नई दिल्ली: नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दस्तावेज में सिर्फ़ एक जगह पर एम.फिल. का ज़िक्र है. इसमें कहा गया है कि नई नीति के तहत इसे समाप्त कर दिया जाएगा. इस विषय में दिप्रिंट ने एम.फिल. से जुड़े कई छात्रों से बात की और सबने इसे समाप्त किए जाने को लेकर नाकारात्मक राय दी. हालांकि, इस पर शिक्षा मंत्रालय और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन (यूजीसी) के अपने तर्क हैं.
जेएनयू से हिंदी साहित्य में एम.फ़िल. कर रहे छात्र सूरज रा ने दिप्रिंट से कहा, ‘इसके समाप्त होने से न सिर्फ छात्र-समुदाय को नुकसान होगा बल्कि विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध की गुणवत्ता में भारी गिरावट आएगी. नेशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ़) में शोध की संख्या और इसकी गुणवत्ता एक महत्वपूर्ण मापदंड होता है, एम.फिल. के हटाए जाने से विश्वविद्यालयों की रैंकिंग पर भी इसका उल्टा प्रभाव पड़ेगा.’
कई अन्य छात्रों ने कहा कि सरकार ने नई नीति में इसे हटाने का निर्णय तो ले लिया पर अभी तक इसका कोई संज्ञान नहीं लिया है कि जो लोग अभी एम.फिल. कर रहे हैं, उनका क्या होगा और वर्तमान समय में जिन लोगों ने इसमें नामांकन के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों में आवेदन किया है, उनका क्या होगा?
इस पर यूजीसी के वाइस चेयरमैन भूषण पटवर्धन ने दिप्रिंट से कहा, ‘जो अभी एम.फिल. कर रहे हैं उन्हें किसी भी तरह की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. इसकी पूरी संभावना है कि अगले अकादमिक सत्र से एम.फिल. में दाख़िला नहीं होगा.’ शिक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर पटवर्धन द्वार कही गई इस बात की पुष्टि की.
महाराष्ट्र के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से 2009 में मॉस कॉम में एम.फिल. करने वाले एमिटी यूनिवर्सिटी ग्वालियर के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर संदीप कुमार ने इसे समाप्त किए जाने के निर्णय पर कहा, ‘पीएचडी करने से पहले एम.फिल. करने पर रिसर्च की बेसिक जानकारी से छात्र अवगत होते हैं. एम.फिल. होने पर छात्र बैचलर के छात्रों को पढ़ाने के योग्य भी होते हैं.’
ऐसे तर्कों के साथ उनका कहना है कि इसे हटाए जाने से वो सहमत नहीं हैं. वहीं, यूजीसी के ही एक अन्य अधिकारी ने इस विषय पर अपना मत रखते हुए कहा कि एम.फिल. को इनोवेटिव रिसर्च से ज़्यादा नौकरी पाने की योग्यता के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था.
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस आगरा से 1991 में समाज शास्त्र में एम.फिल. करने वाले नीरज कुमार ने कहा, ‘ये मास्टर्स और डॉक्टरेट के बीच एक पुल का काम करता था.’
कुमार की शंका ये है कि क्या ऐसे कदम के सहारे सरकार उच्च शिक्षा के निजीकरण की तरफ़ बढ़ना चाहती है? उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में तो एम.फिल. निरर्थक हो ही जाएगा.
आगरा यूनिवर्सिटी से ही 2017 में भाषा विज्ञान में एम.फिल. करने वाले मोहम्मद जावेद ने कहा, ‘इसके सहारे एक रिसर्च स्कॉलर को नींव मज़बूत करने का समय मिलता है. इस हटाए जाने के बाद पीएच.डी. स्तर के रिसर्च सवालिया घेरे में आ जाएंगे.’
हालांकि, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के वाइस चांसलर प्रोफेसर (डॉक्टर) रणवीर सिंह ने कहा, ‘जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) जैसी कुछ जगहों पर एम.फिल. की पढ़ाई होती है. मुझे नहीं लगता कि इसे लेकर कभी कोई गंभीर रिसर्च हुआ है कि एम.फिल. कैसे प्रासंगिक या ज़रूरी है और इससे क्या हासिल होता है.’ वहीं, जेएनयू वीसी एम. जगदीश कुमार ने कहा कि वो एम.फिल. हटाए जाने के फ़ैसले का पूरी तरह से समर्थन करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘पहले जेएनयू में एम.फिल.-पीएचडी. एक साथ होता था. ऐसे में इसमें एक छात्र के औसतन 6 से 9 साल लग जाते थे. 2017 में हमने दोनों को अलग कर दिया. अब उन्हें एमए-एमएससी के बाद सीधे पीएच.डी. में दाख़िला मिल जाता है.’ कुमार का दावा है इससे छात्रों का काफ़ी समय बच जा रहा है जिसे वो अन्य ज़रूरी कामों में लगा सकते हैं. इन वजहों से नई नीति के इस फ़ैसले को उनका पूरा समर्थन है.
हालांकि, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र में एम.फिल. कर रहीं हिना सिंघल ने भी यही कहा कि इसे बंद किए जाने का सीधा असर रिसर्च मॉडल पर पड़ेगा. ऐसी शंकाओं के बीच इसे हटाए जाने के तर्क से जुड़े एक सवाल के जवाब में यूजीसी के पटवर्धन ने कहा, ‘4 साल की गहन अनुसंधान वाली डिग्री के विकल्प से उम्मीद है कि छात्रों को अनुसंधान के लिए सही रास्ता मिलेगा.’ मोदी सरकार ने अपनी नई शिक्षा नीति में तीन से चार साल के अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम को मंज़ूरी दी है.
मल्टीपल एक्ज़िट यानी कई तरह के निकास वाले इस कार्यक्रम में पहला साल पूरा करने वाले छात्रों को सर्टिफ़िकेट, दूसरे साल वालों को डिप्लोमा और तीसरे वालों को डिग्री मिलेगी. चार साल का प्रोग्राम पूरा करने पर ‘रिसर्च डिग्री’ दिए जाने की बात है. ऐसा इसलिए किया गया है कि किसी भी साल में कॉलेज छोड़ने वाले छात्र का पूरा साल बर्बाद न हो.