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Monday, 6 May, 2024
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जब चीनी सेना 58 साल पहले गलवान चौकी से ‘पीछे हटी’ थी तब असल में क्या हुआ था

1962 के भारत-चीन युद्ध के कई महीने पहले भारत की एक फौजी प्लाटून चारों तरफ से घिर जाने के बावजूद गलवान चौकी पर डटी रही थी और चीनियों को करीब 200 मीटर पीछे हटना पड़ा था.

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पूर्वी लद्दाख और खासकर गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पिछले दिनों चीन से टक्कर के 61 दिनों बाद दोनों सेनाओं ने जब पीछे हटना शुरू किया, तब सोशल मीडिया पर एक पुराने अखबार की एक कतरन पोस्ट की गई. यह कतरन 1962 के भारत-चीन युद्ध के तीन महीने पहले 15 जुलाई को छपी एक खबर की थी, जिसकी शीर्षक था- ‘चीनी सेना गलवान चौकी से पीछे हटी’. सेवारत फ़ौजी अधिकारी इसे व्हाट्सअप ग्रुपों में और ऑनलाइन खूब शेयर कर रहे हैं. यह पुरानी खबर इसलिए प्रासंगिक हो गई है क्योंकि चीनी फौज के पीछे हटने से सरकारी हलक़ों में तो जश्न का माहौल है, जबकि सेना ‘बिना जांचे विश्वास मत करो’ की नीति पर चलती दिख रही है.

इस महीने के शुरू में गलवान घाटी से दोनों देशों की फौजों की वापसी की यह दूसरी कोशिश थी. वहां दोनों फौजों के बीच टक्कर के कारण बड़े युद्ध का खतरा पैदा हो गया था. वापसी की पहली कोशिश 15 जून को ‘वाइ जंक्सन’ पर खूनी झड़पों में बदल गई थी जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए और अज्ञात संख्या में चीनी सैनिक भी मारे गए.

उपरोक्त पुरानी खबर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए सीमा पर 1962 में हुई और अभी पिछले दिनों हुई टक्करों की तुलना की जा रही है. मगर 58 साल पहले जो कुछ हुआ था वह आज से काफी अलग था.

सुर्खियां कैसे बनी

अक्तूबर 1962 में युद्ध होने के ये कारण थे- चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था और ‘अक्साइ चीन’ में सड़क बना रहा था, जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ‘आगे बढ़ो’ की नीति लागू कर दी थी जिसके तहत सेना को निर्देश दिया गया था कि वह सीमारेखा के करीब बढ़कर अपनी चौकियां स्थापित करे ताकि चीन को भारत की जमीन पर आकर कब्जा करने से रोका जा सके.

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लेकिन इसके कई महीने पहले भारतीय सेना की एक प्लाटून ने गलवान में जो ऑपरेशन चलाया वह वहां के बेहद दुर्गम भौगोलिक क्षेत्र और कठोर मौसम के मद्देनजर उसके महान संकल्प और साहस की कहानी बन गई. ‘आगे बढ़ो’ की नीति के तहत प्लाटून 1962 की गर्मियों में ही गलवान पहुंच गई और 5 जुलाई को उसने वहां अपनी चौकी बना ली थी. 1/8 गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों को लद्दाख सेक्टर में भेजा गया था. वहां चार बटालियन तैनात की गई थी. लेकिन उत्तर में दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) से लेकर दक्षिण में डेम्चोक तक 480 किलोमीटर सीमा की रक्षा के लिए इतनी फौज नाकाफी थी. अग्रिम मोर्चों पर 36 चौकियां बनाई गई थीं और हरेक में 10-12 सैनिक तैनात किए गए थे. ये चौकियां अपनी मौजूदगी जताने और चीनियों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए बनाई गई थीं.

गलवान चौकी से दो मकसद सध रहा था- घाटी में भारत की सेना पहुंच गई थी, चीनियों का संपर्क अपनी आगे की चौकी से काट दिया गया था. आज तो सैनिक हेलिकॉप्टर से या श्योक और गलवान नदी के संगम स्थल तक वाहनों से पहुंचाए जाते हैं, लेकिन 1962 में उन्हें नाकाफी पोशाक में बेहद दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर मीलों पैदल चलकर जाना पड़ता था और चौकी बनानी पड़ती थी.


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‘दिप्रिंट’ से बात करते हुए उत्तरी क्षेत्र के पूर्व आर्मी कमांडर ले. जनरल एचएस पनाग (रिटा.) ने बताया कि हॉट स्प्रिंग और गोगरा क्षेत्र से दो रास्ते हैं. एक रास्ता पूरब में कोंग्का ला की ओर जाता है, जो अक्साइ चीन का पूर्वी किनारा है. दूसरा रास्ता हॉट स्प्रिंग से उत्तर की ओर गलवान नदी के उदगम स्थल तक जाता है. पनाग ने कहा, ‘लोग यह नहीं समझते कि 1962 में जब हमने गलवान में चौकी बनाई थी तब वह ऊपर की ओर 80 किमी पर थी. हमने हॉट स्प्रिंग से जाने वाले रास्ते को पकड़ा था. हॉट स्प्रिंग से हम गलवान नदी के उदगम स्थल तक पहुंचे थे. दरअसल हमने चीनियों की चौकी के पीछे ही अपनी चौकी बनाई थी. डीबीओ और गलवान से अक्साइ चीन तक सीधे पहुंचा जा सकता है, इसलिए चीनी बहुत परेशान थे.’

चीनियों ने 6 जुलाई 1962 को गोरखा सैनिकों को देखा और अपने मुख्यालय को इसकी खबर कर दी. चार दिन बाद 350 चीनी सैनिक उस चौकी तक आ पहुंचे जिस पर 30 भारतीय सैनिक तैनात थे. वे चौकी से 45 मीटर दूर तक आए और उन्होंने उसे घेर लिया. रेकॉर्ड बताते हैं कि 12 जुलाई की रात तक वे चौकी से मात्र 15 मीटर की दूरी पर आ गए थे.
उनसे कम संख्या में होने के बावजूद भारतीय सैनिक नायक सूबेदार जंग बहादुर गुरुंग के नेतृत्व में वहां डटे रहे. उन्होंने कोई गोली नहीं चलाई. उन्हें निर्देश था कि जब तक उन पर गोली न चलाई जाए. वे गोली न चलाएं.

बाद में चीनी सैनिक चौकी से 200 मीटर पीछे चले गए, शायद इसलिए कि भारतीय सैनिकों को पीछे हटने का रास्ता मिल सके. तभी वह उपरोक्त खबर छपी थी कि ‘चीनी सेना गलवान चौकी से पीछे हटी’.

गलवान चौकी पर बाद में क्या हुआ

गलवान में भारतीय चौकी के पास सीमित साधन थे. इसलिए वहां तैनात 30 सैनिकों को हेलिकॉप्टर से रसद और दूसरे सामान पहुंचाने की कोशिश की गई. सैन्य इतिहासकार शिव कुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘1962 : द वार दैट वाज़ नॉट’ में लिखा है कि 4 अक्तूबर से मेजर एस.एस. हसबनीस के नेतृत्व में 5 जाट अल्फा कंपनी को भारतीय वायुसेना के हेलिकॉप्टरों से उस चौकी तक पहुंचाया गया. वर्मा ने लिखा है, ‘दो महीने तक चीनियों के साथ जी चुके गोरखा सैनिकों को लौट रहे एमआइ-4 हेलिकॉप्टरों से कुछ दिनों के अंदर वापस भेज दिया गया.’

हसबनीस ने 2012 में एनडीटीवी से इस प्रकरण के बारे में बताया था, ‘हमें जब उस चौकी पर पहुंचाया जा रहा था तब हम जानते थे कि हम मौत के कुएं में पहुंच रहे हैं. 60 सैनिकों का कोई मतलब नहीं था क्योंकि 2000 से ज्यादा चीनी सैनिकों ने हमें लगभग घेर रखा था. यही नहीं, उन्होंने हमारे चारों तरफ खंदकों, मोर्चों, संचार उपकरणों का बड़ा घेरा बना रखा था और वे हमें अपने हथियार दिखाते रहते थे. जवान कहा करते— ‘साब, ये तो हाथ बांध के भी आएंगे तो हम इनको कहीं नहीं ले जा सकते.’ हमारे जवान भी इसका मज़ाक उड़ाया करते थे.’

हसबनीस की चौकी को 20 अक्तूबर को 1962 की लड़ाई के पहले दिन ही कब्जा कर लिया गया. उन्हें सात महीने तक युद्धबंदी बनाकर रखा गया. उनके पुत्र ले. जनरल एस.एस. हसनबीस आज उप सेनाध्यक्ष (प्लानिंग ऐंड सिस्टम्स) हैं.
‘आगे बढ़ो’ की नीति क्यों बनाई गई थी?

नेहरू सरकार की इस नीति के बारे में जाने-माने वकील और राजनीतिक विश्लेषक ए.जी. नूरानी ने 1970 में कहा था, ‘भारत ने 1961 के अंत में ‘आगे बढ़ो’ की जो नीति अपनाई थी, चीन-भारत संबंधों के मामले में इससे ज्यादा विवादास्पद कोई और बात नहीं हुई. इसे अक्तूबर 1962 में चीनी हमले की वजह या औचित्य के संदर्भ में कई बार उदधृत किया गया है.’ 1962 की लड़ाई पर लिखी गई तीन किताबों- ब्रिगेडियर जेपी दलवी की ‘हिमालयन ब्लंडर’, ले. जन. बी.एम. कौल की ‘द अनटोल्ड स्टोरी’, डी.आर. मानकेकर की ‘द गिल्टी मेन ऑफ 1962′- की अपनी समीक्षा में नूरानी ने लिखा है कि इस नीति की भारत में भी आलोचना हुई, कहा गया कि इसमें घरेलू राजनीति को राष्ट्रीय सुरक्षा पर हावी होने दिया गया है.

जहां तक फौजी गश्त की बात है, नूरानी का कहना था कि नेहरू ने सेना के इस प्रस्ताव को मान लिया था कि गश्ती दल सीमा के पास वहां तक भेजे जाएं, जहां तक चीन ने 1952 के अपने नक्शे के मुताबिक अपना दावा किया है.’ दिसंबर 1960 में निर्देश जारी किए गए लेकिन साधनों के अभाव में उन्हें लागू नही किया जा सका. लेकिन चीनी हरकत में रहे और वे लद्दाख में 1956 में किए गए दावे के मुताबिक सीमारेखा के आगे भी फैल गए, चौकियां और सड़कें बना ली ताकि पीछे के अपने अड्डों से संपर्क बना सकें. नूरानी ने लिखा, ‘चीनियों के इस तरह आगे बढ़ने और भारत की बेबसी ने चीन के मामले में भारत की नीति को लेकर देश में नेहरू की आलोचना को और उग्र कर दिया. ‘आगे बढ़ो’ की नीति दरअसल चीनियों के आगे बढ़ने, और इस आलोचना के मद्देनजर ही तैयार की गई थी.’

नूरानी ने कौल की किताब को ‘सफाई देने की थकी हुई कोशिश’ बताया है. कौल ने इस किताब में कहा है कि नेहरू ने 1961 की पतझड़ में कहा था कि जो भी प्रतीक रूप में भी चौकी बना लेगा, वह उस क्षेत्र पर अपना दावा कर लेगा. कौल ने लिखा है, ‘आगे बढ़ो’ की नीति पूरी तरह इस धारणा पर आधारित थी कि ‘चीन भारत से लड़ाई नहीं करेगा’. नेहरू जब भी युद्ध के बारे में सोचते थे, वे सीमित नहीं बल्कि पूर्ण युद्ध के बारे में सोचते थे.’

मानकेकर ने अपनी किताब में लिखा है कि सैन्य मुख्यालय ने अपने पश्चिमी तथा पूर्वी कमान को निर्देश दिया कि वे अंतरराष्ट्रीय सीमा के अधिक से अधिक करीब बढ़कर अपनी चौकियां बनाएं ताकि चीनी सेना को आगे बढ़ने से रोका जा सके और भारतीय क्षेत्र में स्थापित चीनी चौकियों पर दबाव बना सकें. रेकॉर्ड के मुताबिक, कहा गया था कि ‘बशर्ते आत्मसुरक्षा में चीनियों से टक्कर लेना जरूरी न हो जाए, उनसे टक्कर न लेते हुए ‘आगे बढ़ो नीति’ पर अमल किया जाए.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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