नई दिल्लीः बिहार ने भले ही ‘पहली बार’ अपराध करने वाले आरोपियों को सलाखों के पीछे रखने के बजाय जुर्माना देकर छूट देने के लिए अपने शराब कानून में ढील दी हो, लेकिन वास्तविकता कई अपराधियों के लिए गंभीर रही है.
पहली बार के अपराधियों के खिलाफ दर्ज 1.5 लाख से अधिक मामले अभी भी सुस्त राज्य की विभिन्न निचली अदालतों में अटके हुए हैं, जिसका कारण है कि राज्य सरकार और पटना हाईकोर्ट इस बात पर सहमत नहीं हो पाए हैं कि इन मामलों की सुनवाई के लिए उपयुक्त प्राधिकारी कौन है.
विडंबना यह है कि कानून में संशोधन पिछले साल तब किया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में राज्य की अदालतों में शराबबंदी के मामलों, खासकर पहली बार अपराध करने वालों के मामले में बिहार सरकार को फटकार लगाई थी.
इस मुद्दे को हल करने के लिए राज्य सरकार ने पिछले मार्च में बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम 2016 की धारा-37 में ढील दी. यह धारा ‘गैर-आदतन’ शराब पीने वालों को दंडित करती है – अनिवार्य रूप से, जिन्हें पहले आरोपी नहीं बनाया गया है.
मूल कानून में पहली बार अपराध करने वालों के लिए तीन महीने की जेल या 50,000 रुपये का जुर्माना अनिवार्य था, लेकिन संशोधन के बाद निर्धारित किया गया कि ऐसे अपराधी अब कार्यकारी मजिस्ट्रेट के समक्ष सिर्फ जुर्माना (राशि नहीं बताई गई) का भुगतान करेंगे और किसी भी जेल का सामना नहीं करेंगे. हालांकि, जुर्माना न दे पाने वालों को एक महीने के साधारण कारावास का सामना करना पड़ा. आरोपी भी आरोपों को चुनौती दे सकता है.
संशोधन के बावजूद, संभवतः एक विधायी निरीक्षण के कारण मामले निस्तेज़ हो रहे हैं.
यह खुलासा उन दस्तावेजों से हुआ, जो शराबबंदी कानून से उत्पन्न जमानत याचिकाओं का सामना कर रही बिहार सरकार ने पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में दायर किए थे, ऐसे मामलों से निपटने के लिए शीर्ष अदालत राज्य के न्यायिक ढांचे का जायजा ले रही है.
दिप्रिंट को प्राप्त इन दस्तावेज़ से पता चला है कि शराब की खपत के लंबित मामलों के पीछे कारण राज्य सरकार और पटना हाईकोर्ट के बीच असहमति है.
हालांकि, राज्य प्रशासन का कहना है कि शराब पीने के मामलों को सुनने और निपटाने का काम कार्यकारी मजिस्ट्रेट को सौंपा जाए, लेकिन हाईकोर्ट का विचार है कि केवल एक न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास इन मामलों की जांच करने की शक्ति होनी चाहिए.
पटना हाईकोर्ट ने एक समाधान के तौर पर राज्य के प्रयास को भी ठुकरा दिया, जिसमें इन मामलों की सुनवाई के लिए अपने न्यायिक मजिस्ट्रेटों को नामित करना था. अदालत का तर्क था कि कानून यह शक्ति केवल एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को प्रदान करता है और इसलिए इसे एक न्यायिक अधिकारी को नहीं सौंपा जा सकता है.
हालांकि, हाईकोर्ट ने राज्य को बिहार मद्यनिषेध और आबकारी अधिनियम में उपयुक्त संशोधन करने की सलाह दी है ताकि न्यायिक मजिस्ट्रेट को इन मामलों की सुनवाई करने की अनुमति मिल सके, लेकिन राज्य ने ऐसा करने से इनकार कर दिया है. इसके बजाय उसने अदालत से अपने विचार पर पुनर्विचार करने और न्यायिक मजिस्ट्रेटों को नामित करने के राज्य के उपाय को स्वीकार करने के लिए कहा है ताकि न्यायपालिका का काम का बोझ कम हो सके.
कानून में संशोधन के तुरंत बाद शुरू हुई राज्य और न्यायपालिका के बीच की यह खींचतान पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में चर्चा का विषय बनी. सुनवाई के बाद, शीर्ष अदालत ने सरकार से कानून में संशोधन पर विचार करने को कहा है.
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‘अहंकार ही मुद्दा’
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने राज्य सरकार के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत कुमार से कहा कि प्रथम दृष्टया वह पटना हाईकोर्ट के इस विचार से सहमत है कि कार्यकारी मजिस्ट्रेट को किसी अभियुक्त को जेल भेजने के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति के साथ अधिकृत नहीं किया जा सकता है.
कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपनी आपत्ति जताते हुए कहा कि सरकार को इसे अहंकार का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए और कानून में विसंगति का समाधान करना चाहिए.
दिप्रिंट से बात करते हुए, अधिवक्ता गौरव अग्रवाल, जो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ की सहायता कर रहे हैं, ने हाईकोर्ट की राय से सहमति व्यक्त की. उन्होंने कहा कि विवादित प्रावधान एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को न्यायिक शक्तियां प्रदान करता है, जो नहीं किया जा सकता था.
हालांकि, बिहार सरकार ने अपने हलफनामे में जोर देकर कहा है कि एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम की धारा-37 के तहत जांच करने से नहीं रोका जा सकता है.
राज्य ने प्रस्तुत किया कि समरी ट्रायल के लिए शक्ति कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को बिहार कंडक्ट ऑफ एग्जामिनेशन एक्ट, 1981 नामक एक स्थानीय कानून के तहत प्रदान की गई है. इस कानून के तहत, विधिवत अधिकृत कार्यकारी मजिस्ट्रेट संक्षिप्त ट्रायल के माध्यम से मामलों का निपटारा कर सकते हैं, जहां अपराध ज़मानती और गैर-जमानती हैं, और छह महीने तक की सजा या दो हज़ार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.
बिहार ने अन्य राज्य के कानूनों के उदाहरणों का भी हवाला दिया जहां कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को कानून तोड़ने वालों को जेल भेजने का अधिकार दिया गया है – उड़ीसा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति विनियमन, 1956 का स्थानांतरण, जहां अपराध के लिए दो साल तक की सज़ा/या 5,000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है और उड़ीसा ऋण राहत अधिनियम 1980 जो दोषी पाए जाने वालों के लिए दो साल की जेल और / या 5,000 रुपये तक का जुर्माना निर्धारित करता है.
कानून में उपयुक्त संशोधन करने के हाईकोर्ट के सुझाव के जवाब में, ताकि न्यायिक मजिस्ट्रेट पहली बार शराब का सेवन करने वाले अपराधियों के मामलों को उठा सकें, राज्य ने कहा कि यह ज़रूरी नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार की ओर से दायर हलफनामे में जवाब में तर्क दिया है कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों (जो न्यायिक मजिस्ट्रेट से वरिष्ठ हैं) की अध्यक्षता वाली विशेष अदालतें वर्तमान में धारा-37 के तहत दर्ज मामलों की सुनवाई कर रही हैं. इसके अलावा, यह संशोधन के बावजूद किया जा रहा है. कानून इन एडीजे अदालतों को शक्तियां प्रदान नहीं कर रहा है.
जवाब में कहा गया है, ‘‘अगर वर्तमान में धारा 37 के मामले एडीजे स्तर के विशेष न्यायालयों द्वारा देखे जा सकते हैं (भले ही धारा 37 कार्यकारी मजिस्ट्रेट के बारे में बात करती है), तो न्यायिक मजिस्ट्रेट भी इन मामलों को देख सकते हैं.’’
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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