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बुधवार, 2 जुलाई, 2025
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विदेशी वकीलों के नियमों पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया और सोसाइटी ऑफ इंडियन लॉ फर्म्स क्यों आए आमने-सामने

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में विदेशी वकीलों के प्रवेश पर एक विस्तृत फैसला सुनाया था. कोर्ट ने BCI से कहा था कि वह नियम बनाए, जिसके लिए सभी संबंधित पक्षों से चर्चा करना आवश्यक था.

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नई दिल्ली: देश में वकालत पेशे की सर्वोच्च नियामक संस्था बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) और सोसाइटी ऑफ इंडियन लॉ फर्म्स (SILF) के बीच विदेशी वकीलों की एंट्री को लेकर बने नए नियमों को लेकर जुबानी जंग तेज हो गई है. BCI ने SILF के सदस्यों को चेतावनी दी है कि संस्था की अधिकारिता को कमज़ोर करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है.

राज्यसभा में बीजेपी सांसद और सीनियर एडवोकेट मनन कुमार मिश्रा की अध्यक्षता वाली BCI ने SILF पर आरोप लगाया है कि वह “स्व-रक्षण की संस्था” बन गई है, जो कुछ चुनिंदा भारतीय लॉ फर्म्स के हितों की रक्षा कर रही है, जिन्होंने कॉरपोरेट और मध्यस्थता के काम में एकतरफा दबदबा बना लिया है.

BCI ने अपने रविवार रात जारी बयान में आरोप लगाया कि इन फर्म्स ने विदेशी क्लाइंट्स और नेटवर्क्स के साथ अनौपचारिक संबंधों का लाभ उठाया है, जिससे छोटे और मध्यम आकार की फर्म्स को सीमा-पार कानूनी काम के अवसरों से वंचित होना पड़ा.

SILF के अध्यक्ष ललित भसीन ने BCI के ताज़ा बयान पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

उन्होंने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि SILF अपने सुझाव तैयार कर रहा है ताकि नियमों को 2018 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के अनुरूप बनाया जा सके, जिसमें विदेशी वकीलों को भारत में प्रवेश की अनुमति दी गई थी, लेकिन सिर्फ “फ्लाई इन-फ्लाई आउट” आधार पर.

उन्होंने कहा कि ये सुझाव भारतीय लॉ फर्म्स के हितों को ध्यान में रखते हुए दिए जाएंगे, जिन्हें BCI द्वारा नियम बनाते समय पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया.

जब उनसे BCI के कड़े बयान पर प्रतिक्रिया मांगी गई, तो भसीन ने कहा, “हम BCI के पत्र का जवाब तब देंगे जब हम अपने सुझाव उन्हें सौंपेंगे, साथ ही ये सुझाव केंद्रीय कानून मंत्रालय, कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय को भी भेजे जाएंगे.”

दिप्रिंट से बात करते हुए BCI के सह-अध्यक्ष वेद प्रकाश शर्मा ने कहा कि कुछ भारतीय लॉ फर्म्स की चिंताओं को देखते हुए बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने सायरिल श्रॉफ की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है, जो संबंधित पक्षों से बातचीत करेगी और नियमों के संतुलित और रचनात्मक क्रियान्वयन को सुनिश्चित करेगी.

उन्होंने कहा, “यह सोच-समझकर उठाया गया कदम भारतीय विधि पेशेवरों को सशक्त बनाएगा, भारत में व्यापार करने में आसानी को बढ़ावा देगा, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) आकर्षित करेगा और भारत को अंतरराष्ट्रीय विवाद निपटान का वैश्विक केंद्र बनाने की दिशा में मदद करेगा.”

मई 2025 में, BCI ने विदेशी वकीलों को भारत में काम करने की अनुमति देने वाले नए नियम अधिसूचित किए थे, लेकिन उन्हें केवल सलाहकार भूमिका या गैर-मुकदमेबाज़ी मामलों जैसे विदेशी कानून, अंतरराष्ट्रीय कानून या अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक मध्यस्थता तक सीमित रखा गया है. BCI ने कहा कि ये नियम “विस्तृत परामर्श” और भारतीय लॉ फर्म्स की “सकारात्मक प्रतिक्रिया” के आधार पर बनाए गए हैं.

इन नियमों का क्रियान्वयन नियामकीय निगरानी और भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) प्राप्त करने पर निर्भर करेगा. इसके अलावा, विदेशी लॉ फर्म्स को BCI के साथ पंजीकरण कराना होगा. यह शर्त इसलिए जोड़ी गई है ताकि भारत में सेवा देने के दौरान ये फर्म्स जवाबदेह बनी रहें.

SILF ने इन नियमों का विरोध किया है. उनका कहना है कि ये 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हैं. उस फैसले में विदेशी लॉ फर्म्स को भारत में काम करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन साथ ही केंद्र सरकार और BCI को उनके संचालन को विनियमित करने का निर्देश भी दिया गया था. SILF का दावा है कि शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि विदेशी वकीलों को सिर्फ “फ्लाई इन-फ्लाई आउट” आधार पर काम करने की अनुमति दी जाए.

लेकिन SILF का तर्क है कि BCI के नियम अदालत की इस महत्वपूर्ण टिप्पणी की अनदेखी करते हैं और इनका दायरा बहुत बढ़ा हुआ है, क्योंकि ये विदेशी लॉ फर्म्स को भारतीय फर्म्स के साथ साझेदारी करके भारत में काम करने की अनुमति देते हैं.

मामला सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंचा?

भारत में विदेशी वकीलों की एंट्री हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रही है, और यह पहली बार नहीं है जब इस कदम का विरोध हुआ हो। पहले भी, विदेशी अधिवक्ताओं को भारत में वकालत करने की अनुमति देने के सुझाव पर स्थानीय कानूनी समुदाय ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में यह फैसला नहीं दिया कि वे भारत में न तो दफ्तर खोल सकते हैं और न ही किसी भी प्रकार की वकालत—चाहे मुकदमेबाज़ी से जुड़ी हो या सलाहकारी भूमिका में—कर सकते हैं.

2000 में, राजधानी दिल्ली के वकीलों ने सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया था, जब भारत के विधि आयोग के एक वर्किंग पेपर ने अधिवक्ताओं अधिनियम, 1961 में संशोधन करके विदेशी कानूनी सलाहकारों को भारत में प्रैक्टिस करने की अनुमति देने का सुझाव दिया था. इस विरोध प्रदर्शन के दौरान जब वकीलों ने संसद की ओर मार्च करने की कोशिश की, तो दिल्ली पुलिस के साथ उनकी झड़प हुई और उन पर लाठीचार्ज किया गया.

इसी बीच, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) पहले ही विदेशी लॉ फर्म्स को भारत में लायज़न ऑफिस खोलने के लिए लाइसेंस जारी कर चुका था. यह लाइसेंस विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के तहत दिए गए थे.

इस कदम को चुनौती देते हुए गैर-लाभकारी संस्था लॉयर्स कलेक्टिव ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि भारत में कानूनी व्यवस्था को अधिवक्ताओं अधिनियम नियंत्रित करता है, इसलिए RBI को ऐसे लाइसेंस जारी करने का अधिकार नहीं था.

दिसंबर 2009 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इन लाइसेंसों को अमान्य करार देते हुए रद्द कर दिया और यह स्पष्ट किया कि “प्रैक्टिस” की परिभाषा में क्या-क्या शामिल होता है. कोर्ट ने कहा कि दस्तावेज तैयार करना, कानूनी राय देना, क्लाइंट्स को सलाह देना, और केवल कोर्ट में पेश होना ही नहीं, बल्कि ये सभी गतिविधियां “प्रैक्टिस” की श्रेणी में आती हैं. कोर्ट ने आगे कहा कि गैर-मुकदमेबाज़ी सेवाएं देने के लिए भी लॉ ग्रेजुएट्स को अधिवक्ताओं अधिनियम के तहत राज्य बार काउंसिल में पंजीकृत होना अनिवार्य है.

एक साल बाद मद्रास हाई कोर्ट ने एक भिन्न दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि हालांकि विदेशी लॉ फर्म्स या वकील अधिवक्ताओं अधिनियम या BCI के नियमों का पालन किए बिना भारत में प्रैक्टिस नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें अस्थायी रूप से भारत आने या “फ्लाई-इन, फ्लाई-आउट” आधार पर विदेशी कानून या अंतरराष्ट्रीय कानूनी मामलों पर सलाह देने से रोका नहीं जा सकता.

यह फैसला वकील ए.के. बालाजी द्वारा दायर एक याचिका पर आया था, जिसमें उन्होंने कई विदेशी लीगल प्रोसेस आउटसोर्सिंग (LPO) फर्म्स की स्थापना को चुनौती दी थी। बालाजी ने इन LPOs को विदेशी लॉ फर्म्स बताया था, जो अधिवक्ताओं अधिनियम के तहत मान्य नहीं थीं। मद्रास हाई कोर्ट ने भारत में मध्यस्थता कार्यवाही, खासकर अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक मध्यस्थता के तहत, विदेशी वकीलों की भागीदारी को भी अनुमति दी थी.

मद्रास हाई कोर्ट के इस फैसले से असहमति जताते हुए BCI ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जिसने 2018 में इस मुद्दे पर एक विस्तृत निर्णय सुनाया.

भसीन ने भारत में विदेशी वकीलों पर लगाई गई सीमाओं पर ज़ोर देते हुए 2018 के फैसले का हवाला दिया. उन्होंने कहा, “फैसले ने BCI को निर्देश दिया था कि वह सभी पक्षकारों से चर्चा करके नियम बनाए. लेकिन संस्था ने ऐसा किए बिना ही नियम जारी कर दिए.”

2023 में भी BCI ने एक नियमावली जारी की थी, लेकिन उसे दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. भसीन ने बताया कि 2023 और 2025 के नियमों में कोई अंतर नहीं है, इसलिए BCI को मामले के फैसले तक इंतज़ार करना चाहिए था.

हालांकि, BCI के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित चुनौती के बावजूद, 2023 में जारी नियमों पर कोई रोक नहीं लगी है, इसलिए नई नियमावली जारी करने से BCI को नहीं रोका गया.

भसीन ने इस नियम पर भी आपत्ति जताई जिसमें विदेशी वकीलों या लॉ फर्म्स को BCI के साथ पंजीकरण कराने की अनुमति दी गई है. उन्होंने कहा कि BCI ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खुलकर अवहेलना की है क्योंकि फैसले में विदेशी फर्म्स या अधिवक्ताओं के पंजीकरण की कोई बात नहीं की गई थी. उन्होंने कहा, “अधिवक्ताओं अधिनियम के तहत केवल भारतीय नागरिक को ही वकील के रूप में पंजीकृत किया जा सकता है.”

BCI सदस्य ने पंजीकरण के पीछे के तर्क को स्पष्ट करते हुए कहा: “अगर हम उन्हें फ्लाई-इन और फ्लाई-आउट आधार पर काम करने की अनुमति भी देते हैं, तो भी हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वे यहां दी गई सेवाओं के लिए, चाहे अस्थायी ही क्यों न हों, जवाबदेह रहें.” उन्होंने स्पष्ट किया कि यह पंजीकरण सभी के लिए नहीं, बल्कि कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के लिए, पारस्परिकता के आधार पर होगा.

भसीन ने इस तर्क का जवाब देते हुए कहा कि कानून के क्षेत्र में पारस्परिकता अब तक सिर्फ एक औपचारिकता भर रही है.

उन्होंने कहा, “यूके भारतीय वकीलों को वहां कानून प्रैक्टिस करने की अनुमति देता है, लेकिन कड़े नियमों और वर्क परमिट पाने की कठिन प्रक्रिया के कारण असल में ऐसा हो नहीं पाता,” और BCI के विदेशी लॉ फर्म्स को साझेदारी की अनुमति देने के फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया.

उन्होंने कहा, “विदेशों में लॉ फर्म्स को बड़े कॉरपोरेट हाउस के रूप में परिभाषित किया गया है. ये लिस्टेड कंपनियां होती हैं जिनमें बाहरी लोग निवेश करते हैं. BCI इन सच्चाइयों से अनभिज्ञ है.”

उनके अनुसार, BCI उन कई चिंताओं को संबोधित करने में भी असफल रहा है जो कानूनी समुदाय ने अधिवक्ताओं अधिनियम को लेकर उठाई हैं, जो अब पुराना हो चुका है और वकीलों को खुद का प्रचार करने की अनुमति नहीं देता. भसीन ने कहा , “चूंकि विदेशी वकीलों पर यह कानून लागू नहीं होगा, वे भारत में अपने काम का प्रचार या विज्ञापन आसानी से कर सकते हैं, जिससे यहां प्रैक्टिस करने वाले वकीलों के लिए बराबरी का मौका नहीं रहेगा.”

जब उनसे पूछा गया कि जब BCI पहले से सायरिल श्रॉफ की अध्यक्षता में एक समिति बना चुका था, तो SILF ने फिर से कॉरपोरेट वकील शार्दुल श्रॉफ की अध्यक्षता में एक समिति क्यों बनाई, तो भसीन ने कहा, “2023 से अब तक BCI ने हमसे संवाद करना उचित नहीं समझा. इसलिए हमने सोचा कि अलग-अलग लॉ फर्म्स के सुझावों को एकत्र कर उन्हें BCI को सौंपना बेहतर होगा.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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