नई दिल्ली: अगर किसी व्यक्ति को गलत सज़ा के कारण सालों तक जेल में रहना पड़े, तो क्या उसे इसके लिए आर्थिक मुआवज़ा मिलना चाहिए? इसी अहम सवाल पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने विचार किया. यह सुनवाई उन तीन पूर्व कैदियों की याचिका पर हुई, जिन्हें गलत तरीके से सज़ा दी गई थी, लेकिन बाद में शीर्ष अदालत ने निर्दोष करार दिया.
एनएएलएसएआर (NALSAR) की स्क्वेयर सर्कल क्लिनिक की ओर से दायर याचिका पर कार्रवाई करते हुए न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि इस मामले की सुनवाई 24 नवंबर को होगी. अदालत ने अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से भी इस मुद्दे पर अपनी राय देने को कहा है.
यह मामला महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के तीन पूर्व कैदियों से जुड़ा है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष ठहराया था. अब वे अपनी गलत सज़ा के लिए मुआवज़े की मांग कर रहे हैं, यह कहते हुए कि उन्हें ‘पूरी तरह से बरी’ किया गया था.
दिलचस्प बात यह है कि जिन तीनों को बरी करने का आदेश दिया था, वही न्यायमूर्ति विक्रम नाथ अब उनके मुआवज़े के मामले की भी सुनवाई करेंगे.
फिलहाल, भारत में गलत सज़ा पर मुआवज़े से जुड़ी कानूनी स्थिति अस्पष्ट और असंगठित है. हालांकि, कुछ मामलों में अदालतों ने अपने विवेक के आधार पर मुआवज़ा देने के आदेश दिए हैं.
2018 में भारत के विधि आयोग ने इस विषय पर एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि “गलत मुकदमेबाज़ी” से जुड़ा मुआवज़े का ढांचा अभी भी “जटिल और अस्पष्ट” है.
विधि आयोग ने ऐसे मामलों में लागू किए जाने वाले कुछ मानक सुझाए थे और बताया था कि ‘गलत मुकदमेबाज़ी’ किन परिस्थितियों में मानी जाएगी, लेकिन रिपोर्ट में यह भी स्वीकार किया गया कि इस विषय पर राज्य या केंद्र स्तर पर कोई स्पष्ट कानूनी ढांचा मौजूद नहीं है.
दूसरी ओर, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों में गलत सज़ा भुगतने वालों को मुआवज़ा देने की व्यवस्था है.
यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन)
अंतरराष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अनुबंध (आईसीसीपीआर) के हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते और अपने घरेलू कानूनों जैसे क्रिमिनल जस्टिस एक्ट, 1988 के तहत, ब्रिटेन उन लोगों को मुआवज़ा देता है जिन्हें गलत सज़ा दी गई हो और बाद में नए तथ्यों के आधार पर यह साबित हो जाए कि उन्होंने अपराध नहीं किया था.
मुआवज़े की राशि तय करते समय कई बातों को ध्यान में रखा जाता है — जैसे व्यक्ति की साख को पहुंचा नुकसान, अपराध की गंभीरता और दी गई सज़ा की कठोरता.
2011 से पहले, जिन लोगों को केवल इसलिए बरी किया गया था क्योंकि सबूत ‘संदेह से परे’ साबित नहीं हो पाए, उन्हें मुआवज़ा पाने का हक नहीं था, लेकिन 2011 के बाद, यूके सुप्रीम कोर्ट ने “गलत न्याय” की परिभाषा का दायरा बढ़ाया और कहा कि जो व्यक्ति अपनी निर्दोषता को ‘संदेह से परे’ साबित नहीं कर पाते, वे भी मुआवज़े के हकदार हैं.
जर्मनी
जर्मनी में गलत सज़ा के मामलों की ज़िम्मेदारी संविधान के अनुच्छेद 34 के तहत स्टेट की होती है.
इसके अलावा, Law on Compensation for Criminal Prosecution Proceedings, 1971 नामक कानून में स्पष्ट किया गया है कि अगर किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक सज़ा के परिणामस्वरूप नुकसान हुआ है और वह सज़ा बाद में रद्द या कम कर दी गई है, तो उसे राज्य की ओर से मुआवज़ा दिया जाएगा.
यह कानून अवैध रूप से की गई न्यायिक हिरासत, अवैध तलाशी या ज़ब्ती के मामलों में भी मुआवज़े का प्रावधान करता है.
मुआवज़े की राशि तय करते समय नौकरी या पेंशन बीमा में हुए नुकसान, आमदनी के नुकसान और वकील की फीस जैसी बातों को भी ध्यान में रखा जाता है.
संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका)
अमेरिका में संघीय कानून के तहत ऐसे व्यक्तियों को मुआवज़ा दिया जाता है जिन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया हो या जेल में रखा गया हो, और जिनकी सज़ा बाद में रद्द कर दी गई हो, या जिन्हें नए ट्रायल या सुनवाई में निर्दोष पाया गया हो, या निर्दोष होने पर माफी दी गई हो. मुआवज़े की राशि जेल में बिताए गए समय की अवधि पर निर्भर करती है.
अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में भी अपने-अपने कानून हैं, जिनमें गलत सज़ा या कैद भुगतने वालों को आर्थिक और गैर-आर्थिक सहायता दी जाती है.
कुछ राज्यों—जैसे डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया, कोलोराडो, कैलिफोर्निया और अलाबामा में तयशुदा मुआवज़े की राशि निर्धारित है, जबकि कनेक्टिकट, मैसाचुसेट्स, मेन, मैरीलैंड, नेब्रास्का और न्यू हैम्पशायर जैसे राज्यों में अदालत या संबंधित प्राधिकरण हर मामले की परिस्थितियों के आधार पर मुआवज़े की राशि तय करते हैं.
उदाहरण के लिए, इलिनॉय राज्य में पांच साल या उससे कम समय तक गलत कैद भुगतने वाले को लगभग 85,000 डॉलर का मुआवज़ा मिलता है, जबकि 14 साल से ज़्यादा समय तक जेल में रहने वालों को 1,99,150 डॉलर तक मिल सकते हैं.
अदालत के सामने रखे गए तीन मामले
वर्तमान मामला तीन याचिकाओं पर आधारित है.
पहला मामला जिसमें याचिकाकर्ता कट्टवेल्लई, जिन्हें देवकर के नाम से भी जाना जाता है, को 14 साल तक गलत तरीके से जेल में रखा गया था. इनमें से सात साल उन्होंने डेथ रो (फांसी की सज़ा की प्रतीक्षा) में बिताए. उन्होंने दलील दी कि गलत सज़ा के कारण उनकी ज़िदगी और आज़ादी जैसे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है और राज्य को इस उल्लंघन के लिए उन्हें मुआवज़ा देना चाहिए.
देवकर का कहना था कि उन्हें 2011 में दो लोगों की हत्या और डकैती के साथ-साथ एक महिला से बलात्कार के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया गया था. सात साल बाद सत्र अदालत ने उन्हें दोषी ठहराकर फांसी की सज़ा सुनाई, जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा. इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जिसने 2019 में उनकी फांसी पर रोक लगा दी. हालांकि, जब तक उनकी अपील लंबित रही, उन्हें अलग कोठरी में रखा गया.
लंबे समय तक चली इस गलत कैद और परिवार की बिगड़ती आर्थिक हालत ने देवकर के मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित किया. उन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की. करीब छह साल बाद, जुलाई 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया, यह कहते हुए कि उनकी सज़ा “किसी ठोस आधार पर टिक ही नहीं सकती थी” और फिर भी वे इतने साल जेल में रहे.
अदालत ने कहा कि कई अहम गवाहों से पूछताछ ही नहीं की गई थी और गिरफ्तारी तथा बरामदगी का आधार अदालत से बाहर के कबूलनामे थे. अदालत ने माना कि यह मामला मुआवज़ा दिए जाने लायक है और उन्हें रिहा कर दिया.
दूसरी याचिका रामकिरत गौड़ ने दायर की थी.
गौड़ ने 12 साल जेल में बिताए, जिनमें से छह साल फांसी के इंतज़ार में गुज़रे. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से मुआवज़े की मांग की, यह कहते हुए कि उन्हें “अवैध और पक्षपाती जांच” तथा “झूठे सबूतों पर आधारित मुकदमे” के कारण गलत सज़ा दी गई.
ठाणे की एक अदालत ने उन्हें हत्या, बलात्कार, अपहरण, सबूत मिटाने जैसे अपराधों के अलावा POCSO (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज़) एक्ट, 2012 के तहत भी दोषी ठहराया और 2019 में फांसी की सज़ा सुनाई.
2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस सज़ा को बरकरार रखा.
लेकिन 2022 में जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, तो अदालत ने पाया कि जांच अधिकारी ने गवाहों को “गलत तरीके से तैयार किया” क्योंकि एक “सनसनीखेज़ केस” सुलझ नहीं पा रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस केस में पेश किए गए सबूत “पूरी तरह झूठे और अविश्वसनीय” थे.
अदालत ने यह भी पाया कि 2014 में गौड़ को अवैध रूप से गिरफ्तार किया गया था, जबकि जांच फाइल में उनके खिलाफ एक भी ठोस सबूत नहीं था.
7 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में तीन साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या के केस में गौड़ की फांसी की सज़ा रद्द कर दी. अदालत ने कहा कि जांच “लापरवाह और सतही” थी, जिसके कारण अभियोजन पक्ष का पूरा मामला ढह गया.
अदालत ने टिप्पणी की कि जब कोई ठोस सबूत रिकॉर्ड पर नहीं था, तब भी आरोपी को दोषी ठहराया गया और लगभग 12 साल जेल में रखा गया — जिनमें से छह साल उन्होंने “मृत्युदंड की तलवार सिर पर लटकी रहने” जैसी स्थिति में बिताए.
तीसरे मामले में, संजय सुमरू को इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष ठहराया. वे 19 साल तक “मौत की सज़ा की छाया” में रहे, एक ऐसे अपराध के लिए जो उन्होंने किया ही नहीं था.
सुमरू ने कहा कि उन्होंने इन 19 में से 13 साल “दया याचिका पर फैसले की असहनीय प्रतीक्षा” में गुज़ारे. उनकी प्रारंभिक अपीलें — जिनमें उन्होंने सज़ा और दोषसिद्धि को चुनौती दी थी — सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थीं. 2004 में सत्र अदालत ने उन्हें एक नाबालिग के बलात्कार और हत्या के आरोप में फांसी की सज़ा सुनाई थी.
उनकी जान बची तो एक अप्रत्याशित मोड़ की वजह से. उनकी दया याचिका अदालत में 13 साल से अधिक समय तक लंबित रही. अंततः जब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दोषसिद्धि रद्द की, तो पाया कि केस में न तो कोई स्वतंत्र गवाह था, न ही कोई ठोस फॉरेंसिक सबूत.
अदालत ने यह भी कहा कि केस में संदेहास्पद “अदालत से बाहर के कबूलनामे” शामिल थे और टिप्पणी की, “अभियोजन पक्ष के मामले में सबसे बड़ा संदेह यह है कि किसी एक भी स्वतंत्र गवाह को कबूलनामे या बरामदगी के समर्थन में जोड़ा या पूछताछ नहीं की गई.”
सुप्रीम कोर्ट ने आगरा की फॉरेंसिक लैब की रिपोर्ट पर भी गंभीर सवाल उठाए, यह कहते हुए कि वह “अभियुक्त को अपराध से जोड़ने में बुरी तरह नाकाम रही” और सुमरू की सज़ा को साबित करने में कोई विश्वसनीय आधार नहीं था.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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