नई दिल्ली: शैक्षिक संस्थानों में मुसलमान महिलाओं के हिजाब पहनने पर लगे प्रतिबंध को बरक़रार रखते हुए, कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि सर पर स्कार्फ पहनना, इस्लाम में कोई ‘आवश्यक धार्मिक आचरण’ नहीं है.
ये वो पहला सवाल था जिसका कोर्ट ने जवाब दिया, और यही जवाब उसके बाक़ी फैसले का आधार बना. कोर्ट ने उन तमाम याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया, जिनमें उडुपी में स्कूल यूनिफॉर्म्स पर सरकारी प्री-यूनिवर्सिटी (पीयू) कॉलेज द्वारा हिजाब पर लगाए प्रतिबंध, और कर्नाटक सरकार के 5 फरवरी के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्रतिबंध का समर्थन किया गया था.
एक बार ये तय कर लेने के बाद कि हिजाब पहनना एक अनिवार्य धार्मिक आचरण नहीं था, मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी और न्यायमूर्तियों कृष्णा एस दीक्षित तथा जेएम ख़ाज़ी की बेंच ने फिर कहा कि हिजाब पर पाबंदी ‘वाजिब’ और संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, जिसपर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते.
लेकिन ‘आवश्यक धार्मिक आचरण’ का मतलब क्या है, और भारतीय अदालतें इस परीक्षण को कैसे लागू करने लगी हैं? पिछले कुछ सालों में ये कैसे विकसित हुआ, और अदालत आख़िरकार इस नतीजे पर क्यों पहुंची कि हिजाब उसमें शामिल नहीं है? दिप्रिंट समझाने का प्रयास करता है.
इस परख का मतलब क्या है?
संविधान की धारा 25 ‘अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा धर्म के अवैध रूप से मानने की स्वतंत्रता, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार’ की गारंटी देती है. लेकिन ये अधिकार निर्पेक्ष नहीं है, और ये सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य, और अन्य मौलिक अधिकारों के आधीन है.
हालांकि धारा 25 में इस अधिकार के संरक्षण के साथ कोई दूसरी शर्त नहीं दी गई है, लेकिन पिछले कुछ सालों में अदालतें फैसले देती आई हैं, कि ये अधिकार केवल ‘आवश्यक धार्मिक आचरण’ को संरक्षण देगा, सभी धार्मिक प्रथाओं को नहीं. इसलिए, इस कसौटी से तय हो जाता है, कि कौन सी धार्मिक प्रथाओं को, संविधान के तहत संरक्षण हासिल है.
पिछले कुछ सालों में अदालतों ने, इस कसौटी को परखने के लिए अलग अलग तरीक़े अपनाए हैं. कुछ मामलों में अनिवार्यता को तय करने के लिए, उन्होंने धर्म-ग्रंथों का सहारा लिया, और कुछ दूसरे मामलों में उन्होंने अनुयायियों के आनुभविक व्यवहार को देखा, जबकि कुछ में उन्होंने ये भी देखा कि क्या अमुक प्रथा धर्म की उत्पत्ति के समय मौजूद थी.
आदालतों के फैसलों में इस कसौटी की जड़ों के तार आमतौर पर संविधान सभा की बहस से जोड़े जाते हैं, और डॉ बीआर आम्बेडकर के दिए एक भाषण का हवाला दिया जाता है.
2 दिसंबर 1948 को डॉ आम्बेडकर ने इस बात को स्वीकार किया, कि भारत में धार्मिक धारणाएं ‘जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर पहलू को कवर करती हैं’. लेकिन, उन्होंने आगे कहा, ‘ये कहने में कुछ भी आसाधारण नहीं है कि आगे से, हमें धर्म की परिभाषा को इस तरह से सीमित करना चाहिए, कि हम उसे आस्थाओं और ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों से आगे विस्तारित न करें, जो आवश्यक रूप से धार्मिक संस्कार हैं’.
फिर उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘ये आवश्यक नहीं है कि कुछ क़ानून, जैसे मसलन, किराएदारी से जुड़े क़ानून या उत्तराधिकार से जुड़े क़ानून, धर्म से शासित होने चाहिएं’. आम्बेडकर के ‘आवश्यक रूप से धार्मिक’ शब्दों के प्रयोग का हवाला देते हुए, अदालतों ने आवश्यक धार्मिक आचरण की कसौटी शुरू कर दी.
‘आवश्यक रूप से धार्मिक’ और शिरूर मठ मामला
किसी कोर्ट द्वारा आम्बेडकर के इन शब्दों के इस्तेमाल की बिल्कुल एक शुरुआती मिसाल है, 1954 में शिशिर मठ मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक सात-सदस्यीय बेंच. इस मामले में अदालत को एक विवाद में, धार्मिक स्वतंत्रता का संवैधानिक दायरा तय करना था, कि मद्रास हिंदू धार्मिक विन्यास अधिनियम,1951, उडुपी के शिशिर मठ के प्रबंधन को किस हद तक नियंत्रित कर सकता था.
कोर्ट ने कहा कि ‘किसी धर्म का आवश्यक हिस्सा क्या है, इसे बुनियादी रूप से उसी धर्म के सिद्धांतों के हवाले से निर्धारित किया जा सकता है’.
कोर्ट ने आगे कहा, ‘अगर हिंदुओं के किसी भी धार्मिक संप्रदाय के सिद्धांत ये कहते हैं, कि मूर्ति को दिन के एक निर्धारित समय पर भोजन चढ़ाया जाना चाहिए, और साल में एक विशेष समय पर एक ख़ास तरीक़े से, कुछ समारोह किए जाने चाहिएं, या हर दिन पवित्र ग्रंथों का वादन होना चाहिए, या पवित्र अग्नि के सामने उच्छेदन होना चाहिए, तो इन सब को धर्म का हिस्सा माना जाएगा, और केवल इस कारण से कि इनमें पैसे का ख़र्च होता है, या पुजारियों और कर्मचारियों को रखा जाता है, या उनमें बिक्री योग वस्तुओं का प्रयोग होता है, वो व्यवसायिक या आर्थिक स्वरूप की धर्मनिरपेक्ष गतिविधियां नहीं बन जाएंगी; वो सब धार्मिक हैं’.
जहां बहुत से लोग इसे कसौटी की शुरूआत समझते हैं, वहीं कुछ दूसरों ने कहा है कि इस समय तक सुप्रीम कोर्ट का इरादा, धार्मिक और धर्मनिर्पेक्ष के बीच एक लकीर खींचना था. दूसरे शब्दों में, इस कसौटी का मक़सद ये भेद करना नहीं था, कि कौन से आचरण धर्म के लिए आवश्यक थे, और कौन से आवश्यक नहीं थे. इसका असल मक़सद आवश्यक रूप से धार्मिक, और धर्म-निर्पेक्ष क्रियाओं में भेद करना था. धर्म-निर्पेक्ष क्रियाओं को क़ानून के द्वारा नियमित किया जा सकता था, लेकिन धार्मिक गतिविधियों को नहीं.
शिरूर मट से सबरीमला तक
लेकिन, ‘आवश्यक रूप से धार्मिक’ धीरे धीरे ‘आवश्यक धार्मिक आचरण की कसौटी’ में तब्दील हो गया, जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने 1957 में फैसला दिया, कि दूसरी शादी को हिंदू धर्म का आवश्यक हिस्सा नहीं माना जा सकता, और 1958 में सुप्रीम कोर्ट का एक और निर्णय आया, जिसमें कहा गया कि ईद के मौक़े पर गाय की क़ुर्बानी देना, मुसलमानों के लिए एक आवश्यक धार्मिक कार्य नहीं था.
2004 में, सुप्रीम कोर्ट ने ये तय करने के लिए आवश्यक धार्मिक आचरण की कसौटी को लागू किया, कि क्या ताण्डव नृत्य आनंद मार्ग मत का एक आवश्यक अनुष्ठान था. कोर्ट इस नतीजे पर पहुंची कि ये मत 1955 में वजूद में आया था, जबकि ताण्डव नृत्य केवल 1966 में अपनाया गया था. इसलिए कोर्ट ने फैसला सुनाया, कि चूंकि ये मत नृत्य को अपनाए जाने से पहले वजूद में था, इसलिए नृत्य को मत की एक आवश्यक विशेषता नहीं माना जा सकता.
2016 में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने महिलाओं को हाजी अली दरगाह के पवित्र अंदरूनी स्थल में दाख़िल होने की अनुमति दे दी, और निर्णय सुनाया कि उन्हें बाहर रखने का हाजी अली दरगाह ट्रस्ट का फैसला, अवैध और असंवैधानिक था. अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि ट्रस्ट ऐसी कोई भी सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं रख पाया, जिससे ये दिखाई पड़ता हो कि महिलाओं को दरगाहों से बाहर रखना, इस्लाम की एक ‘आवश्यक विशेषता’ थी.
अभी हाल ही में, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि तीन तलाक़ इस्लाम का एक ज़रूरी हिस्सा नहीं थी, और उसे धारा 25 के तहत संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया जा सकता.
एक साल बाद, 2018 में सबरीमला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, ‘अय्यपंस’ (श्रद्धालुओं) के इस दावे को ख़ारिज कर दिया, कि 10 से 50 आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर से बाहर रखना एक आवश्यक प्रथा थी. लेकिन, इस फैसले के खिलाफ दायर एक समीक्षा याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
हिजाब ‘इस्लाम का एक आवश्यक हिस्सा क्यों नहीं है’
जहां तक कर्नाटक हाईकोर्ट का सवाल है, उसका मानना है कि हिजाब पहनना इस्लाम के अंतर्गत एक आवश्यक धार्मिक आचरण नहीं है- जिसका मतलब है कि उसे राज्य द्वारा नियमित किया जा सकता है.
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, कोर्ट ने क़ुरान पर एक टीका का हवाला दिया, और कहा कि हिजाब पहनने को लेकर कोई ‘क़ुरानी आदेश’ या हुक्म नहीं है. कोर्ट ने पाया कि ‘ग्रंथ के भीतर ही ऐसी पर्याप्त आंतरिक सामग्री मौजूद है, जो इस विचार का समर्थन करती है, कि हिजाब पहनने की बात अगर है भी, तो वो सिफारिशी नेचर की है’.
कोर्ट ने कहा, ‘ऐसा नहीं कि अगर हिजाब पहनने की कथित प्रथा पर अमल नहीं होगा, तो हिजाब न पहनने वाली महिलाएं गुनहगार हो जाएंगी, इस्लाम की महानता में कमी आ जाएगी, और वो एक मज़हब नहीं रहेगा. कोर्ट ने आगे कहा कि ‘इस पोशाक को पहनने का ताल्लुक़ ज़्यादा से ज़्यादा संस्कृति से हो सकता है, लेकिन धर्म के साथ यक़ीनन नहीं है’.
फिर उसने कहा, कि जिस चीज़ को धार्मिक रूप से अनिवार्य नहीं किया गया है, उसे सार्वजनिक आरोपों और अदालतों में जोशीले तर्कों के ज़रिए, मज़हब का एक ज़रूरी पहलू नहीं बनाया जा सकता’.
इसलिए अदालत इस नतीजे पर पहुंची, कि ‘मुस्लिम महिलाओं का हिजाब पहनना इस्माल के ज़रूरी धार्मिक कार्यों का हिस्सा नहीं माना जा सकता’.
कसौटी का भविष्य अनिश्चित
लेकिन इस कसौटी को कई मौक़ों पर आलोचना का सामना करना पड़ा है. आलोचकों ने अकसर कहा है कि ये जजों को ‘धार्मिक अथॉरिटीज़’ (अकसर ऐसे धर्मों के लिए जो उनके अपने भी नहीं हैं) बनने के लिए मजबूर कर देती है. सबरीमला मामले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने इस पर खेद व्यक्त किया, कि ‘बहरहाल मजबूरियों के चलते कोर्ट को एक धार्मिक चोग़ा पहनना पड़ गया है’.
इस कसौटी का भविष्य भी फिलहाल अनिश्चितता में घिरा हुआ है. ऐसा इसलिए हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमला मामले में समीक्षा याचिकाओं पर विचार करते हुए, सात सवालों को एक बड़ी बेंच के विचारार्थ भेज दिया. एक नौ-सदस्यीय बेंच ‘आवश्यक धार्मिक आचरण कसौटी’ का फिर से मूल्यांकन करेगी, और साथ ही संवैधानिक नैतिकता से जुड़े मुद्दों, और संविधान के तहत धर्म की आज़ादी, तथा मौलिक अधिकारों की परस्पर क्रिया से जुड़े सवालों पर भी विचार करेगी.
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