अहमदाबाद, सूरत: साल 2001 के दिसंबर में रफीक अहमद राफिद शेख, एक 31 वर्षीय ऑटोमोबाइल इंजीनियर थे, जिन्होंने कुछ समय पहले की अपनी खुद की वर्कशॉप शुरू की थी. साकिब एम फारूकी, जो तब केवल 20 साल के थे, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन में डिग्री हासिल करने के बाद अपनी पहली नौकरी पाने ही वाले थे.
दोनों लोग, जो कभी आपस में नहीं मिले थे, सूरत में एक सेमिनार में शिरकत कर रहे थे, जहां मुस्लिम समुदाय को सशक्त करने के उपायों पर चर्चा होने जा रही थी.
उसकी बजाय, 28 दिसंबर की रात को हुए घटनाक्रम ने उनके भविष्य को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया. यहां से शुरू हुई उनकी 20 साल की अग्निपरीक्षा- जिसमें ये लोग जेल में रहे, ज़मानत पर छूटे, इनके घर छूटे, नौकरियां छूटीं, और अब ये रोज़ी-रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं.
उस रात के बाद से 20 सालों में शेख के ऑटोमोबाइल के सपने अब एक ठेलागाड़ी तक सीमित होकर रहे गए, जिसमें वो खाना और कपड़ा बेचते हैं. फारूकी का स्वास्थ्य देखभाल से कोई वास्ता नहीं है और वो अब ग्रीटिंग कार्ड्स बेचते हैं.
सिर्फ एक तसल्ली है- अब वो आतंकवादी नहीं हैं, जिसका कभी उनपर आरोप लगाया गया था.
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आरोप और रिहाई
शेख और फारूकी समेत 127 मुसलमान, सूरत में अखिल भारतीय अल्पसंख्यक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित सेमिनार में शिरकत कर रहे थे, जब पुलिस ने वहां पहुंची और जो वहां दिखा, उसे गिरफ्तार कर लिया.
सभी 12 लोगों पर स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के सदस्य होने का आरोप लगाया गया और पुलिस ने दावा किया कि वो जमावड़ा, दरअसल और अधिक सिमी सदस्यों की भर्ती के लिए था. उन सभी पर गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया.
ये आरोप 20 साल तक लगे रहे. जब तक 6 मार्च 2021 को सूरत की एक अदालत ने सभी 127 आरोपियों को इन आरोपों से बरी नहीं कर दिया.
सूरत कोर्ट ने कहा, ‘कोर्ट ने पाया है कि अभियुक्त, शिक्षा से जुड़े एक कार्यक्रम में शिरकत के लिए जमा हुए थे और उनके पास कोई हथियार नहीं थे. अभियोजन ये भी साबित नहीं कर पाया है कि अभियुक्त वहां सिमी से जुड़ी किसी गतिविधि के लिए जमा हुए थे’.
‘छापों के दौरान भी, वहां मौजूद 123 लोगों में से किसी एक ने भी मौक़े से भागने की कोशिश नहीं की. और ना ही, ज़ब्त किए गए दस्तावेज़ों का सिमी से कोई ताल्लुक है’.
आरोपी बनाए गए सभी लोगों ने अपनी रिहाई से राहत की सांस ली है लेकिन इससे उन बीस सालों के नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती, जो उन्हें सहने पड़े हैं.
एक टेलीकॉम इंजीनियर शहीदुल हसन, जिन्होंने गिरफ्तार होने के बाद अपनी नौकरी गंवा दी थी, पूछते हैं, ‘हम माननीय जज के आभारी हैं कि उन्होंने ये फैसला सुनाकर हम सब को बरी कर दिया. लेकिन वो 20 साल कौन लौटाएगा, जो हमने गंवा दिए हैं? हमने जो कुछ सहा है, उसकी भरपाई कौन करेगा?’
‘हम सबको आतंकवादी और देश-विरोधी कहा गया. हमने अपने रोज़गार खो दिए, इज्जत गंवा दी और अब हम सदमे को भूल नहीं सकते. इंसाफ में देरी का मतलब है इंसाफ से इनकार’.
जिंदगी बदल गई
सेमिनार में आमंत्रित किए गए लोगों में से किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि ये उनकी ज़िंदगियां बदल देगा.
वो आयोजन अखिल भारतीय अल्पसंख्यक शिक्षा बोर्ड का आठवां शिक्षा सेमिनार था और उसमें मुसलमानों में शिक्षा की स्थिति से जुड़े बहुत से मुद्दों पर चर्चा की जानी थी.
रफीक अहमद राफिद शेख, जो अब 50 वर्ष के हो चुके हैं, ने कहा, ‘मुझे अभी भी याद है कि हमने क्या-क्या सत्र प्लान किए थे- ग्रेजुएशन के बाद कौम को कैसे विकसित करें, संविधान के तहत हमारे क्या अधिकार हैं और शिक्षा के ज़रिए हम अपनी कौम को कैसे मज़बूत बना सकते हैं’.
दूसरे बहुत से लोगों की तरह शेख भी, उस आयोजन में ये जानने के लिए शरीक हुए थे कि शिक्षा से कौम की किस तरह सेवा की जा सकती है. ये सब पुलिस के सेमिनार स्थल पर आने से पहले था.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘रात में, हम लोग सो रहे थे, जब पुलिस वाले आए और हमें पुलिस स्टेशन ले गए. हमें अगले दिन जाकर ही पता चला कि हमें गिरफ्तार किया जा रहा था. मैंने 11 महीने जेल में बिताए, तब कहीं जाकर ज़मानत मिली लेकिन इससे ज़िंदगी बिल्कुल भी आसान नहीं हुई’.
बाहर आने के बाद, शेख उस वर्कशॉप का किराया वहन नहीं कर सकते थे, जो उन्होंने तैयार की थी. उन्होंने हर वो चीज़ बेचनी शुरू कर दी, जो उनका हाथ लग सकती थी- फल, चाय और हाल ही में कपड़े, एक ठेले पर रखकर, जो वो अपने घर के पास एक बाज़ार में ढकेलते हैं. उनका कहना है कि बीस साल में, जबसे उनके खिलाफ केस दर्ज हुआ था, उन्हें 17 बार अपना घर बदलना पड़ा क्योंकि मकान मालिक नहीं चाहते थे कि वो उनके मकान में रहें.
शेख की पत्नी सुरैया ने बताया, ‘हम लोग महाराष्ट्र के धुले ज़िले में, सिंधखेड़ा में रहा करते थे लेकिन ज़मानत के आदेश में कहा गया कि उन्हें हर दो हफ्ते में, सूरत के अथवा पुलिस लाइन थाने में हाज़िरी लगानी थी. इसका मतलब था कि दो छोटे बच्चों के साथ, एक ओर से 200 किलोमीटर से अधिक का सफर तय करना था. सफर कम करने के लिए हमने सूरत में रहने का फैसला कर लिया. वो हमारी ज़िंदगी के सबसे खराब साल थे’.
आसिफ शेख, जो एक महत्वाकांक्षी पत्रकार थे, अपने पड़ोस में इसके बारे में सुनने के बाद, सेमिनार में शरीक हुए थे. उनके पास डेवलपमेंट कम्यूनिकेशन में मास्टर्स डिग्री थी और वो सामाजिक मुद्दों में दिलचस्पी रखते थे.
उन्होंने कहा, ‘जेल से रिहा होने के बाद पुलिस मुझे परेशान करती थी और किसी भी समय मुझे बुला लेती थी. जब भी कोई हिंदू त्योहार आता था, तो वो मेरा पता-ठिकाना पूछने लगते थे, जैसे मैं कोई मुजरिम था’.
‘मुझे कई बार शादी के लिए ठुकराया गया और 38 की उम्र में जाकर ही मेरी शादी हो पाई. इसकी वजह से मेरे बच्चे नहीं हो सके. मेरे सहयोगी ज़िंदगी में मुझसे आगे निकल गए हैं और मैं किनारे खड़े होकर देखता रहा हूं’.
शेख को 11 महीने जेल में बिताने के बाद ज़मानत मिली और उन्होंने कई जगह नौकरियों के लिए आवेदन किया- जिसमें एक डेवलपमेंट स्टडीज़ इंस्टीट्यूट में टीचर की नौकरी भी थी- जहां से केस के बारे में पता चल जाने पर नियोक्ताओं ने उसे छोड़ने को मजबूर कर दिया. गुज़र-बसर के लिए शेख अब मसाले बेचते हैं और साल में एक बार अहमदाबाद के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में इस्लामी शिक्षा से जुड़ी किताबें बेचने के लिए स्टॉल लगाते हैं.
उन्होंने कहा, ‘बेशक मुझे चिंता है कि हमें फिर निशाना बनाया जा सकता है. लेकिन अगर हम अपने लिए नहीं बोलेंगे, तो फिर कौन बोलेगा? कोई नहीं बोलेगा और हमने बहुत तकलीफें उठाकर ये सीखा है’.
साकिब एम खालिद फारूकी, जो अब 40 के हैं, ने कहा कि जब तक उन्हें एक ऑफर मिलता, तब तक वो जेल जा चुके थे, और इस तरह अपने परिवार के लिए कमाने का अवसर निकल गया. अब वो अहमदाबाद में अपने घर के नीचे बने एक छोटे से ऑफिस से बिज़नेस और ग्रीटिंग कार्ड्स डिज़ाइन करते हैं.
साकिब की 80 वर्षीय मां ज़ेबुन्निसा फारूकी ने दिप्रिंट को बताया, ‘जब वो जेल में था तो पुलिस ने छापा भी मारा था. उस वक्त मैं अपनी बेटी के साथ अकेली थी और कोई महिला पुलिस अधिकारी मौजूद नहीं थी. दोपहर के वक्त वो घर में घुस आए और जब कुछ नहीं मिला, तो चले गए’.
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केस में इतना लंबा समय क्यों लगा
कई कारणों से केस में 20 साल का लंबा समय लग गया- अभियुक्तों की बड़ी संख्या जिन्हें समन किया जाना था और उनके बयान दर्ज होने थे, मुकदमे के दौरान कई जजों के तबादले और मामले में शीघ्रता की कमी क्योंकि सभी अभियुक्तों को उनकी गिरफ्तारी के 11 से 14 महीने के बीच ज़मानत मिल गई थी.
लोक अभियोजक और सरकारी वकील नयन सुखाड़वाला ने, जो इस केस में सरकार के नुमाइंदे हैं, दिप्रिंट से कहा, ‘केस में देरी प्रक्रिया की वजह से हुई. इसके बहुत से कारण हैं: कभी-कभी अभुयुक्त या गवाह अदालत में हाज़िर नहीं होते थे, और सरकार की ओर से नियुक्त, विशेष अभियोजक भी बदलते रहते थे’.
‘इसमें नियुक्त होने वाला मैं आखिरी अभियोजक था लेकिन एक अभियोजक ने विधायक बनने के लिए बीच में ही इस्तीफा दे दिया था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमने फैसले की प्रमाणित प्रतिलिपियां दिए जाने का अनुरोध किया है और फैसले को पढ़ने के बाद, अगर अपील का मामला बनता है, तो हम अपील दायर करेंगे’.
अभियुक्तों पर यूएपीए की धारा 10 (किसी विधि विरुद्ध संगम, आदि का सदस्य होने पर शास्ति), 13 (विधिविरुद्ध क्रियाकलाप के लिए दंड) और 15 (आतंकी गतिविधि) के तहत मुकदमे दर्ज किए गए थे, जो आज की अपेक्षा कहीं कम सख्त धाराएं थीं. मुकदमे में लगाई गई धारा 10 के तहत, ज़्यादा से ज़्यादा 2 साल की सज़ा का प्रावधान है.
सबूतों के अभाव को देखते हुए, गुजरात हाई कोर्ट और भारत के सर्वोच्च न्यायालय- जहां अभियोजन पक्ष ने तीन लोगों के खिलाफ, कुछ और सबूत मिलने का दावा करते हुए अपील की थी- दोनों ने अभियुक्तों को ज़मानत दे दी.
बचाव दल के एक वकील एमएम शेख ने दिप्रिंट को बताया, ‘अभियोजन पक्ष ने 20 से अधिक गवाह पेश किए थे लेकिन उनमें एक भी वस्तुत: नहीं कह पाया कि वो सिमी के हिस्सा थे, या सिमी को बढ़ावा दे रहे थे’. उन्होंने आगे कहा, ‘आखिरकार उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं थे और कोर्ट ने इस बात का संज्ञान लिया’.
तब के पुलिस महानिरीक्षक पीके रूशन, जो मामले की जांच में भी शामिल थे, ने दिप्रिंट से कहा कि सबूत न हो पाने का एक कारण ये भी था कि गवाह अपने बयानों से मुकर गए थे.
उन्होंने कहा, ‘जिन गवाहों ने पंचनामे पर दस्तखत किए थे, वो मुकर गए थे, जैसा कि ऐसे मामलों में होता है’. उन्होंने आगे कहा, ‘एक बार वो अपने बयानों से मुकर गए, तो फिर हमारे पास साबित करने का कोई रास्ता नहीं था. प्रक्रिया में देरी से ये भी हुआ कि कुछ गवाहों को या तो ढूंढा नहीं जा सका या उनकी मौत हो गई थी’.
केस में खामियां
जो लोग अभियुक्त बनाए गए थे, उनका कहना है कि केस की बुनियाद शुरुआत से ही बहुत कमज़ोर थी.
एक अन्य अभियुक्त, आसिफ शेख शरबती तो सेमिनार में शरीक भी नहीं हुआ था लेकिन उसे भी दूसरों की तरह, उन्हीं आरोपों के तहत गिरफ्तार कर लिया गया.
शरबती ने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं अपने बहनोई के साथ महाराष्ट्र में किसी जगह था. मुझे सेमिनार का बुलावा आया था और मैं वहां जाने की योजना बना रहा था लेकिन जब मैंने सुना कि वहां सबको गिरफ्तार कर लिया गया है, तो मैंने जाने का खयाल छोड़ दिया’.
शरबती के पास सूरत के वेक्टर जन्य रोग विभाग में, प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मचारी के तौर पर एक स्थाई नौकरी थी. इस केस के नतीजे में उनकी नौकरी चली गई और अब वो ऑटोरिक्शा चलाकर गुज़ारा करते हैं. परिवार का खर्च पूरा करने के लिए उनकी पत्नी परवीन ने सिलाई का काम शुरू कर दिया.
जो लोग सेमिनार में मौजूद थे उनका कहना है कि छापे के समय उन्हें गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों को भी कुछ पता नहीं था कि इस ग्रुप को क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है.
एक पूर्व साइंटिस्ट हसन ने कहा, ‘मुझे याद है हम अधिकारियों से बार-बार पूछ रहे थे कि वो ऐसा क्यों कर रहे थे और हमें किन धाराओं के तहत पकड़ा जा रहा था. एक अधिकारी ने मुझे बताया कि हम पर किन धाराओं के तहत मुकदमा कायम किया जा रहा है, उसका अभी तक फैसला नहीं हुआ है, और वो सिर्फ ऊपर से मिले आदेशों का पालन कर रहे थे’. अपने खिलाफ मुकदमा हो जाने के बाद, हसन ने काम के लिए कॉल सेंटर्स से पूछना शुरू कर दिया.
सिमी पर 127 लोगों की गिरफ्तारी से कुछ पहले ही सितंबर 2001 में बैन लगा था. अक्टूबर 2001 में, नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाल लिया था.
मुकदमा दर्ज करने वाले अधिकारी, एमजे पंचोली ने अपनी शिकायत में लिखा था कि उन्होंने छापे की कार्रवाई इसलिए की, क्योंकि उन्हें ‘एक वरिष्ठ अधिकारी से खबर मिली थी’ कि सिमी के सदस्य एक शिक्षा सम्मेलन की आड़ में सूरत के राजश्री हॉल में एकत्र होंगे.
ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि मुकदमा इसके बावजूद दर्ज हुआ कि इसकी मंज़ूरी राज्य सरकार की ओर से मिली थी, केंद्र से नहीं, जैसा कि कानूनन अनिवार्य होता है. यूएपीए लगाने की मंज़ूरी राज्य गृह विभाग के दो सेक्शन ऑफिसर्स, अशोक नारायण और कुलदीप सिंह लक्ष्मण दास की ओर से दी गई थी.
जब मुकदमा आगे बढ़ा तो सरकार ने इस केस में स्पेशल प्रॉसीक्यूटर भी नियुक्त कर दिए, जिनमें से एक जगरूप सिंह राजपूत, आगे चलकर बीजेपी से विधायक बने.
एडवोकेट शेख ने कहा, ‘सबूतों के अभाव के अलावा, कोर्ट ने ये भी माना कि ये मंज़ूरी अवैध थी क्योंकि ये राज्य से आई थी, केंद्र से नहीं’.
जो लोग गिरफ्तार किए गए थे, उनमें से ज़्यादातर ज़िंदगी की दौड़ में कहीं पीछे छूट गए हैं, और ऐसे मुल्क में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसने 20 साल तक उनपर, आतंकवादियों का ठप्पा लगाए रखा था.
साइंटिस्ट हसन ने कहा, ‘हमें राष्ट्र-विरोधी और आतंकवादी कहा गया है. काश मैं अपने अतीत की यादों को मिटा पाता. लेकिन मुझे सर अल्लामा इकबाल की कविताओं से हौसला मिलता है, जिन्होंने एक बार लिखा था: तुंदिए बादे मुख़ालिफ़ से न घबरा ए उक़ाब, ये तो चलती है तुझे ऊंचा उड़ाने के लिए (ओ बाज़! तू इन तेज़, हिंसक हवाओं से मत घबरा, ये तो तुझे ऊंचा उड़ाने के लिए ही चलती हैं’).
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(अरुण प्रशांत द्वारा संपादित)
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