scorecardresearch
Thursday, 28 March, 2024
होमदेशUPSC ने 10 सालों में बहुत से नियम बदले. अब MPs जानना चाहते हैं उनका सिविल सर्विस पर क्या असर पड़ा

UPSC ने 10 सालों में बहुत से नियम बदले. अब MPs जानना चाहते हैं उनका सिविल सर्विस पर क्या असर पड़ा

राज्यसभा पैनल का कहना है कि हालांकि 2010 के बाद से, सिविल सर्विस परीक्षा में काफी बदलाव आया है, लेकिन किसी ने उम्मीदवारों, भर्ती की प्रकृति, और सामान्य रूप से प्रशासन पर, इसके असर का अध्ययन नहीं किया है.

Text Size:

नई दिल्ली: हालांकि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने 2010 के बाद से सिविल सेवा परीक्षा के स्वरूप में काफी हद तक बदलाव किया है लेकिन ऐसा कोई अध्ययन नहीं कराया गया है कि ऐसे बदलावों का उम्मीदवारों, उनकी भर्ती की प्रकृति और सामान्य रूप से प्रशासन पर क्या असर पड़ा है. कार्मिक, जन शिकायतों, क़ानून एवं न्याय पर एक राज्यसभा पैनल ने अपनी रिपोर्ट में ये विचार व्यक्त किए हैं.

पिछले महीने जारी रिपोर्ट के अनुसार राज्यसभा कमेटी ने पिछले साल भी सिफारिश की थी कि एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाना चाहिए, ‘जो मूल्यांकन करे कि 2010 के बाद से कमीशन (यूपीएससी) ने परीक्षा की स्कीम में जो व्यापक फेर-बदल किए हैं, उनका प्रशासन और उम्मीदवारों पर क्या असर पड़ा है’.

यूपीएससी ने समय-समय पर अपने जवाब में कहा है कि इस उद्देश्य के लिए बासवान कमेटी का गठन किया गया है. लेकिन, राज्यसभा पैनल ने कहा कि वो भलिभांति अवगत है कि बासवान कमेटी ‘योग्यता, सिलेबस और परीक्षा की स्कीम तथा पैटर्न पर सिफारिशें देने के लिए गठित की गई थी’, लेकिन संसदीय पैनल ‘अपनी सिफारिशों में जिस बात पर ज़ोर देता रहा है वो है ‘प्रशासनिक प्रभाव का मूल्यांकन’, यानी प्रशासनिक फैसलों के प्रभाव का मूल्यांकन’.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘यूपीएससी ने समय-समय पर विभिन्न एक्सपर्ट कमेटियों की सिफारिशों के आधार पर सिविल सर्विस परीक्षा के पैटर्न में बदलाव किए हैं. लेकिन ऐसा कोई अध्ययन नहीं कराया गया कि ऐसे बदलावों का उम्मीदवारों, भर्ती की नेचर और प्रशासन पर मोटे तौर पर क्या असर पड़ा है’. ‘इसलिए उपरोक्त के मद्देनज़र कमेटी अपनी सिफारिश पर फिर से बल देती है और उम्मीद करती है कि (डीओपीटी) जल्द से जल्द इस कार्य को पूरा करेगा’.

दिप्रिंट ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के प्रवक्ता से टिप्पणी लेने के लिए संपर्क किया कि क्या अंदरूनी तौर पर ऐसी कोई स्टडी की गई है लेकिन इस ख़बर के छपने तक कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें : सिविल सेवाओं के लिए एक पैनल कैसे मोदी सरकार में एचआर संबंधी गतिविधियों में बदलाव करेगा


परीक्षा में बदलाव और उनका असर

2010 से, सिविल सेवा परीक्षाओं में कई बदलाव लाए गए हैं- वैकल्पिक पेपर्स की संख्या से लेकर सिविल सर्विसेज़ एप्टीट्यूड टेस्ट (सीसैट) पेपर तक; जनरल स्टडीज़ पेपर्स की संख्या में बढ़ोतरी; या भाषा के पेपर से विदेशी भाषाओं को निकालना.

कई एक्सपर्ट्स ने कहा है कि इन बदलावों से देश की शीर्ष नौकरशाही की संरचना, मूलरूप से बदल गई है. लेकिन, ऐसा कोई अधिकारिक विश्लेषण नहीं है जो बताए कि इन बदलावों से नौकरशाही की सामाजिक रचना या व्यापक रूप से प्रशासन पर क्या असर पड़ा है.

लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन के आंकड़ों के अनुसार, जिन्हें एक आरटीआई आवेदन के ज़रिए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नाम की, शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही, आरएसएस से संबद्ध एक इकाई ने निकाला है, 2013 से 2018 के बीच सीएसई में इंजीनियरों की भर्ती में क़रीब 61 प्रतिशत का उछाल देखने को मिला. इस अवधि के दौरान दूसरी पृष्ठभूमियों से होने वाली भर्ती में इस तरह की वृद्धि नहीं देखी गई.

एसएसयूएन के राष्ट्रीय संयोजक (प्रतियोगी परीक्षा) देवेंद्र सिंह ने कहा, ‘समय के साथ हमने देखा है कि सिविल सेवाओं में आने वाले इंजीनियरों की संख्या में इज़ाफा हुआ है…अब, जो इंजीनियर्स हैं वो आमतौर से अंग्रेज़ी-भाषी शहरी इलाक़ों से आते हैं, अपेक्षाकृत उनके, जो ह्यूमैनिटीज़ और आर्ट्स से आते हैं- ऐसे उम्मीदवार जो अपनी परीक्षा स्थानीय भाषाओं में लिखते हैं’.

सिंह ने आगे कहा, ‘पहले सीसैट पेपर लाया गया था लेकिन देशव्यापी विरोध-प्रदर्शनों के बाद सरकार को उसे एक क्वालिफाइंग पेपर बनाना पड़ा…लेकिन उसके अलावा और भी बहुत से बदलाव हैं. परीक्षा की वर्णनात्मक प्रकृति, अब ज़्यादा से ज़्यादा छोटे जवाबों की तरफ जा रही है’. उन्होंने ये भी कहा, ‘इससे साफतौर से उन्हें फायदा होता है जो साइंस या इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से आते हैं, अपेक्षाकृत उनके जो आर्ट्स पृष्ठभूमि से आते हैं और जो लिखने में मज़बूत होते हैं’.

उन्होंने आगे कहा: ‘और भी ख़राब बात ये है कि अक्सर, यूपीएससी की ओर से कोई स्पष्ट कम्युनिकेशन नहीं होता कि किस तरह के बदलाव लाए जा रहे हैं और उनके पीछे क्या तर्क है, जिसकी वजह से और अनिश्चितता पैदा होती है’.

लेकिन पूर्व डीओपीटी सचिव सत्यानंद मिश्रा ने कहा कि यूपीएससी द्वारा लाए गए बदलावों से सुनिश्चित हुआ है कि नौकरशाही अब पहले से ज़्यादा प्रतिनिधिक हो गई है.

मिश्रा ने कहा, ‘अगर आप कहते हैं कि आईआईटीज़ से बहुत सारे ग्रेजुएट्स आ रहे हैं, तो हमें आईआईटीज़ की सामाजिक संरचना को देखना चाहिए. बहुत से लोग जो परीक्षा पास करते हैं, ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘ख़ासकर मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के बाद से नौकरशाही ज़्यादा प्रतिनिधिक ही हुई है’.

लेकिन, उन्होंने ये ज़रूर कहा: ‘कमेटी ये स्टडी कर सकती है कि पिछले कुछ सालों में यूपीएससी द्वारा लाए गए बदलावों से नौकरशाही की क्षमता बढ़ी है या उसमें कमी आई है’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: जम्मू-कश्मीर में इतने सारे ज़िलों के प्रशासनिक प्रमुख क्यों बने हुए हैं ग़ैर-आईएएस अधिकारी


 

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. 2011 के बाद से सिविल सर्विस मे भारतीय भाषाओ के अभ्यर्थियों के चयन मे उत्तरोत्तर कमी आई है। अब भारतीय भाषाओ मे परीक्षा देने वाले अनारक्षित श्रेणी के उम्मीदवार शायद ही IAS सर्विस पास रहे है। कुल चयनित होने वालों कि संख्या भी सिमटकर 2 से 3 प्रतिशत के आसपास रह गई है।

Comments are closed.