गाजीपुर/यूपी: उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के भदौरा के पास बसुका गांव के बाहरी हिस्से में एक बस्ती है, जो कभी तवायफों के लिए विख्यात थी. आजादी के बाद राजशाही खत्म हुई, गणतंत्र आया और इसके साथ ही मुजरा कल्चर खत्म होने के बाद में इस जगह को जिस्मफरोशी की वजह से भी जाना गया. यूपी के बनारस से लेकर बिहार के पटना के बीच ये गांव इन दो वजहों से मशहूर रहा है. जिस्मफरोशी के खरीददार छुपे हुए हैं और ये निजी मामला है. लेकिन इन दो बड़े पुराने शहरों के बीच इस गांव को बाद में भी शादी-विवाह और आर्केस्ट्रा में ‘नाचनेवाली लड़कियों’ के पोषक के रूप में सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है. पर अब बसुका गांव का ये हिस्सा तवायफ कल्चर से बाहर निकलकर नए इंडिया का हिस्सा बनना चाहता है. टिकटॉक और वॉट्सऐप के मैसेज यहां भी पहुंच चुके हैं. साथ ही पहुंचा है पंचायती राज, जिसने यहां का सामाजिक नक्शा बदल दिया है. तीन तलाक के खिलाफ बिल आने के बाद यहां की औरतों को मोदी सरकार से अपेक्षाएं हो गई हैं. यहां की मुस्लिम औरतों के मुताबिक उन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा को ही वोट दिया था, क्योंकि पिछले दो वर्षों में गांव की सड़क बन गई थी.
गाजीपुर के इस गांव के बारे में बिहार के बक्सर जिले के एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग रमाशंकर बताते हैं, ‘हमारे समय में कोई जवान लड़का बसुका गांव का जिक्र कर देता था, तो ये एक तरह से मां-बाप के लिए चिंता की बात थी. गाने और डांस की वजह से वहां की औरतों को शादी-ब्याह में डांस बुलाया जाता था. ये इकलौता ऐसा गांव है, जिसने खुले तौर पर इस बात को स्वीकारा कि यहां की औरतें जिस्म फरोशी करती हैं. अभी भी आलम ये है कि इस गांव से बाहर निकलने वाले लड़के गांव का नाम नहीं बताते.’
वो आगे बताते हैं, ‘उस वक्त 1000 से 1500 रुपए उनकी फीस होती थी. अब तो ये 35000 हजार रुपए हो गई है. आज डीजे के जमाने में कोई इक्का-दुक्का ही उन्हें यहां बुलाता है. इसलिए उनके ठुमरी, गजल गाने की कला भी खत्म हो गई है. पर अब ये डीजे वगैरह पर भी नाचने लगी हैं. सत्तर-अस्सी के दशक का जिक्र करते हुए रमाशंकर बताते हैं कि कई लोगों के परिवार तवायफों के चक्कर में बर्बाद हो गया. पर इसमें तवायफों का क्या दोष है?
‘अगड़ी जातियों पर लगा इल्जाम’
गाजीपुर के ही एक दूसरे गांव के लोग इस गांव के इतिहास को मुंह जबानी चली आ रही कहानियों के मार्फत जानते हैं. ये कहानियां कई पीढ़ी पुरानी हैं. सतीश नाम के व्यक्ति बताते हैं, ‘कहा जाता है कि उस गांव में एक राजपूत किसी मुसलमान तवायफ को शादी करके ले आया था. उसके बाद से ही ये सिलसिला शुरू हुआ. गांव वालों को दिक्कत हुई तो उसे गांव से बाहर रहने के लिए जगह दे दी.’
असल कहानी जानने हम गांव की तंग गलियां छानते हुए प्रधान-पति शोएब के घर पहुंचे. महिला आरक्षित सीट पर उनकी पत्नी रजिया बेगम प्रधान चुनी गईं थीं. बकरियां, खंडहर हो चुके घर, नालियों से बाहर बह रहा गंदा पानी और टूटी गलियों से बने इस गांव में करीब 6500 वोट हैं. जिसमें से 1500 के करीब अगड़ी जातियों के लोग हैं. बाकी वोटर्स में हिंदुओं की पिछड़ी जातियां और मुसलमान हैं. इस गांव में पहली बार कोई मुसलमान प्रधान बना है. इससे पहले भूमिहारों का दबदबा रहा है. रोचक बात ये है कि मुसलमान प्रधान को जिताने में पिछड़ी हिंदू जातियों का हाथ रहा. प्रधान और उनके परिवार का कहना है कि इस बार होने वाले प्रधानी के चुनाव में गड़बड़ होने वाली है. बूथ कैप्चर करके भूमिहार अपना प्रधान बनाएंगे.
तवायफों को लेकर प्रचलित कई कहानियों का खंडन करते हुए प्रधान-पति के भाई कहते हैं, ‘इस गांव के इतिहास में पहली बार कोई मुसलमान प्रधान बना है. हम भी इसी दलदल से बाहर निकले हैं. हमारे घर-मुहल्ले की औरतें नाचती थीं. हम सड़क पर चाय की दुकान लगाते थे. अब परचून की दुकान लगा ली है. हमें अपने गांव से इस माहौल को खत्म करना है.’
कैसे फंसी मुस्लिम महिलाएं इस चक्र में?
वो आगे जोड़ते हैं, ‘भूमिहारों ने मुसलमानों को कर्ज में डुबोए रखने के लिए इनकी बेटियों को इस धंधे में धकेला. ये सब पुलिस की नाक के नीचे होता था. ब्याज बहुत ज्यादा होता है और ये पैसा बहुत बढ़ जाता था. शादी-ब्याह के सीजन में नाचकर और जिस्म फरोशी करके इन घरों की महिलाएं ये कर्जा उतारतीं. ये पेशा करवाते. कोई इस कुचक्र से कैसे निकलता. ना हमारे पास जमीनें थीं और ना ही आजीविका के साधन. गांव की जमीनें भूमिहारों की थी. वर्चस्व बनाए रखने के लिए बेटियों से ये धंधा करवाया गया.’
भूमिहारों के टोला में रहने वाले 35 वर्षीय निमेश राय इससे असहमत हैं, ‘किसी ने किसी को जबरदस्ती धंधे में नहीं धकेला. किसी को पता नहीं कि कब कैसे क्या शुरू हुआ. कई कहानियां हैं. हां, ये जरूर है कि गरीब आदमी फंस जाए तो उसे बेटी से पेशा करवाना आसान रास्ता मालूम पड़ता है. फंस जाने पर समाज निकलने नहीं देता. अब थोड़ा बदल रहा है. पर ये नहीं कह सकते कि सारे लोग लड़कियों को फंसाना ही चाहते हैं. अगर चुनावी राजनीति की बात करें तो सबके अपने अपने लक्ष्य हैं, इसमें अगड़ी जातियां हारना तो नहीं ही चाहेंगी.’
तवायफों की गलियों को बाईजी की गलियों के नाम से पुकारा जाता है. हाल-फिलहाल में इस काम में लगे बहुत से लोगों ने अपनी बेटियों को दुबई और मुंबई भेज दिया है. बाईजी गलियों में से ही एक व्यक्ति ने बताया ,’कई लोग अपने आलस की वजह से अभी भी इस धंधे में फंसे हुए हैं तो कुछ लोगों की ये आखिरी पीढ़ी है. पर जो दुबई और मुंबई चले गये हैं, वो बहुत पैसा कमा रहे हैं. आप देख लें कि गांव के उनके घरों में भी एसी लगे हुए हैं. ऐसे दो-चार घर ही हैं. वो किसी भी दबाव से मुक्त हैं और मुंबई (अंधेरी) में रहते हैं . यहां त्यौहार पर आते हैं. वो हमारे समाज के भी नहीं रहे. वो तो स्टार हैं.’
42 वर्षीय तबस्सुम(बदला हुआ नाम) बताती हैं, ‘हमारी मांओं ने ये काम किया और हमने भी ये काम किया. लेकिन आगे वाली पीढ़ियां नहीं करेंगी. हमने अपनी बेटियों का पढ़ाना शुरू किया है. मेरी बेटी ने बीए की और प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाती है. मैंने शादी नहीं की लेकिन, अपने भाई-बहनों के परिवार बसाए. ये पहली पीढ़ी है जिसकी शादियां हो रही हैं. पहले बेटियों से धंधा करवाया जाता था. शादी कर देते तो पेट कैसे पालते?’
पहली बार शादियां और स्कूल जा रहे हैं बच्चे
तबस्सुम की मां बूढ़ी हो चुकी हैं. उनकी उम्र की बहुत कम महिलाएं हैं, जो 40-50 साल पुरानी बातें बता सकें. जिंदगीभर इस दलदल में फंसी रही बूढ़ी मां घर की बेटियों की शादी से खुश हैं. गौरतलब है कि ज्यादातर परिवार मैट्रीलिनियल तरीके से ही जा रहे हैं. क्योंकि तवायफों की शादियां नहीं होती थीं. उनके बच्चे होते थे. घर में औरतें ही मुख्य कामकाजी होती थीं और पीढ़ी दर पीढ़ी वही खर्च चलाती थीं और सबको पालती थीं. पर अब बच्चों की दूर-दराज के इलाकों में पढ़ाकर और शादी कर इस समाज से हटाया जा रहा है.
तबस्सुम कहती हैं, ‘मोदी सरकार के विकास के वादों से प्रभावित होकर हमने मोदी को ही वोट दिया. कुछ काम हुआ भी है. पहले की तुलना में सड़कें ठीक हुई हैं. पहले टूटी-फूटी सड़कों पर कहीं जाने पर कमर में दर्द हो जाता था. लेकिन मोदी सरकार से ये भी कहना है कि बेटी पढ़ाओ और बेटी पढ़ाओ के नारे को सफल करने के लिए हमारे बच्चों को नौकरी दिलवाई जाए. हम इस धंधे से बाहर निकलना चाहते हैं. लेकिन सामाजिक तौर पर स्वीकार्यता नहीं मिलने पर हमें शादियां भी झूठ बोलकर करनी पड़ रही हैं.’
तबस्सुम छह बहन और दो भाईयों में सबसे बड़ी थीं. पहले वो दिल्ली गईं और वहां कई फैक्ट्रियों में काम किया. पर घर की बिगड़ती हालत और छोटे भाई बहनों की वजह से वापस आकर नाच-गाने का काम शुरू करना पड़ा. अपने सारे भाई-बहनों को पाल-पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया और शादियां भी कीं. पर अब जब वो अपने बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हैं, भाई-बहन भी नाराज हो रहे हैं.
तबस्सुम की ही तरह इस गांव में अन्य बाईजी भी हैं. बहुत सारी बूढ़ी हो चुकी हैं और घर के काम कर टाइम पास करती हैं. कुछ घरों को छोड़कर कई तवायफों के घर दिल्ली और मुंबई की झुग्गी झोपड़ियों की याद दिलाते हैं. यहां आकर अहा सुरम्य ग्राम जीवन की कल्पना फेल हो जाती है. बदबूदार, सीलन भरे मकानों में रहने के लिए लोग अभिशप्त हैं. गलियों से बाहर निकलते ही सूरज की तेज रोशनी और गांव की हवा का अहसास हो पाता है.़
‘प्रधानी का चुनाव बना इस मसले का हल’
गांव के ही 35 वर्षीय समीर खान बताते हैं, ‘मैं तो क्रिकेट भी खेल चुका हूं. बहुत पहले ही महेंद्र सिंह धोनी इत्यादि को खेलते देखा है. हमारे गांव में परंपरा और पॉलिटिक्स का बोलबाला रहा है. पहले परंपरा के नाम पर लड़कियों को देह व्यापार में धकेला गया. अब पॉलिटिक्स कर के किया जा रहा है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए कोई चाहता नहीं कि तवायफों के बच्चे पढ़ें और बाहर निकलें. आप बताइए कि इस गांव में विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए एक बूथ पर वोटिंग होती है. पर प्रधानी के चुनाव के लिए दो बूथों पर वोटिंग क्यों होती है? क्योंकि एक बूथ प्रधान की जमीन पर बने स्कूल में बनता है.’
प्रधान से तात्पर्य गांव के पूर्व प्रधान से है जो अगड़ी हिंदू जाति के हैं. उनका बचाव करते हुए गांव के अखिल राय बताते हैं, ‘ये चला आ रहा है. वो लिख के दे दें डीएम को, वो बदलवा देगा बूथ. ट्वीट कर दें रेलमंत्री को, वो बूथ लेते जाएंगे ट्रेन से.’ इस बात पर उनके साथ के लड़के हंस देते हैं.
बाईजी के मुहल्ले की 20 वर्षीय आलिया बताती हैं, ‘मैं भी तो पढ़ने गई थी. पर कितना पढ़ पाती? तुरंत इस पेशे में आना पड़ा. इस गांव में तो बहुत से नेता, अधिकारी आते रहते हैं. पर कुछ बदला नहीं. अभी बहुत टाइम लगेगा बदलने में. नाचनेवाली सारी लड़कियां और परिवार मुसलमानों के ही हैं. एक-दो को छोड़कर किसी के पास जमीन नहीं है, बिजनेस नहीं है. वो करेंगे क्या? अगर किसी दूसरे शहर में नौकरी लग जाए, तो कर लेंगे. पर उसके लिए इतनी पढ़ाई कैसे कर पाएंगे? सरकार से आग्रह है कि यहां बूढ़ी हो चुकी औरतों का नाम ही किसी वृद्धा पेंशन, अनाज योजना में डलवा दें. सिर पर एक छप्पर हो जाए, शौचालय बन जाए.’
‘गरीब मुसलमानों की बजाय अमीर भूमिहारों को मिला योजनाओं का लाभ’
इसी गांव के 65 वर्षीय जैनुल बताते हैं, ‘बीपीएल सूची में सारे धनी लोगों का ही नाम था. सबने प्रधानमंत्री आवास योजना में घर भी ले लिए, शौचालय भी बनवा लिया, आयुष्मान कार्ड भी बना लिया. गरीब आदमी को पता ही नहीं कि उसका नाम गरीबों की सूची में नहीं है. मैं खुद अपने परिवार के लिए दौड़ते-दौड़ते थक गया. समझ ही नहीं आया कि क्या प्रमाणपत्र दूं अपने मिट्टी के घर के लिए?’
प्रधान-पति शोएब इस बारे में बताते हैं, ‘हां, ये बात सच है कि बीपीएल की सूची में सारे गरीब लोगों का नाम नहीं था. पिछले दो-तीन सालों में इसे काफी सुधारा गया है. आगे सुधार के लिए हम लोग प्रयास कर रहे हैं. सबको अनाज मिल जाए, गरीब लोगों को छप्पर और शौचालय मिल जाए तो थोड़ा जीवन चल जाएगा. पर इसके लिए प्रधानी का चुनाव फेयर हो तभी हो पाएगा. पुराने प्रधान तीस साल तक यहां लगातार प्रधान रहे हैं, उनके ही राज में तो सारी चीजें हुई हैं. क्यों नहीं सुधारा उन्होंने? इसका जवाब क्यों नहीं देते? अपने ऊपर हुए जुल्मों का जवाब कोई उनसे क्यों ना मांगे?’
गांव के बाहर सरकारी और प्राइवेट दोनों ही स्कूल खुल गये हैं. गांव के बच्चे वहां पढ़ने जाते हैं. तवायफों के बच्चों से किसी तरह का भेदभाव अब स्कूलों में नहीं है. एक दस साल का बच्चा बताता है, ‘हमारे टीचर ने साफ-साफ कहा है कि कोई कुछ भी कहे तो सीधा प्रिंसिपल के पास जाना है, हम देख लेंगे. ये बात उनकी मांएं भी मानती हैं. मांएं बस ये चाहती हैं कि सरकार कोई अनुदान दे दे जिससे उनके बच्चे पढ़-लिखकर यहां से निकल जाएं. अपने जीवन के लिए वो बस चल रही योजनाओं में से ही अपना हिस्सा मांग रही हैं.’
बूढ़ी हो चुकी सितारा बेगम बताती हैं, ‘हम अपने जीवन को दुबारा याद नहीं करना चाहते. ना ही दुबारा जीना चाहते हैं. पर अपने बच्चों का जीवन चाहते हैं. उन्हें दलदल से बाहर निकाल दे कोई.’
गांव के कई लड़के इस बात पर राजी होते हैं, ‘स्कॉलरशिप मिल जाए तो बच्चे निकल जाएंगे. बाकी अगर बूढ़ियों को सरकार प्रधानमंत्री आवास योजना, पेंशन योजना से कुछ दे दे तो इनका काम चल जाएगा. प्रधानमंत्री को हिंदुस्तान के इस अनोखे गांव के बच्चों पर एक बार निगाह जरूर डालनी चाहिए. बसुका की तवायफों के राग-रंग, अदाओं और ठुमरी-गजल का लुत्फ तो जमाने ने खूब उठाया है. पर अब बारी है उनके इतिहास का सम्मान करते हुए उनके भविष्य को बेहतर बनाने की.’