने अखलाक के परिवार के खिलाफ कथित गौकशी पर अलग एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया था.
सरकार के फैसले का कारण
अखलाक लिंचिंग का मामला फिलहाल गौतम बुद्ध नगर फास्ट-ट्रैक कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत में लंबित है. केस वापस लेने के लिए दिए गए आवेदन में—जिसे दिप्रिंट ने देखा है—अभियोजन ने कई वजहें बताई हैं, जैसे प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों में असमानता. आवेदन में लिखा है कि चार गवाहों ने “अपने बयानों में आरोपियों की संख्या बदल दी है”, जबकि दोनों पक्ष एक ही गांव में रहते थे.
इसके अलावा, आवेदन के अनुसार घटना “गाय के मांस के उपयोग” से जुड़ी है. पुलिस ने यह भी दावा किया है कि आरोपियों से “5 डंडे, लोहे की रॉड और ईंटें” बरामद हुईं, जिससे यह साफ है कि “घटना में न कोई बंदूक और न ही कोई धारदार हथियार इस्तेमाल हुआ”.
राज्य सरकार ने आवेदन में भारतीय संविधान के समानता के अधिकार का हवाला दिया है. लिखा है कि उसे “हर नागरिक को समान संरक्षण देना होगा, चाहे वह किसी भी केस में वादी हो या आरोपी”.
आवेदन में कहा गया है, “भारतीय नागरिक होने के नाते हर व्यक्ति भारतीय संविधान के संरक्षण का हकदार है. उनके अधिकार माननीय न्यायालय द्वारा सुरक्षित किए जाते हैं (sic).”
अंत में, अभियोजन ने कहा है कि केस डायरी में ऐसा “कोई भी सबूत नहीं” है जो अखलाक के परिवार और आरोपियों के बीच “पहले से किसी दुश्मनी या रंजिश” को दिखाता हो.
आवेदन में निष्कर्ष दिया गया है कि “सामाजिक सौहार्द को बड़े स्तर पर बहाल करने के उद्देश्य से”, और 26 अगस्त 2025 को विशेष सचिव, न्याय अनुभाग-5 (क्रिमिनल) के आदेश के अनुरूप, राज्य सरकार सीआरपीसी की धारा 321 के तहत केस वापस लेना चाहती है.
परिवार और कोर्ट के पास विकल्प
अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) की यह रिक्वेस्ट अपने आप केस खत्म नहीं करती. सुरजपुर कोर्ट को खुद यह तय करना होगा कि यह कदम न्याय के हित में है या नहीं. कोर्ट ट्रायल की मौजूदा स्थिति और अब तक दर्ज सबूतों को भी ध्यान में रखता है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में—जैसे शियोनंदन पासवान, राजेंद्र कुमार जैन, और स्टेट ऑफ पंजाब बनाम यूनियन ऑफ इंडिया—बार-बार कहा है कि अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केस वापस लेना किसी आरोपी को राजनीतिक या किसी और वजह से बचाने की कोशिश न हो.
अगली सुनवाई, जो 12 दिसंबर को होनी है, में अदालत शिकायतकर्ता, पीड़ित या किसी “पीड़ित व्यक्ति” की आपत्तियां भी सुन सकती है.
अखलाक का परिवार केस वापस लेने का विरोध कर सकता है और सुरजपुर कोर्ट में लिखित आपत्ति दाखिल कर सकता है. पहले भी कई मामलों में—हत्या, दंगा और सांप्रदायिक हिंसा—पीड़ित परिवारों के विरोध के बाद अदालतों ने सरकार की केस वापस लेने की मांग ठुकरा दी है.
कानूनी प्रक्रिया के अनुसार, वकील वृंदा ग्रोवर ने समझाया कि “आखिर में अदालत ही इस गलत आवेदन का फैसला करेगी”.
उन्होंने कहा, “इस मामले में कानून के सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले ही तय हैं. अदालत यह देखेगी कि आवेदन अच्छे इरादे से किया गया है या नहीं और क्या यह सार्वजनिक हित और न्याय के लिए है, न कि कानून की प्रक्रिया को रोकने के लिए. इन सभी आधारों पर यह आवेदन तुरंत खारिज किया जाना चाहिए.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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