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Saturday, 21 December, 2024
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क्या है ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स, कोविड वैक्सीन के लिए जिसपर ऑक्सफोर्ड कर रही है विचार

ऑक्सफोर्ड वैक्सीन कई देशों में दूसरे और तीसरे दौर के ट्रायल्स से गुज़र रही है. जिनमें बहुत से लोगों को वैक्सीन देने के बाद उन पर नज़र रखी जा रही है- इस प्रक्रिया में समय लगता है. लेकिन ये एक मानक है.

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बेंगलुरू: द गार्जियन में बृहस्पतिवार को छपी एक ख़बर के अनुसार जेनर इंस्टीट्यूट जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के सहयोग से वैक्सीन विकसित करने में लगा है, नतीजों में तेज़ी लाने के लिए ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स करने पर विचार कर रहा है.

ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स (एचसीटी) वो होते हैं, जिनमें प्रतिभागियों को जान-बूझकर वायरस के संपर्क में लाया जाता है, जिसकी आम हालात में नैतिक कारणों से इजाज़त नहीं होती.

ये संपर्क लैबोरेट्रीज़ की नियंत्रित सेटिंग्स में कराया जाता है. जिसका मतलब होगा कि इन ट्रायल्स को संभावित रूप से कुछ हफ्तों के भीतर पूरा किया जा सकता है और इनमें कम लोगों की ज़रूरत पड़ती है.

ऑक्सफोर्ड जेनर इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर एड्रियन हिल ने कहा कि टीम ह्यूमन चैलेंज ट्रायल की तैयारियों के तकनीकी पहलू पर काम कर रही है और उसे उम्मीद है कि तीन महीने में वॉलंटियर्स भर्ती कर लिए जाएंगे.

उन्होंने कहा, ‘उम्मीद है कि साल के अंत तक हम ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स कर रहे होंगे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘हो सकता है ये तीसरे फेज़ के ट्रायल के साथ साथ चले या उसके पूरा होने के बाद हो सकते हैं. ये प्रतिस्पर्धा वाले विकल्प नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं.’

ये बयान उसके बाद आया है जब 125 शिक्षकों, डॉक्टरों, महामारी विज्ञानियों, वैज्ञानिकों और प्रोफेसर्स ने एक खुला पत्र लिखकर अनुरोध किया कि ह्यूमन चेलेंज ट्रायल्स किए जाएं ताकि महामारी पर क़ाबू पाने के लिए वैक्सीन जल्दी से विकसित की जा सके.

उन्होंने लिखा, ‘अगर चैलेंज ट्रायल्स वैक्सीन के विकास की प्रक्रिया में सुरक्षित और असरदार तरीके से तेज़ी ला पाए, तो फिर उनके इस्तेमाल के पक्ष में एक मज़बूत संभावना है, जिसके लिए एक बहुत दमदार नैतिक औचित्य पर क़ाबू पाना होगा.’

मई में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 के लिए ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स की विस्तृत गाइडलाइन्स जारी कीं थीं और बताया था कि उनके जोखम को कैसे कम किया जा सकता है.

ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स के फायदे

वैक्सीन का डेवलपमेंट एक लंबी और कठिन प्रक्रिया होती है, जहां सुरक्षा स्थापित करने के बाद इसके प्रभाव को स्थापित करना होता है. ये ट्रायल्स कई फेज़ में किए जाते हैं. जहां पहले कुछ महीनों में पहले फेज़ में सेफ्टी स्थापित की जाती है, इसके बाद उनके प्रभाव और दुष्प्रभाव मॉनीटर करने के लिए दूसरे और तीसरे फेज़ में सैकड़ों लोगों पर ट्रायल किए जाते हैं.

ऑक्सफोर्ड वैक्सीन, जिसे सीएचएडीओएक्सवन एनसीओवी-19 कहा जाता है, फिलहाल कई देशों में दूसरे और तीसरे दौर के ट्रायल्स से गुज़र रही है, जिनमें बहुत से लोगों को वैक्सीन देने के बाद उन पर नज़र रखी जा रही है- इस प्रक्रिया में समय लगता है. लेकिन ये एक मानक है.

वैक्सीन के पहले दौर के सेफ्टी के नतीजे सोमवार को आने की उम्मीद है और चल रहे ट्रायल्स पिछले काम में स्थापित सुरक्षा पर आधारित हैं, जिनमें वैक्सीन के अंदर एडीनोवायरस इस्तेमाल हुआ था.

ऐसा इसलिए है क्योंकि पैथोजंस का शरीर पर ख़तरनाक असर पड़ सकता है और चूंकि अब हमारे पास नॉवल पैथोजंस के बारे में और भी कम जानकारी है. इसलिए किसी ड्रग या वैक्सीन के असर को परखने के लिए किसी इंसान को पैथोजंस से संक्रमित करना एक मानक अभ्यास नहीं है.


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उसकी बजाय वॉलंटियर्स को वैक्सीन देकर उन्हें मॉनीटर किया जाता है. कंट्रोल ग्रुप जिसे वैक्सीन नहीं दी जाती, उसे आमतौर पर प्लेसीबो वैक्सीन दी जाती है, जिसका उन्हें पता नहीं होता. रिसर्चर्स फिर इंतज़ार करते हैं कि क्या वैक्सीन दिया गया ग्रुप वायरस की पकड़ में आता है, ख़ासकर जब कंट्रोल ग्रुप आता है.

ट्रायल में बहुत सख़्ती के साथ फिज़िकल दूरी रखी जाती है, जिससे प्रतिभागी संक्रमित न होने पाएं.

यही वजह है कि एक स्टैण्डर्ड वैक्सीन विकसित होने में 10 से 15 साल लग जाते हैं. शुरू के कई मानकों को छोड़ने के बाद उम्मीद की जा रही है कि कोविड वैक्सीन दो साल में सामने आ जाएगी.

ट्रायल के बेहद लंबे समय को ज़्यादा संख्या में मरीज़ों को पंजीक़त करके कुछ हद तक घटाया जा सकता है. दूसरे फेज़ की स्टडीज़ में बस कुछ सौ मरीज़ ही होते हैं और तीसरे फेज़ में कुछ हज़ार. लेकिन ऑक्सफोर्ड वैक्सीन के पहले ही यूके, ब्राज़ील और साउथ अफ्रीका में, दूसरे और तीसरे दौर के साझा ट्रायल चल रहे हैं.

लेकिन, ह्यूमन चैलेंज ट्रायल्स इस प्रक्रिया में काफी तेज़ी ला सकते हैं.

अत्यंत सावधानी वाली लैबोरेटरी परिस्थितियों में, जिनमें वायरल के सीमित लोड्स के साथ साथ दूसरे बहुत से प्रतिबंध होते हैं. युवा और स्वस्थ वयस्कों को वायरस के संपर्क में लाया जाता है, जिनमें पहले से कोई समस्या नहीं होती और जिन्होंने वैक्सिनेशन के बाद एंटीबॉडीज़ विकसित कर ली होती हैं.

इससे वास्तविक स्थिति का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है और हमें सीधा पता चल जाता है कि वैक्सीन काम कर रही है कि नहीं.

बहुत से वाइरॉलोजिस्ट्स, इम्यूनॉलोजिस्ट्स, नीति शास्त्रियों और दूसरे एक्सपर्ट्स ने तीसरे फेज़ के ट्रायल्स के बदले एचसीटी की मांग की है.

ख़तरे और डब्लूएचओ गाइडलाइन्स

एचसीटी के समर्थक ऐसी स्टडीज़ से जुड़े ख़तरों से इनकार नहीं करते.

साल के शुरू में लिखे अपने एक पेपर में महामारी विज्ञानी नीर इयाल, मार्क लिपसिच और पीटर जी स्मिथ ने लिखा, ‘ज़ाहिर है वॉलंटियर्स को इस ज़िंदा वायरस की चुनौती से रूबरू कराने में गंभीर बीमारी पैदा होने का ख़तरा है, जिसमें संभवत: जान भी जा सकती है. लेकिन, हमारी दलील है कि वैक्सीन के मूल्यांकन में तेज़ी लाकर ऐसी स्टडीज़ से दुनिया भर में कोरोनावायरस से जुड़ी मौतों और बीमारियों के बोझ में कमी लाई जा सकती है.’

वॉलंटियर्स को पूरी जानकारी के साथ एचसीटी (और किसी भी क्लीनिकल ट्रायल) के लिए अपनी सहमति देनी होती है, और उन्हें इससे जुड़े ख़तरों से पूरी तरह वाक़िफ कराना चाहिए और अगर उन्हें कोई संक्रमण हो जाए, तो उनकी हर मुमकिन केयर होनी चाहिए.

नाज़ी राज में इंसानों के ऊपर अवैध और अनैतिक प्रयोगों के बाद, 1946 में न्यूरेम्बर्ग कोड की स्थापना की गई, जिसमें इंसानों से जुड़ी रिसर्च के लिए दस सिद्धांतों का नैतिक ढांचा बनाया गया. इनके अंदर, प्रतिभागियों के जानकारी के साथ सहमति देने के बाद भी निहित ख़तरों को लेकर बहुत अधिक प्रतिबंध लगाए गए हैं. प्रतिभागियों को आज़ादी दी गई है. (जिसमें बीच में अलग हो जाना भी शामिल है) और स्टडीज़ से मिलने वाले नतीज़ों के ऊंचे मूल्यों पर ज़ोर दिया गया है.

एक्सपर्ट्स का तर्क है कि सबसे ख़राब स्थिति में हालांकि ये तकलीफदेह ज़रूर हो सकता है. कुछ जानों के नुक़सान से दूसरी करोड़ों जाने बचाई जा सकती हैं और वॉलंटियर्स को भी इससे सहमत होना चाहिए. लेकिन, एचसीटीज़ नियमित रूप से किए गए हैं, जिनमें अभी तक कोई नकारात्मतक प्रभाव नहीं देखे गए हैं, क्योंकि ये ट्रायल्स बिल्कुल अंतिम स्तर के सुरक्षा प्रावधानों के साथ किए गए हैं.

एचसीटी स्टडी डिज़ाइन्स के बारे में इयाल ने कहा, ‘ये ख़तरे पैदा करती है और उन्हें दूर भी करती है.’ उन्होंने आगे कहा हालांकि नेट रिस्क स्पष्ट नहीं है, लेकिन बहुत अधिक नहीं है और बड़े जोखिम के अंदर प्रतिभागियों और परिवारों की ओर से मुक़दमेबाज़ी भी शामिल है.

बायोएथिसिस्ट्स टी होप और जे मैकमिलन की दलील है, ‘(सामान्य) रिसर्च से होने वाला नुक़सान अपेक्षित तो है लेकिन इरादतन नहीं है. वहीं दूसरी ओर किसी इंसान को जानबूझकर किसी बीमारी से संक्रमित करने से हुए नुक़सान को, अनपेक्षित क़रार नहीं दिया जा सकता.’

इतिहास और भविष्य

एचसीटीज़ की मिसालें पहले से भी मौजूद हैं. 1776 में एडवर्ड जेनर द्वारा सबसे पहले विकसित की गई वैक्सीन चेचक के टीके की अवधारणा और टेस्टिंग, इच्छुक लोगों को किसी दूसरे संक्रमित व्यक्ति के पस या घाव के पदार्थ का टीका लगाकर की गई और वहां पर भी सुरक्षा को दर्शाया गया था.

जेनर ने स्मॉलपॉक्स के टीकों से शुरूआत नहीं की. उन्होंने काउपॉक्स के पदार्थ का इस्तेमाल किया जो एक ही परिवार का था, इसलिए इंसानों के अंदर उसके एंटीबॉडीज़ पैदा हो गए. लेकिन उससे एक हल्की बीमारी हो गई जो ख़तरनाक नहीं थी.


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एचसीटीज़ ने येलो फीवर, इनफ्लुएंज़ा, टायफायड, कॉलरा और मलेरिया (जारी) के टीके विकसित करने में योगदान दिया है, जिनमें अभी तक कोई जोखिम या किसी तरह का ख़तरा देखने में नहीं आया है. वैक्सीन कैंडिडेट्स को सुरक्षा के लिए अलग-अलग जानवरों पर परखने के बाद ही इंसानों को दिया जाता है और फिर हर रोज़ उन पर बेहद बारीकी से नज़र रखी जाती है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि इसमें जो जोखिम है, वो किसी को किडनी देने के जोखिम के बराबर होता है.

इस साल के शुरू में डब्लूएचओ की ओर से भी कड़े दिशा निर्देश जारी किए गए हैं, जिसमें कहा गया है कि दूसरे अधिकांश एचसीटीज़ ऐसी बीमारी के लिए रहे हैं, जिसका इलाज हो सकता है.

कोविड-19 का कोई इलाज नहीं है. उसके इलावा, इसमें वैक्सीन पर से भरोसा उठने की भी चेतावनी दी गई है, क्योंकि छद्म विज्ञान की बुनियाद पर पहले ही टीका विरोधी भावनाएं बढ़ रही हैं.

लेकिन, यक़ीनन यही वो परिस्थितियां हैं जिनमें एचसीटीज़ की सबसे अधिक ज़रूरत होती है. दुनियाभर के नीतिशास्त्री इसपर सहमत हो गए हैं, इसलिए उन्होंने बहुत सी गाइडलाइन्स जारी की हैं.

डब्लूएचओ गाइडलाइन्स में सार्स-सीओवी-2 चेलेंज स्टडीज़ के लिए आठ प्रमुख मानदंड तय किए गए हैं. इनमें जोखिम के आंकलन के बाद एक मज़बूत वैज्ञानिक औचित्य और अलग-अलग पृष्ठभूमि के एक्सपर्ट्स से सलाह करके, एक स्टडी डिज़ाइन शामिल हैं.

ऑक्सफोर्ड स्टडी और किसी भी दूसरी वैक्सीन के एचसीटी में कड़ाई के साथ इन गाइडलाइन्स का पालन करना होगा. ऐसे ट्रायल्स के लिए वॉलंटियर्स ने पहले ही अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी है.

वनडेसूनर नामक एक वैश्विक़ पहल में, जहां वैज्ञानिकों और नोबल विजेताओं ने अपना खुला पत्र प्रकाशित किया था. 140 से अधिक देशों में 32,000 से अधिक वॉलंटियर्स पहले ही पंजीकृत हो चुके हैं.

एचसीटीज़ से गुज़रने वाली ऑक्सफोर्ड वैक्सीन सबसे ख़राब स्थिति में उतना ही समय लेगी. जितना ग़ैर-एचसीटी वैक्सीन में लगेगा और सबसे अच्छी स्थिति में एक ठीक-ठाक असर वाली वैक्सीन तैयार करने का समय सिमटकर कुछ हफ्तों में आ सकता है.

जेनर इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर ने पहले इशारा किया था कि ये वैक्सीन अक्तूबर तक सामने आ सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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