नई दिल्ली: स्वातंत्र्योत्तर काल, खासकर 1980 के दशक और 1990 के दशक के आरंभ में उत्तर प्रदेश के अयोध्या में भगवान राम के जन्मस्थान पर मंदिर निर्माण के लिए हुए आंदोलन के कई गुमनाम नायक रहे हैं.
विवादित स्थल पर 1949 में भगवान राम की मूर्ति रखने वाले ‘योद्धा साधु’ और 1984 में धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेताओं को एकजुट करने वाले मृदुभाषी संन्यासी से लेकर, आंदोलन की ज़मीन तैयार करने वाले एक पूर्व कांग्रेसी नेता और कार सेवा के लिए कोलकाता से अयोध्या आकर वहां पुलिस फायरिंग में मारे गए दो भाइयों तक– ऐसे कई लोग हैं जिन्हें मंदिर आंदोलन में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है.
आइए उनमें से कुछेक का परिचय प्राप्त करते हैं.
बैरागी अभिराम दास
बिहार के दरभंगा में पैदा हुए बैरागी अभिराम दास रामानंदी संप्रदाय के संन्यासी थे और उनका नाम 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात रामजन्मस्थान पर विवादित ढांचे के भीतर भगवान राम की प्रतिमा के प्रकटीकरण के संबंध में सामने आया था. इस संबंध में तत्कालीन प्रशासन द्वारा दायर प्राथमिकी में उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया गया था.
अयोध्या में वह ‘योद्धा साधु’ के नाम से जाने जाते थे. हिंदू महासभा के सदस्य रहे दास अच्छी कद-काठी के और कुश्ती कला में निपुण थे. उनका 1981 में देहांत हो गया.
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देवराहा बाबा
अत्यंत आध्यात्मिक संन्यासी माने जाने वाले देवराहा बाबा के जन्मस्थान और वर्ष के बारे में जानकारी रहस्य ही बनी रही. वह उत्तरप्रदेश के देवरिया में सरयू नदी के किनारे निवास करते थे. उनके शिष्यों में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, तथा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता शामिल रहे थे.
उन्होंने जनवरी 1984 में प्रयागराज के कुंभ में आयोजित ‘धर्म संसद’ की अध्यक्षता की थी, जिसमें विभिन्न हिंदू संप्रदायों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेताओं ने मिलकर 9 नवंबर 1989 को अयोध्या में राम मंदिर की नींव रखने का फैसला किया था. कहा जाता है कि जब राजीव गांधी आधारशिला रखे जाने के बारे में उनकी सलाह और उनका आशीर्वाद लेने गए तो देवराहा बाबा ने उनसे कहा था, ‘बच्चा, हो जाने दो’.
मोरोपंत पिंगले
नागपुर के मॉरिस कॉलेज के ग्रेजुएट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक पिंगले एक ‘अदृश्य’ रणनीतिकार थे जिन्होंने सभी प्रमुख ‘यात्राओं’ और तमाम देशव्यापी अभियानों को आरंभ करने में अहम भूमिका निभाई थी, जिनमें ‘शिला पूजन’ कार्यक्रम भी शामिल था जिसके तहत तीन लाख से भी अधिक ईंटें अयोध्या पहुंचाई गई थीं.
पिंगले हमेशा पर्दे के पीछे काम करना पसंद करते थे और वह 1980 के दशक में मंदिर आंदोलन के एक शीर्ष रणनीतिकार थे.
महंत अवैद्यनाथ
अवैद्यनाथ 1980 के दशक के मध्य में राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए गठित रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के प्रथम प्रमुख थे. वह एक अन्य प्रमुख संस्था रामजन्मभूमि न्यास समिति के भी अध्यक्ष थे, जिसने इस आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
उनका बचपन का नाम कृपा सिंह बिष्ट था. वह उत्तरप्रदेश के गोरक्षापीठ के महंत दिग्विजयनाथ के अनुयायी बन गए और 1940 में संन्यासी के रूप में महंत अवैद्यनाथ का नाम धारण किया.
वह 1969 में गोरक्षापीठ के प्रमुख बने. महंत अवैद्यनाथ हिंदू महासभा के भी सदस्य थे. वह गोरखपुर से पांच बार विधायक और चार बार लोकसभा सांसद निर्वाचित हुए थे. बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में उन्हें भी आरोपी बनाया गया था.
स्वामी वामदेव
गोरक्षा के लिए बेहद समर्पित मृदुभाषी संन्यासी वामदेव ने 1984 में जयपुर में आयोजित एक अखिल भारतीय सम्मेलन के ज़रिए तमाम हिंदू धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं को एक मंच पर लाने में अहम भूमिका निभाई थी.
तब 400 से भी अधिक हिंदू धार्मिक नेताओं ने 15 दिनों तक विचार मंथन कर आंदोलन का भावी रोडमैप तैयार किया था. स्वामी वामदेव ने 1990 में अयोध्या में कार सेवकों का आगे बढ़कर नेतृत्व किया था, जब मुलायम सिंह यादव सरकार के आदेश पर पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में उनमें से कइयों की मौत हो गई थी. वृद्धावस्था के बावजूद वह 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में मौजूद थे, जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया था.
श्रीशचंद्र दीक्षित
दीक्षित 1980 के दशक में रामजन्मभूमि आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से थे. वह 1982 से 1984 तक उत्तरप्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे थे. सेवानिवृति के बाद वह विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) से उसके उपाध्यक्ष के रूप में जुड़ गए.
उन्होंने अयोध्या में कारसेवकों के आंदोलन की रणनीति बनाने और वीएचपी के विभिन्न जनांदोलनों के कार्यक्रम को अंतिम रूप देने में प्रमुख भूमिका निभाई थी. उन्हें 1990 में अयोध्या में कारसेवा के दौरान रामजन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था. वह 1991 में भाजपा टिकट पर वाराणसी चुनाव क्षेत्र से सांसद चुने गए थे. वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं.
विष्णु हरि डालमिया
एक विख्यात उद्यमी परिवार की संतान डालमिया 1992 से 2005 तक वीएचपी का अध्यक्ष रहे थे. प्रचार से दूर रहने वाले डालमिया रामजन्मभूमि आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे.
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जब 1985 में श्रीराम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ तो उन्हें संगठन का कोषाध्यक्ष बनाया गया था. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्हें भी गिरफ्तार किया गया था.
दाऊ दयाल खन्ना
रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महासचिव के रूप में खन्ना ने मंदिर आंदोलन का आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी.
आरंभिक वर्षों में कांग्रेसी नेता रहे खन्ना 1960 के दशक में उत्तरप्रदेश की कांग्रेस सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे. उन्होंने ही 1983 में एक जनसभा में अयोध्या, मथुरा और काशी (वाराणसी) में मंदिरों के पुनर्निर्माण का मुद्दा उठाया था. उनकी पहल रामजन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत के लिए महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुई. उन्होंने सितंबर 1984 में बिहार के सीतामढ़ी से मंदिर आंदोलन के लिए पहली यात्राओं में से एक की अगुआई की थी.
कोठारी बंधु
राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी सगे भाई थे, जो अक्तूबर 1990 में कारसेवा में भाग लेने के लिए अयोध्या आए थे. कोलकाता के निवासी कोठारी बंधुओं के अलावा उनके मां-बाप की और कोई संतान नहीं थी.
उन्होंने कारसेवकों के पहले जत्थे के सदस्यों के रूप में 30 अक्तूबर 1990 को अयोध्या में कारसेवा की थी. दो दिन बाद, 2 नवंबर को कारसेवा के ही दौरान पुलिस ने दोनों को बिल्कुल करीब से गोली मारकर खत्म कर डाला. मौत के समय राम कुमार 23 साल के और शरद कुमार महज 20 साल के थे.
कोठारी बंधुओं की हत्या ने देश भर के हिंदुओं को आक्रोशित कर दिया था. दोनों को रामजन्मभूमि आंदोलन में नायकों और शहीदों का दर्जा प्राप्त हुआ. उनकी शहादत ने 1990 के दशक में बड़ी संख्या में युवाओं को मंदिर आंदोलन से जोड़ने में एक प्रमुख उत्प्रेरक का काम किया था.
(इस आलेख के लिए सभी इनपुट वीएचपी के दस्तावेज़ों और हेमंत शर्मा की प्रभात प्रकाशन से छपी पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ से लिए गए हैं.)
लेखक रामजन्मभूमि आंदोलन पर एक पुस्तक लिख चुके हैं. वह आरएसएस से जुड़े हुए हैं और विचार विनिमय केंद्र नामक थिंक-टैंक में अनुसंधान निदेशक हैं.
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