नई दिल्ली: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) भारत में पीएचडी अनुसंधान की गुणवत्ता को लेकर चिंतित है, और उसकी चिंता की एक बड़ी वजह भी है.
पीएचडी या डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी शैक्षणिक योग्यता के उच्चतम स्तर की प्रतीक है, और इसका मकसद है दिचलस्पी या अध्ययन के क्षेत्र में नई अंतर्दृष्टि हासिल करने में सहायता के लिए मौलिक अनुसंधान को बढ़ावा देना है.
2010 से 2017 के बीच भारतीय विश्वविद्यालयों में पीएचडी के विषयों – मानविकी और विशुद्ध विज्ञान – की दिप्रिंट की पड़ताल से पता चलता है कि ये अक्सर बिना आनुभविक अध्ययन वाले अतिसैद्धांतिक विषय होते हैं, या फिर समकालीन उपयोगिता से परे ऐतिहासिक विषय.
उपरोक्त अवधि में पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिले में 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को देखते हुए, यूजीसी ने गत एक दशक में हुए शोधों की गुणवत्ता के आकलन के लिए छह महीने के अध्ययन के लिए प्रस्ताव आमंत्रित किए हैं.
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मानविकी में अनुसंधान
पिछले दिनों मानविकी के तहत लिए गए पीएचडी के विषयों में शामिल हैं: ’19वीं और 20वीं सदी में गुजरात के आदिवासी आंदोलन’, ‘केरल में औपनिवेशीकरण और विकास की समस्याएं – 1850-1956 के दौरान सार्वजनिक कार्रवाई के उद्भव और प्रकृति का अध्ययन, ‘औपनिवेशिक पंजाब में विधवाएं और विधवापन’ और ‘1947 से अब तक झारखंड में कोयला खदानों और इस्पात संयंत्रों में कामकाजी महिलाओं की स्थिति का एक सर्वेक्षण.‘
इसी तरह इतिहास श्रेणी में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जीवन, सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन और उनमें महिलाओं की भूमिका, धार्मिक सुधार, वास्तुकला और पुरातत्व शास्त्र, और जिलों और उनकी महत्ता के सांस्कृतिक अध्ययन जैसे असंगत और सतही विषय शामिल रहे हैं. इनमें से कुछ विषय हैं: ‘दारा शिकोह का जीवन और कार्य’, ‘अमरेली नगरपालिका का इतिहास’, ‘गुजरात में आदिवासी मेलों का अध्ययन’ और ‘कर्नाटक में प्रजनन के देवताओं का अध्ययन’.
लोक कथाओं के अंतर्गत एक अध्ययन ‘रंगोली की कला और इसकी संस्कृति’ पर केंद्रित था. हिंदी साहित्य के अंतर्गत, ‘हिंदी साहित्य में लोटे का महत्व’ को कई लोगों ने अपनी पीएचडी का विषय चुना है- कुछ ने काव्य में इस बर्तन के महत्व पर फोकस किया है, जबकि कुछ अन्य ने गद्य रचनाओं में इसकी भूमिका पर विचार किया है.
मणिपुर में 2010 में राजनीति विज्ञान के तहत ‘मणिपुर में राजनीति’ और ‘मणिपुर के दल’ जैसे व्यापक मुद्दों को शोध का विषय बनाया गया. जबकि 2015 में, बहुतों के लिए कर्नाटक लोकायुक्त पीएचडी का विषय रहा था. ओडिशा में कई छात्रों ने राज्य में जिलाधिकारियों की भूमिका पर रिसर्च किए हैं.
जबकि इसी अवधि में, तुलना के लिए, अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय में शोध के विषयों में ‘परस्पर संबद्ध: अधिक हरित विश्व के लिए धारणीयता की संस्कृति’ और ‘विरोध के ज़रिए समर्थन जुटाना: ट्रंप के अमेरिका और किर्चनर के अर्जेंटीना में लोकप्रियतावादी पहचान का निर्माण’ शामिल रहे हैं, जो कि सामयिक संदर्भों में प्रासंगिक हैं.
ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय के अनुसार, राजनीति विज्ञान के शोध को एक ‘अजीब बीमारी’ लगी हुई है. उन्होंने दिप्रिंट को ईमेल के ज़रिए बताया, ‘अमेरिका, और कुछ हद तक यूके, के विश्वविद्यालयों के विपरीत भारतीय विश्वविद्यालयों में राजनीतिक सिद्धांतकारों का वर्चस्व रहा है, जो आनुभविक अनुसंधान से एक दूरी रखते हैं. वार्ष्णेय ने कहा, ‘आनुभविक अनुसंधान को न तो अनुसंधान का गंभीर रूप समझा जाता है, और न ही अनुसंधान के माध्यम के रूप में उसे बढ़ावा दिया जाता है.’
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इस समस्या का एक सांस्थानिक निहितार्थ है.
वार्ष्णेय के अनुसार, ‘भारत की राजनीति पर सर्वाधिक व्यवस्थित आनुभविक अनुसंधान, विभिन्न व्यावहारिक कारणों से, विश्वविद्यालयों में नहीं बल्कि उसके बाहर हुए हैं. इनमें से अनेक अध्ययन दिल्ली स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी में हुए हैं.’
उन्होंने कहा, ‘चूंकि इस तरह के आनुभविक अनुसंधान कतिपय अध्ययन केंद्रों में ही हो रहे हैं, इसलिए इनको आसानी से दूसरी जगह दोहराया नहीं जा सकता. इसके अनुसरण के लिए, कम-से-कम, पीएचडी छात्रों को प्रशिक्षित करना होगा. जब तक इन छात्रों को राजनीतिक सिद्धांत के अलावा व्यवस्थित रूप से विभिन्न आनुभविक तरीकों की शिक्षा नहीं दी जाती, और विश्वविद्यालयों के विभागों में केस स्डटी से आगे गंभीर आनुभविक अनुसंधानों को महत्व और प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, भारत में राजनीतिक विज्ञान प्रगति नहीं कर सकता और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे सम्मान नहीं मिल सकता.’
साहित्यिक अनुसंधान में दोहराव की समस्या
अंग्रेज़ी भाषा की बात करें तो भारत के अधिकतर शोधकर्ता अपने अध्ययनों को विलियम शेक्सपियर, जॉर्ज ऑरवेल, अमिताव घोष, विक्रम सेठ, खुशवंत सिंह, रवींद्रनाथ टैगोर और सलमान रुश्दी जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों के कार्यों पर केंद्रित रखते हैं. उदाहरण के लिए, ‘अमिताव घोष के उपन्यास: उपन्यासकार और मानव विज्ञानी’ और ‘अमिताव घोष के उपन्यासों का आलोचनात्मक अध्ययन’ जैसे पीएचडी शोध हाल के वर्षों में बारंबार किए गए हैं.
बिजनेस मैनेजमेंट, कॉमर्स, खेल और अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में अधिकतर अध्ययन सर्वे पर आधारित होते हैं. नई सूचनाएं एकत्रित करने की बजाय अनुसंधानकर्ता पूर्व में हो चुके सर्वेक्षणों को अपने शोध-प्रबंधों का विषय बनाते हैं. उदाहरण के लिए, अर्थशास्त्र की पीएचडी का एक विषय था ‘जूनागढ़ जिले के हीरा उद्योग का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन’, जबकि कॉमर्स का एक विषय था, ‘आंध्र प्रदेश के दवा उद्योग के बिक्री विभाग के कर्मचारियों में नौकरी से संतुष्टि का अध्ययन’.
भूगोल के तहत अधिकांश शोध-प्रबंध छोटी जगहों के कम मान्यता वाले विश्वविद्यालयों के छात्रों ने लिखे हैं. विश्लेषण आधारित इन अनुसंधानों में कृषि, पर्यावरण, जनसंख्या, संसाधन, शहरी निर्धनता, पर्यटन और विभिन्न राज्यों में फसलों का प्रचलन जैसे विषय शामिल रहे हैं.
पीएचडी विषयों के चुनाव की ‘सख्त’ प्रक्रिया
देश में पीएचडी कार्यक्रमों के तहत जमा सभी शोध-प्रबंधों का रिकॉर्ड रखने वाले संगठन भारतीय विश्वविद्यालय एसोसिएशन के पूर्व महासचिव फुरकान क़मर ने दिप्रिंट को बताया कि शोध के विषय अकेले छात्र या गाइड द्वारा ही तय नहीं किए जाते, बल्कि उसका निर्णय एक एक सख्त प्रक्रिया के ज़रिए होता है, जिसमें कई लोगों के विचारों पर गौर किया जाता है.
प्रस्तावित विषय सबसे पहले विश्वविद्यालय विशेष के अनुसंधान बोर्ड और अध्ययन बोर्ड में जाता है, फिर उसे स्वीकृति के लिए संबंधित संस्थान के संकाय बोर्ड और संकाय समिति के पास भेजा जाता है. यह फिर अकादमिक परिषद में जाता है, जिसमें शिक्षक और विशेषज्ञ शामिल होते हैं. इस पूरी प्रक्रिया के आखिर में जाकर पीएचडी के विषय को स्वीकृति दी जाती है और उम्मीदवार शोध का काम करना शुरू कर देता है.
क़मर सवाल करते हैं, ‘पीएचडी के विषय चुनने की प्रक्रिया बहुत ही सख्त है… यदि इससे पीएचडी की गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं होती है, तो किससे होगी?
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‘अनुसंधान का आकलन महज विषयों के आधार पर न करें’
विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ पीएचडी के विषय से उसकी प्रासंगिकता का निर्धारण नहीं हो सकता. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ संकाय सदस्य ने कहा, ‘यदि कई लोग शेक्सपियर पर शोध कर रहे हैं, तो इसका मतलब ये नहीं है कि थीसिस में दोहराव हो रहा है. संभव है अलग-अलग शोधकर्ता उनके लेखन के भिन्न पहलुओं पर विचार कर रहे हों.’
प्रोफेसर ने आगे कहा, ‘विशुद्ध विज्ञान में, लोग उम्मीद करते हैं कि हर शोध अनूठा होगा, लेकिन सभी शोधों को अनूठा होने की ज़रूरत नहीं है.’
‘हर शोध से ज्ञान में कुछ-न-कुछ इजाफा होना चाहिए. कई लोग अभी भी आइंस्टीन के सिद्धांत पर शोध कर रहे हैं, और कुछ लोगों का निष्कर्ष उनके सिद्धांत के सही होने का है, जबकि कुछ अन्य उनके सिद्धांत के सही नहीं होने के नतीजे पर पहुंचे हैं.’
प्रोफेसर ने कहा, ‘शोध इस प्रकार प्रासंगिक होना चाहिए कि उससे हमारा जीवन बेहतरी की ओर बढ़ सके. इसके अलावा, उसे देश विशेष की जरूरतों के लिए भी प्रासंगिक होना चाहिए. कई बार अनुसंधान समकालीन जरूरतों पर आधारित होता है, तो कभी-कभी वो भविष्य के लिए भी किया गया हो सकता है.’
विज्ञान में अनुसंधान
विशेषज्ञ विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे, और उद्योग-अकादमिक भागीदारी के अभाव की ओर इशारा करते हैं. उनका कहना है कि नए विचारों को सामने नहीं लाया जाता है और ज्यादातर लोग उन मुद्दों पर शोध किए जाते हैं जिनमें कि कोई दिलचस्पी नहीं रखता.
आईआईटी-दिल्ली के निदेशक प्रोफेसर रामगोपाल राव ने कहा, ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) जैसे संस्थानों में पीएचडी की गुणवत्ता बनी हुई है क्योंकि हमारा एक निश्चित मानक है, जिसे हासिल किए बिना संबंधित छात्र को पीएचडी पाने के काबिल तक नहीं माना जाता है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘द्वितीयक श्रेणी के संस्थानों में, कई बार सुविधाओं की अनुपलब्धता आड़े आती है. उदाहरण के लिए, आईआईटी संस्थानों में हमने पिछले 18 महीनों के दौरान अनुसंधान के बुनियादी ढांचे को उन्नत बनाने पर 100 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, पर द्वितीय श्रेणी के कितने संस्थान ऐसा कर पाएंगे?’
राव के अनुसार, दूसरे पायदान के ऐसे संस्थानों में अक्सर शिक्षकों को नवीनतम प्रौद्योगिकियों की जानकारी नहीं रहती है, जिसका असर अनुसंधान की गुणवत्ता पर पड़ता है.
भारत में पीएचडी की गुणवत्ता पर समग्रता में बात करते हुए मानव संसाधन मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘हमें निश्चित रूप से वर्तमान में भारत में हो रहे पीएचडी शोध की गुणवत्ता में सुधार करने की आवश्यकता है, लेकिन यह बाहरी नियंत्रण से नहीं आएगा. अच्छी पीएचडी के लिए, केवल शिक्षक बिरादरी के लोग ही नियंत्रण की जिम्मेदारी निभा सकते हैं.’
अधिकारी ने कहा, ‘इसे संभव करने के लिए हमें ये सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षण संस्थानों में हम आरंभ में ही उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षकों की भर्ती करें.’
छोटे शहरों में लोकप्रिय?
पीएचडी हासिल करने का चलन मेरठ, राजकोट, पाटन, भागलपुर, शिमला, रोहतक और सागर जैसे टियर-2 और टियर-3 शहरों में ज़्यादा नज़र आता है.
क़मर कहते हैं, ‘पीएचडी में प्रवेश की मांग का एक कारण अन्य अवसरों की कमी भी है. पीएचडी करना छोटे शहरों में बहुतों के लिए रोजगार पाने का एक तरीका है. अनुसंधान की प्रतिबद्धता उनके लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है, वे केवल रोजगार के अवसरों को देखते हैं.’
छोटे शहरों के छात्र अपनी थीसिस क्षेत्रीय भाषाओं में भी जमा करा सकते हैं, जिसका कि उन्हें फायदा मिलता है.
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विदेश गए विशेषज्ञों की मिश्रित राय
शुरुआती अध्ययन के बाद भारत से बाहर विदेशों में चले गए विशेषज्ञों की भारत में अनुसंधान की गुणवत्ता पर मिश्रित राय है.
अमेरिका के टस्कीगी विश्वविद्यालय में पौधों की आण्विक आनुवंशिकी के प्रोफेसर डॉ. सी.एस. प्रकाश भारत में विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान के बारे में कहते हैं, ‘पहले की तुलना में स्थिति बहुत अच्छी है, पर अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से अब भी पर्याप्त नहीं है. हां, भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) जैसे शीर्ष संस्थान ज़रूर अपवाद हैं.’
अमेरिका के वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर तारिक़ थचिल इस बारे में कहते हैं, ‘देश में ऐसे कई अच्छे संस्थान हैं जो विद्वान और योग्य शिक्षकों के नेतृत्व में बेहतरीन पीएचडी शोध करा रहे हैं. कॉलेज स्तर पर अनुसंधान की गुणवत्ता में ऊंच-नीच हर देश में देखी जा सकती है, ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं है.’
हालांकि थचिल ये भी मानते हैं कि विगत छह वर्षों के भीतर पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिले में 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी मानकों में गिरावट के बगैर संभव नहीं लगती. उन्होंने कहा कि सख्त निर्देशन, अच्छे पाठ्यक्रम और पाठ्य सामग्री और बौद्धिक और वित्तीय समर्थन के बिना रातों-रात उच्च गुणवत्ता का अनुसंधान संभव नहीं है.
अमेरिका में अनुसंधानरत एक पीएचडी शोधार्थी की राय में भारत की शिक्षा प्रणाली गुणवत्ता वाले अनुसंधान को बढ़ावा देने के अनुकूल नहीं है.
अमेरिका के एएंडएम विश्वविद्यालय में जैविक विज्ञान में पीएचडी की पढ़ाई कर रहे युधिष्ठर सिंह बेदी ने कहा, ‘मैंने महसूस किया कि छात्रों को उनके शोध में मदद करने वाले हमारे कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों को वो पहचान नहीं मिली रही थी, जिसके कि वे हकदार थे.’
बेदी के अनुसार, ‘बहुत सारी पदोन्नतियां वरिष्ठता-आधारित हुआ करती थीं, और इससे बहुत से अच्छे कनिष्ठ वैज्ञानिकों को निराशा हुई और वे अमेरिका में नौकरी की तलाश करने लगे, और वहां उन्हें आसानी से चुन लिया गया.’
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