नई दिल्ली: किसानों के लिए भारत की ताजा मूल्य समर्थन नीति के संदर्भ में आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि इसमें यूक्रेन युद्ध के बाद बढ़ती कृषि लागत और बढ़ती खाद्य कीमतों को प्रतिबिंबित करने की तुलना में उपभोक्ता मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने पर अधिक जोर दिया गया है.
नरेंद्र मोदी सरकार ने बुधवार को जून से अक्टूबर खरीफ सीजन के दौरान बुआई वाली अनाज, दलहन, तिलहन और कपास सहित 14 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की है. औसतन, समर्थन मूल्य 6 प्रतिशत तक बढ़ाया गया है, जो चार वर्षों में सबसे अधिक है. लेकिन चुनाव पूर्व वर्ष 2018 के दौरान घोषित बढ़ोतरी (लगभग 13-20 प्रतिशत) की तुलना में काफी कम है.
इस वर्ष एमएसपी में औसत वृद्धि बीज, खाद, श्रम और ऊर्जा की उच्च लागत के कारण अनुमानित उत्पादन लागत में 6.8 प्रतिशत की वृद्धि के लिहाज से कम है. इसके अलावा, तिलहन और कपास की कई किस्मों के लिए घोषित एमएसपी मौजूदा बाजार मूल्यों की तुलना में काफी कम है, जिससे समर्थन मूल्य बेमानी हो गया है.
दिप्रिंट ने जिन विशेषज्ञों से बातचीत की उनके मुताबिक, नई एमएसपी व्यवस्था में किसानों को मुख्य अनाज वाली फसल चावल अधिक उगाने को प्रोत्साहित करने के उपाय भी कम ही किए गए हैं, खासकर ऐसे समय पर जब गेहूं की खरीद प्रभावित हुई है. तिलहन के मामले में, जिसमें भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है, किसानों से बाजार को समझने और उपज बढ़ाने की अपेक्षा की गई है.
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के नई दिल्ली स्थित कार्यालय के रिसर्च फेलो अविनाश किशोर ने कहा कि धान के एमएसपी में 5.2 फीसदी की मामूली वृद्धि चिंताजनक रूप से अपर्याप्त है. किशोर ने कहा, ‘किसानों को अधिक धान की बुआई और चावल उत्पादन बढ़ाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं दिया है, जबकि गेहूं की आपूर्ति घटने के आसार हैं और मानसून को लेकर कुछ अनिश्चितता बनी हुई है.’
उन्होंने कहा, ‘याद रखें कि चावल की एक अलग ही अहमियत है. चावल के लिए दुनिया भारत पर निर्भर है.’
मार्च में रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव के बाद 2022 में भारत की गेहूं की फसल कई सालों के निचले स्तर पर होने का अनुमान है, जिसने सरकार को पिछले महीने निर्यात पर प्रतिबंध लगाने और खाद्य सब्सिडी योजनाओं के तहत वितरित किए जाने वाले गेहूं के एक हिस्से को चावल से बदलने के लिए प्रेरित किया है. गेहूं के विपरीत, जहां मुकाबला बराबरी का होता है, भारत वैश्विक स्तर पर चावल के व्यापार में मात्रा के संदर्भ में करीब 40 प्रतिशत का योगदान देता है.
उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति अप्रैल में बढ़कर 8.4 प्रतिशत के उच्च स्तर पर पहुंच गई थी, जबकि थोक कीमतों में मुद्रास्फीति 27 साल के उच्च स्तर 15 प्रतिशत पर आ गई. लेकिन एमएसपी में यह मामूली वृद्धि खाद्य मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती. ऐसा इसलिए क्योंकि मुद्रास्फीति का एक पहलू घरेलू कारणों से परे है. खाद्य तेलों, ईंधन और प्राकृतिक गैस के आयात पर उच्च निर्भरता उपभोक्ता मूल्यों को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती है.
यह भी पढ़ें: राज्यसभा चुनाव में BJP ने 4 राज्यों में 8 सीटें जीतीं, महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस को लगा झटका
‘बदलता ग्राफ बना एमएसपी तय करने का आधार’
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने कहा कि जिंसों की कीमतें बढ़ने के बावजूद समर्थन मूल्यों में मामूली वृद्धि बस उम्मीद और भगवान के भरोसे पर टिकी हुई है.
हिमांशु ने कहा, ‘उम्मीद है कि समर्थन मूल्य कम रखने से खाद्य महंगाई पर काबू पाया जा सकता है. और भगवान से प्रार्थना यही कि मानसून मददगार साबित हो. समस्या यह है कि सरकार को कहीं गेहूं जैसी स्थिति का सामना न करना पड़ जाए, जिसमें एमएसपी बाजार मूल्य से कम होने की वजह से खरीद में तेज गिरावट के आसार हैं..’
हिमांशु के अनुसार, ताजा समर्थन मूल्य नीति घोषणा यह साबित करती है कि एमएसपी के फैसले असरकारक नहीं हैं और ‘महंगाई का बदलता ग्राफ’ इसका आधार है.
उदाहरण के तौर, पर कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की तरफ से खरीफ मूल्य नीति रिपोर्ट—जो एमएसपी घोषित करने का आधार होती है, को 31 मार्च को अंतिम रूप दिया गया था यानी रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला किए जाने के एक महीने से अधिक समय बाद. इस जंग ने वैश्विक स्तर खाद्य बाजारों को प्रभावित किया है और सभी जगह कीमतों में वृद्धि की वजह बनी है. फिर भी अक्टूबर में खरीफ फसलों की कटाई के बाद प्रभावी होने वाली सीएसीपी रिपोर्ट में इस युद्ध के प्रभाव और इसकी वजह से वैश्विक स्तर पर खाद्य और ऊर्जा की कीमतों में हुई वृदधि पर गौर नहीं किया गया है.
रेटिंग और शोध फर्म क्रिसिल लिमिटेड के निदेशक पूषन शर्मा ने कहा कि खरीफ मूल्य नीति का 14 में से दो फसलों को छोड़कर बाकी किसी पर कोई असर नहीं पड़ता है. उन्होंने कहा, ‘पिछले तीन सालों में केवल धान और कपास की ही कुछ सार्थक खरीद दिखी है (कुल उत्पादन का क्रमशः 45 प्रतिशत और 27 प्रतिशत). चूंकि कपास के लिए मौजूदा बाजार मूल्य समर्थन मूल्य से काफी अधिक है, इसलिए किसान केवल धान के एमएसपी से प्राइस सिग्नल लेंगे.
एक दशक में एमएसपी में वार्षिक बढ़ोतरी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2018 में धान के समर्थन मूल्य में 13 प्रतिशत की सबसे तेज वृद्धि हुई है. उस समय किसानों—जो भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं—के लिए 2019 के आम चुनावों के लिए मतदान से पहले यह आखिरी खरीफ फसल थी.
बहुत संभावना है कि सरकार 2024 में आम चुनाव से कुछ महीने पहले 2023 में समर्थन मूल्यों में एक और तेज वृद्धि की घोषणा करेगी.
हिमांशु ने आगाह किया, ‘यह खाद्य नीति पर चुनावी राजनीति के भारी पड़ने का मामला है. और अनाज के मामले में किसी तरह की देरी भारत के लिए महंगी साबित हो सकती है.’
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: पश्चिम ने अपने अतीत को अनदेखा नहीं किया, भारत ने किया तो अयोध्या और ज्ञानवापी उभर आया