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Wednesday, 20 November, 2024
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पंचमसाली लिंगायत कौन हैं और क्यों वे कर्नाटक की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण हैं

12वीं सदी के समाज सुधारक बसवन्ना के अनुयायी ‘लिंगायत’ के भीतर काफी सारे उप संप्रदाय है, जिनमें पंचमसालियों की संख्या सबसे अधिक हैं. वे आरक्षण में अधिक हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं.

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बेलगावी: लिंगायतों के सबसे बड़े उप-संप्रदाय पंचमसालियों ने कर्नाटक में बसवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ अपना आंदोलन अस्थायी रूप से स्थगित कर दिया है. वह आरक्षण में अधिक हिस्सेदारी की अपनी मांग को पूरा करने में देरी को लेकर आंदोलन कर रहे थे.

मुख्यमंत्री ने चुनावों में भाजपा और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के पीछे मजबूती से खड़े होने वाले समुदाय को नाराज न करने की उम्मीद में, पंचमसालियों और उनके संतों को आश्वासन दिया है कि जल्द ही एक अनुकूल निर्णय की घोषणा की जाएगी.

लिंगायत 12वीं सदी के समाज सुधारक बासवन्ना के अनुयायी हैं, जो भक्ति आंदोलन से प्रेरित थे. वह राजा बिज्जल द्वितीय के दरबार में एक कोषाध्यक्ष थे. उन्होंने ब्राह्मण अनुष्ठानों और मंदिर पूजा को खारिज कर दिया और एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जो जातिविहीन हो, भेदभाव से मुक्त हो और जहां पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अवसर हों.

बासवन्ना का आधार समय के साथ दुनिया भर में बढ़ता चला गया है. लेकिन उनके अनुयायियों में काफी बदलाव आया है. उदाहरण के लिए लिंगायतों के मुख्य लक्ष्य कभी जाति व्यवस्था का उन्मूलन था, लेकिन आज इसके भीतर 99 उप-संप्रदाय हैं.

प्रमुख उप-संप्रदायों में पंचमसाली, गनिगा, जंगमा, बनजीगा, रेड्डी लिंगायत, सदर, नोनाबा और गौड़-लिंगायत शामिल हैं. इस विषय के जानकारों का कहना है कि ये सभी उप-संप्रदाय जन्म, विवाह और मृत्यु के समय एक ही तरह की रस्में निभाते हैं.

मसलन, लिंगायतों में मरे हुए व्यक्ति को बैठने की स्थिति में दफनाया जाता है. समुदाय के सदस्य अपने इष्ट लिंग को अपने गले में चांदी की एक छोटी सी डिब्बी में लटका कर रखते हैं. इन उप-संप्रदायों में भिन्नता उनके पारंपरिक व्यवसायों में है.


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2015 में, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने एक सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण या जातिगत जनगणना की शुरुआत की थी. लेकिन इसके निष्कर्षों को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि सर्वे कर्नाटक में प्रमुख जाति सिद्धांत को चुनौती देने के लिए किया गया था.

कांग्रेस के भीतर वोक्कालिगा और लिंगायत जैसे प्रमुख समुदायों के नेताओं तक ने निष्कर्षों को सार्वजनिक करने पर आपत्ति जताई थी. लेकिन लीक हुए आंकड़ों से पता चलता है कि इन दोनों समुदायों की संख्या राज्य की आबादी के 10 फीसदी से नीचे आ गई है. जबकि यह पहले क्रमशः 17 फीसदी और 14 फीसदी पर थी.

अनुमान बताते हैं कि कर्नाटक की सीमा से लगे महाराष्ट्र और तेलंगाना के क्षेत्रों में लिंगायत की संख्या लाखों में है.

हालांकि कुछ जगहों पर वीरशैव और लिंगायत शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे के लिए किया जाता है. लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक वीरशैव हिंदू धर्म से अधिक प्रभावित हैं, इसलिए दोनों के बीच काफी अंतर हैं. इसके अलावा लिंगायत अपनी उत्पत्ति बसवन्ना को मानते हैं, जबकि वीरशैव के बारे में माना जाता है कि वे शिव के लिंगम से पैदा हुए थे.

लिंगायतों के पास इष्ट लिंग है और मानते हैं कि शिव एक निराकार इकाई हैं. वहीं वीरशैवों का मानना है कि शिव एक वैदिक देवता हैं. वीरशैवों के विपरीत, लिंगायत वैदिक साहित्य में विश्वास नहीं करते हैं और बासवन्ना के वचनों (शिक्षाओं) का पालन करते हैं.

बासवन्ना के 12वीं शताब्दी के ‘वचन’ अलग-अलग दक्षिणी राज्यों में कहीं गुम हो गए या यहां-वहां बिखर गए. इसके बाद कई ग्रंथों ने वीरशैवों और लिंगायतों को एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया. सिर्फ रिसर्च की वजह से वीरशैवों और लिंगायतों को अलग करने में मदद मिल पाई और इस सवाल का हल ढूंढने का प्रयास किया कि इनमें से हिंदू कौन है.

प्रमुख लिंगायत राजनेता

लिंगायतों को कर्नाटक में सबसे बड़ा जाति समूह माना जाता है और यह राज्य की आबादी का लगभग 17 प्रतिशत हिस्सा है. यह सब अनौपचारिक अनुमानों के आधार पर कहा जाता है क्योंकि इस दावे का साबित करने के लिए कोई अनुभवजन्य डेटा उपलब्ध नहीं है.

कर्नाटक में अब तक 23 मुख्यमंत्री रहे हैं, जिनमें से 10 इसी समुदाय से आते हैं. वे राज्य के लगभग सौ विधानसभा क्षेत्रों में महत्वपूर्ण संख्या में मौजूद हैं. अगर वे अतीत की तरह सामूहिक रूप से मतदान करने का निर्णय ले लेते हैं तो लिंगायत चुनावों में उलटफेर कर सकते हैं.

इस समुदाय के सबसे बड़े नेता के रूप में देखे जाने वाले येदियुरप्पा को पिछले दो दशकों से लिंगायतों का समर्थन प्राप्त है. लेकिन उनके उप-संप्रदाय को लेकर स्थिति साफ नहीं है. उनके करीबी कहते हैं कि वह बनजीगा हैं, जबकि अन्य कहते हैं कि वे बाले-बनजीगा हैं – जिनके पूर्वज चूड़ियों के कारोबार से जुड़े थे.

मौजूदा मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई एक सदर-लिंगायत हैं. यह एक बहुत छोटा उप-संप्रदाय है. यही वजह है कि पंचमसालियों का मानना है कि उनके समुदाय के एक नेता को शीर्ष पद पर मौका दिया जाना चाहिए.

कर्नाटक के उद्योग मंत्री मुरुगेश निरानी और फायरब्रांड बीजेपी विधायक व येदियुरप्पा के कट्टर आलोचक बसनगौड़ा आर. पाटिल (यतनाल) पंचमसाली संप्रदाय से आते हैं. लेकिन राज्य में मुख्यमंत्रियों में बनजिगों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा रही है. एस. निजलिंगप्पा, जेएच पटेल, वीरेंद्र पाटिल, जगदीश शेट्टार और एस.आर कांथी इसी उप-संप्रदाय से हैं.

हालांकि लिंगायतों को बड़े पैमाने पर एक समूह में रखा गया है, लेकिन इन उप-संप्रदायों के मठ इस लिहाज से खास हैं कि वे किस राजनीतिक नेता के कंधे पर हाथ रखते हैं. ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां एक से अधिक उप-संप्रदायों ने एक बड़े राजनीतिक नेता की विरासत पर दावा करने की कोशिश की है.


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पंचमसाली क्यों आंदोलन कर रहे हैं

पंचमसाली संप्रदाय के नेताओं का दावा है कि राज्य की आबादी में उनकी संख्या लगभग 80 लाख है. वहीं जंगमों की संख्या लगभग 40 लाख और बनजीगा लगभग 10 लाख है.

हालांकि ये सब अनुमान पर आधारित संख्या है.

पंचमसाली कहते हैं कि उनके संप्रदाय में कम से कम 60 प्रतिशत लिंगायत हैं. इनका आरोप है कि उन्हें उनकी संख्या के अनुपात में पर्याप्त अवसरों से वंचित किया गया है जबकि छोटे उप-संप्रदायों का उच्च कार्यालयों में उनसे ज्यादा प्रतिनिधित्व है. पंचमसाली समुदाय 2ए श्रेणी में शामिल होना चाहते हैं, जिससे वे 15 प्रतिशत आरक्षण के हकदार हो जाएंगे. वर्तमान में वे 3बी कैटेगरी में शामिल है, जहां उन्हें 5 प्रतिशत आरक्षण मिलता है.

2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों से ठीक पहले, तत्कालीन सीएम सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा दिया था. वीरशैवों को इससे बाहर रखा गया था. उनके इस कदम को भाजपा के वोटों को विभाजित करने के प्रयास के रूप में देखा गया था.

लेकिन यह चाल उलटी पड़ गई क्योंकि येदियुरप्पा ने इसे हिंदू समाज को तोड़ने के प्रयास के रूप में चित्रित किया और कांग्रेस ने उसी साल राज्य में सत्ता खो दी.

अगर केंद्र सरकार ने सिफारिश को स्वीकार कर लेती है, तो अन्य बातों के अलावा लिंगायतों को  अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने की अनुमति मिल जाएगी.

2013 में, अखिल भारतीय वीरशैव महासभा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक ज्ञापन सौंपा था. इसमें सरकार से जनगणना में वीरशैव लिंगायतों को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने के लिए कहा गया था. इस ज्ञापन पर येदियुरप्पा के हस्ताक्षर थे.

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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