चंडीगढ़: एक दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी के पंजाब का नया मुख्यमंत्री बनने के साथ ही राज्य में जटिल जातिगत समीकरण सुर्खियों में आ गए हैं.
चन्नी की नियुक्ति के साथ उपजे जाति विमर्श ने तमाम लोगों को हैरत में डाल दिया है, खासकर इसलिए भी क्योंकि सिख धर्म मूलत: समानता की बात करता है और एक समतावादी समाज के आदर्शों को बढ़ावा देता है.
बहरहाल, सिखों में जाति वर्गीकरण लगभग हिंदुओं के समान ही रहा है, हालांकि, इस विषय में अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि सिख धर्म में जाति व्यवस्था के बीच रेखाएं बहुत ज्यादा गहरी नहीं हैं और समय के साथ जातियों के बीच विभेद शुद्धता और घालमेल के सिद्धांतों से हटकर ‘भौतिक और राजनीतिक’ बन गया है.
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सिख धर्म और जाति
सिख धर्म में जाति मामलों के विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को बताया कि हालांकि यह धर्म एक समतावादी समाज की परिकल्पना करता है, लेकिन इसे पूरी तरह लागू नहीं कर पाया है.
जाने-माने विद्वान और इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. हरीश पुरी ने कहा, ‘यदि आप केवल गुरबानी (सिखों के दस गुरुओं की वाणी और उनकी दी सीख) की बात करें तो सिख धर्म में जाति व्यवस्था नहीं हो सकती. लेकिन व्यवहारिक तौर पर इस पर अमल नहीं हुआ है.’
पंजाब के दलितों पर एक अन्य विशेषज्ञ और पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में पढ़ाने वाले डॉ. रॉनकी राम ने इस पर सहमति जताई.
उन्होंने 2017 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में ‘सामाजिक बहिष्कार, प्रतिरोध और डेरे’ शीर्षक से लिखे अपने एक लेख में कहा था, ‘हालांकि सिख सिद्धांत जाति व्यवस्था को कोई जगह नहीं देता है…यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सिख धर्म जाति संरचना को पूरी तरह सिखों के समतावादी नैतिक समुदाय में बदलने में सक्षम रहा है. सिख धर्म एक जातिविहीन समाज से दूर रहा है.’
विशेषज्ञों के अनुसार, हिंदू धर्म में मौजूद जाति व्यवस्था सिख धर्म में भी स्थानांतरित की गई थी.
पुरी ने कहा, ‘सिख धर्म को खुद को विकसित करने में सदियां लगी हैं. यहां तक कि जब धर्म परिवर्तन हुआ, तो स्वाभाविक तौर पर इसका मतलब किसी का अपनी जाति को छोड़ना नहीं था. पंथ में शामिल होने वालों ने अपनी जाति को उसी तरह बहाल रखा.’
उन्होंने आगे कहा, ‘सभी 10 गुरु खत्री थे और उन्होंने अपने बच्चों का विवाह खत्री परिवारों में किया. सिख धर्म में शामिल होने के बावजूद भी सजातीय विवाहों ने विभिन्न जातियों की पहचान बनाए रखी.’
रॉनकी राम ने दिप्रिंट को बताया, ‘धर्मांतरित लोग पाहुल (बपतिस्मा का सिख स्वरूप) के बाद भी कॉन्न्यूबियम (विवाह) और सहभोज को लेकर अपनी पिछली जाति प्रथाओं का पालन करते रहे. उन्होंने सजातीय विवाह सिद्धांत के पालन में कोई ढिलाई नहीं बरती.’
उन्होंने बताया कि जाति व्यवस्था से बचने के लिए दलितों ने सिख धर्म अपना लिया, लेकिन उनके लिए स्थिति पहले की जैसी ही बनी रही.
रॉनकी राम ने कहा, ‘हिंदू दलित जातियों ने सिख धर्म अपनाया क्योंकि वे सामाजिक समानता हासिल करना चाहते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. नए धर्म में भी उनकी प्रति अस्पृश्यता की व्यवस्था बनी रही.’
पुरी के मुताबिक, यहां तक कि दलितों को एक लंबे समय तक गुरुद्वारों से दूर रखा गया. उन्होंने कहा, ‘दलित जाति के जिन लोगों ने सिख धर्म अपनाया था, उन्हें 1920 तक गुरुद्वारों में जाने की अनुमति नहीं थी. उस समय जब गुरुद्वारा सुधार आंदोलन शुरू हुआ तो यह प्रथा खत्म हुई. स्थिति अब यह है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने भी अपने सदस्यों के बीच दलित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है अन्यथा इसमें भी जाट सिखों का वर्चस्व होता.’
पुरी ने बताया कि दलित सिखों का समुदाय में दबदबे वाले जाट सिखों के हाथों उत्पीड़न जारी रहा है.
पुरी ने कहा, ‘जाट ओबीसी हैं, और पदानुक्रम में सिख दलितों से बहुत ऊपर नहीं हैं. लेकिन जाट सिख पंजाब में मुख्यत: हावी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास जमीनें हैं, और राज्य के कृषि समाज में भूमि का स्वामित्व सामाजिक वर्चस्व का एक अहम मानदंड बन हुआ है.’
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सिखों में दलित जातियां
दोनों विशेषज्ञों ने कहा कि सिख धर्म में दलितों को वैसे ही वर्गीकृत किया जाता है जैसे कि हिंदू धर्म में होता है.
पुरी ने कहा, ‘हिंदू अनुसूचित जातियों के लगभग सभी विभेद सिखों में भी मौजूद हैं. तमाम वर्ग हैं लेकिन सरल भाषा में कहें तो हिंदुओं में जो बाल्मीकि हैं उन्होंने यहां मजहबी सिख कहा जाता है, और ये जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर हैं. हालांकि, ब्रिटिश मजहबी रेजिमेंट का हिस्सा रहने के कारण उनकी स्थिति कुछ बेहतर बन पाई है. पहले, वे गुरु गोबिंद सिंह की सेना का हिस्सा रहे थे.’
ईपीडब्ल्यू में अपने लेख में, रॉनकी राम ने यह भी लिखा है कि मजहबियों में ‘रंगरेटा’ भी शामिल जो खुद को इनमें ऊपर मानते हैं.
रॉनकी राम ने इस लेख में लेखा, ‘रंगरेटाओं की गुरुघर (गुरुओं के घर) के साथ घनिष्ठता इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि भाई जैता, जिन्हें बाद में जीवन सिंह कहा गया, ने जब गुरु गोबिंद सिंह को सिखों के नौवें गुरु और उनके पिता गुरु तेग बहादुर का कटा हुआ सिर लाकर दिया जो वह दिल्ली से लेकर भागे थे, तो युवा गोबिंद राय ने अभिभूत होकर कहा रंगरेटे गुरु के बेटे.’
विशेषज्ञों के मुताबिक, जाति व्यवस्था के अगले पायदान पर चमार आते हैं, जो पारंपरिक तौर पर चमड़े का काम करते हैं और मुख्य रूप से दो समूहों में विभाजित हैं—रामदसिया और रविदासिया.
रामदासिया सिखों के चौथे गुरु गुरु राम दास को अपना मुख्य गुरु मानते हैं, जबकि रविदास किसी भी सिख गुरु का अनुसरण नहीं करते हैं, लेकिन 15वीं शताब्दी के भक्ति संत गुरु रवि दास के सिद्धांतों पर चलते हैं.
व्यावसायिक रूप से रामदासियों ने चमड़े का काम छोड़ दिया और बुनाई और रंगाई (जुलाह और रंगरेज) वाली शाखा में आ गए. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशी राम रोपड़ (अब रूपनगर) के इसी रामदासिया समुदाय से आते थे.
नए मुख्यमंत्री चन्नी भी रामदासिया सिख हैं.
पुरी ने बताया, ‘पंजाब में दलितों के बीच रविदासिया सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाला समुदाय रहा है. वे आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं और सिखों से अलग एक पहचान का दावा करते हैं. उनके अपने धार्मिक स्थल, मंदिर, गुरुद्वारे हैं.’
रॉनकी राम ने कहा कि रविदासियों को दलित ‘सिख’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि वे एक अलग दलित जाति हैं.
पुरी के मुताबिक, चमारों के बीच ही आदि धर्मियों का उदय हुआ, जिन्होंने 1920 के दशक में भूमि के मूल निवासी होने का दावा करते हुए एक आंदोलन शुरू किया और खुद को दलित ढांचे के भीतर ही अलग शीर्ष जगह दी. वे भी गुरु रविदास का अनुसरण करते हैं.
विद्वानों ने बताया कि सिख अनुसूचित जातियों के बीच कई व्यावसायिक समूहों के आधार पर वर्गीकरण होता है.
पुरी ने बताया, ‘राय सिख गन्ना मजदूर हैं और मूलत: राजस्थान से जुड़े हैं. फिर बाजीगर, कलाबाज समुदाय हैं. फिर मशकी या पानी भरने वाले, नाई और सिकलीगर या लोहार भी हैं.’
पुरी ने आगे कहा कि दलित सिखों के उत्थान के लिए उपयुक्त कदम उठाए जाने की मांग की जाती रही है.
पुरी ने बताया, ‘आजादी के बाद पूर्वी पंजाब विधानसभा के 22 सिख सदस्यों की तरफ से सिख धर्म अपनाने वाली पूर्व अछूत जातियों को समान मान्यता और अधिकार सुनिश्चित करने की मांग की गई जो उन्हें सिख नहीं बनने पर उपलब्ध होते.’
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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