नई दिल्ली: बलबीर सिंह सीनियर भारतीय हॉकी में स्वर्ण युग के अंतिम पुरोधा थे. तीन बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता, जिनका सोमवार को 95 वर्ष की आयु में निधन हो गया. वह उस जमाने में जब भारतीय टीम अजेय थी और आज की पीढ़ी के एकमात्र संपर्क सूत्र (लिंक) थे.
मैं पहली बार उनसे रविवार को चंडीगढ़ के ट्रैक एंड फील्ड ग्राउंड में एक ठंडी शरद ऋतु में मिला, जहां स्थानीय प्रेस क्लब ने ‘परिवार’ खेल (परिवार स्पोर्ट्स) का आयोजन किया था. उस समय मैं 28 वर्ष का था और 400 मीटर की दौड़ में मैं आखिरी स्थान पर आने से बाल-बाल बचा था. मैं यह स्वीकार करते हुए काफी शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं कि जो मेरे बाद आखिरी व्यक्ति फिनिशिंग लाइन पर थे वह ऑल इंडिया रेडियो के एक वरिष्ठ सहयोगी थे.
मैं अपने खराब शारीरिक आकार को हल्का बनाने की कोशिश कर रहा था जब इस बुजुर्ग सिख सज्जन ने मुझे पीछे से टोका, ‘आप क्या करते हैं?’ उन्होंने मुझसे पूछा. मैंने उन्हें बताया कि मैं दि ट्रिब्यून में रिपोर्टर हूं
सज्जन ने मुझे पंजाबी में कहा: ‘कुछ वर्जिश करने की कोशिश करो, इतना अनफिट होने की आपकी उम्र नहीं है आप अभी बहुत छोटे हैं. ‘
उनके शब्दों में कोई दुर्भावना नहीं थी, न ही उनकी आवाज में कोई दंभ ही था. इसे मेरी युवावस्था या अनुभवहीनता कहें, कि मैंने पीछे हटते हुए कहा, ‘जैसे कि आप दौड़ने के बारे में बहुत कुछ जानते हैं.’
सिख सज्जन जोर से हंसे, और विनम्रता से मुझे अपने साथ एक दौड़ की चुनौती दी. और मैं, अभी भी अपने 400 मीटर के “डैश” (दौड़) में खुद को स्मार्ट मान रहा था. मुझे एहसास था कि झूठी वाहवाही लेने के बजाय मुझे 200 मीटर की छोटी दौड़ लगानी चाहिए. लेकिन मेरा अपमान होता ही गया – मैं 28 साल का था, और वह 70 से अधिक थे, और फिर भी मैं हार गया.
बलबीर सिंह सीनियर से ये मेरा परिचय था, मेरे बॉस, द ट्रिब्यून के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख प्रभजोत सिंह, जो विशेष रूप से हॉकी को कवर करना पसंद करते थे, के अतिथि के रूप में इस कार्यक्रम में शामिल हुए थे.
हॉकी के दिग्गज ने मुझे (पंजाबी में) फिर से कहा, ‘अगर आप एक पत्रकार के रूप में बढ़ना चाहते हैं, तो अपने स्वास्थ्य की देखभाल करें. जीवन सिर्फ एक दौड़ है और इसके बिना कुछ भी हासिल नहीं होता है.’
मुझे बाद में पता चला कि वह कई भारतीय हॉकी महान खिलाड़ियों में से एक थे, य़ह बात मुझे एक अन्य पूर्व कप्तान परगट सिंह ने बताई जो दि ट्रिब्यून बिल्डिंग में प्रभजोत के कमरे के नियमित आते थे.
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पीढ़ियों के सलाहकार
एक अन्य स्थान जहां पर लिजेंडरी सेंटर फॉरवार्ड खिलाड़ी को नियमित रूप से देखा जा सकता था, वह था चंडीगढ़ सेक्टर 42 का हॉकी स्टेडियम था, जब भी कोई मैच खेला जाता था. अपनी उस उम्र में भी ये पूर्व ओलंपियन जिस खेल को प्यार करता था उसे देखने और जानने जरूर आता था.
कृत्रिम एस्ट्रोफ़र युग से पहले हॉकी के मैदान पर बलबीर सीनियर के कारनामे लगभग मेजर ध्यान चंद के रूप में प्रसिद्ध थे. और जब वह खेलों में शामिल होने के लिए आते थे, तो उन्हें अक्सर भारतीय टीम के सदस्यों सहित खिलाड़ी भी ढूंढा करते थे.
एक बार, जब हम अपने कार्यालय की कैंटीन से गर्म चाय और पकोड़े खाने के लिए बैठे थे, तब मैनें उनसे पूछा: ‘भारत अब हॉकी पदक क्यों नहीं जीतता?’
बलबीर सीनियर ने उस टीम को कोच किया था या यूं कहें कि ‘मैनेज ‘ किया था – जैसा उन दिनों कहा जाता था,जिसने भारत को 1975 में क्वाला लंपुर में विश्व कप मे जीत दिलाई थी. एक टेढ़ी मुस्कान लिए वे कहते हैं, कहा: ‘खेल बदल गया है लेकिन हम नहीं बदले हैं. सबकुछ अब गति (तेजी) और फिटनेस है. इसके अलावा, हम अपने खिलाड़ियों को सितारों में बदलने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वे आत्मसंतुष्ट हो जाते हैं और फोकस खो देते हैं. ‘
दिल्ली शिफ्ट होने के बाद मेरा सारा संपर्क उनसे खत्म हो गया था, लेकिन एक बार फिर मैं उनके पास भाग कर गया – जब वह दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में भारत का खेल देखने आए थे. और राजनेताओं और पूर्व खिलाड़ियों की भीड़ में, मैच से पहले और बाद में केवल एक व्यक्ति को टीम के साथ बातचीत करते देखा जा सकता था – बलबीर सिंह सीनियर.
आप जहां भी रहें शांति से रहें सर. सैकड़ों हॉकी खिलाड़ियों के अलावा, आपने एक आलसी पत्रकार को एक बहुत ही मूल्यवान सबक सिखाया: कभी किसी को सिर्फ इसलिए बर्खास्त नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मुफ्त, दोस्ताना सलाह देता है.
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